महनीय साहित्यकार नरेन्द्र कोहली जी के साहित्यिक सांस्कृतिक राष्ट्रीय लेखकीय अवदान की विशिष्टता का अन्दाजा इस बात से लगा सकते हैं कि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन मधुकर राव भागवत जी एवं सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी ने हिन्दी के प्रसिद्ध हस्ताक्षर के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए तथा उनके दुःखद निधन पर शनिवार को संयुक्त रुप से जारी शोक सन्देश में विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के शीर्ष पदाधिकारियों ने कहा कि- \’नरेन्द्र कोहली जी के निधन के दुःखद समाचार से हृदय को अतीव आघात हुआ। वे भारतीय साहित्य जगत के सशक्त स्तम्भ थे। कोहली ऐसे शब्दयोगी थे जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से इस माटी की विरासत और समृद्ध परम्पराओं को युगानुकूल सन्दर्भ में परिभाषित किया। उनके असमय चले जाने से हिन्दी साहित्य के एक प्राज्ज्वल्यमान अध्याय का अन्त हो गया है। आज उनके निधन से केवल रचना संसार ही नहीं, समूचा राष्ट्र स्तब्ध है। इस शोक की वेला में समस्त परिवार जनों को हार्दिक संवेदनाएँ एवं प्रभु चरणों में प्रार्थना है कि दिवंगत आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान दें।\’ ज्ञातव्य है कि, पद्मभूषण से सम्मानित डॉ नरेन्द्र कोहली ने 17 अप्रैल की शाम 6 बजकर 40 मिनट पर 81 वर्ष की आयु में दिल्ली के सेण्ट स्टीफन अस्पताल में अन्तिम सांस लिया। देश के प्रधानमन्त्री ने भी शोक प्रकट किया और दुःख से द्रवित हो उठे। उन्होंने शोक जताते हुए ट्वीट कर कहा- \’सुप्रसिद्ध साहित्यकार नरेन्द्र कोहली जी के निधन से अत्यन्त दुःख पहुँचा है। साहित्य में पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों के जीवन्त चित्रण के लिये वे हमेशा याद किये जायेंगे। शोक की इस घड़ी में मेरी संवेदनाएँ उनके परिजनों और प्रशंसकों के साथ हैं।’ साहित्यकार एवं उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली के पारिवारिक सूत्रों के अनुसार कोरोना संक्रमण के कारण शनिवार को राजधानी दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया। कोहली ने दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक के रूप में भी काम किया था। महाभारत पर आधारित उनका विशाल उपन्यास ‘महासमर’ तथा स्वामी विवेकानन्द के जीवन पर आधारित उपन्यास \’तोड़ो कारा तोड़ो’ काफी लोकप्रिय हुए और ये रचनाएँ साहित्य जगत में उल्लेखनीय हैं।
नरेन्द्र कोहली जी का जन्म स्यालकोट, पंजाब अर्थात अविभाजित भारत में 6 जनवरी 1940 और निधन 17 मार्च 2021 को हुआ और उन्होंने साहित्य के सभी प्रमुख विधाओं- उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी एवं गौण विधाओं- संस्मरण, निबन्ध, पत्र आदि और आलोचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में भी अपनी लेखनी चलाया है। उन्होंने सौ से अधिक श्रेष्ठ ग्रन्थों का सृजन किया है। हिन्दी साहित्य में \’महाकाव्यात्मक उपन्यास\’ की विधा को आरम्भ करने का श्रेय उन्हीं को जाता है। साहित्य में पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। वे एक सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार थे, हैं और रहेंगे; जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक परिचय करवाया है। \’अहिल्या\’ इनका नया उपन्यास है और भारतीय दृष्टि से लिखा गया उपन्यास है। जब से मैं उनके सम्पर्क में आया, वे भारत केन्द्रित विचार के साहित्यकार के रूप में सदैव दिखायी दिये हैं। किन्तु लोग बताते हैं कि रामविलास शर्मा, नामवर सिंह जैसे वे भी आरम्भ में मार्क्सवादी जनवादी प्रगतिवादी थे; अन्तर केवल यह था कि रामविलास जी एवं नामवर जी को भारतीयता की सुधि पचहत्तर वर्ष के बाद आयी, जबकि कोहली जी को यह सुधि उन लोगों से लगभग 25 वर्ष पहले अर्थात पचास की आयु के आसपास ही आ गयी थी। यह उनके रचना संसार में स्पष्ट दीखता है। कोहली जी की स्पष्ट मान्यता थी कि, कोई दार्शनिक, विचारक, साहित्यकार, कलाकार, गणितज्ञ, वैज्ञानिक यदि सचमुच का पढ़ा-लिखा और योग्य है तो वह मार्क्सवादी जनवादी प्रगतिवादी आदि नहीं हो सकता अर्थात जिसके अन्दर श्रेष्ठता या महानता जन्मजात होती है या जो अपने तप से इसे अर्जित करता है, वह मार्क्सवादी जनवादी आदि नहीं हो सकता अर्थात वह अपने जीवन में भोग के लिये विचारधारा का आश्रय नहीं ले सकता। जिसने स्वयं या प्रायोजित तरीके से महानता ओढ़ लिया है या किसी सत्ता ने दे दिया है तो, वही अराष्ट्रीय विचार का या मार्क्सवादी जनवादी आदि हो सकता है। इसी कारण कोहली जी को सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युगीन पुरोधा कहा जाता है। उन्होंने जीवन में अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त किये और 2017 में उन्हें भारत सरकार ने पदमश्री से भी अलंकृत किया।
उनकी प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर में आरम्भ हुई और भारत विभाजन के पश्चात परिवार के जमशेदपुर चले आने पर वहीं आगे की पढ़ाई हुई। दिलचस्प है कि प्रारम्भिक अवस्था में हिन्दी के इस सर्वकालिक श्रेष्ठ रचनाकार की शिक्षा का माध्यम हिन्दी न होकर उर्दू (कोई भाषा नहीं, बल्कि लश्करी जबान) थी। लेकिन हिन्दी में उनकी सिद्धता अद्धभुत थी। कोहली जी साहित्यकारों में हजारी प्रसाद द्विवेदी, नगेन्द्र, भगवती चरण वर्मा, विद्यानिवास मिश्र के बहुत निकट थे और यह निकटता व्यक्तिगत कारण से भी थी और नगेन्द्र जी के कारण भी थी। विद्यानिवास जी इनसे लगभग पन्द्रह वर्ष बड़े थे और इस कारण दोनों लोगों का एक दूसरे प्रति यथोचित आदर एवं स्नेह था। हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं नगेन्द्र जी को वे साहित्यिक जीवन में पितृवत मानते थे। जिस प्रकार विद्यानिवास जी में अध्ययन- अध्यापन में वैविध्य था, वैसे ही इनमें भी था। विद्यानिवास जी ने अपनी स्नातक की शिक्षा के दौरान संस्कृत, अंग्रेजी, गणित की पढ़ाई किया और संस्कृत से स्नातकोत्तर किया; लेकिन हिन्दी की उनकी सिद्धता ऐसी थी कि 150 से अधिक ग्रन्थों का प्रणयन उन्होंने हिन्दी में किया और उनके रचना संसार पर सैकड़ों शोध हिन्दी में हुये और हो रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि कोहली जी विद्यानिवास जी से बहुत प्रभावित थे और उनकी रचनाओं से ही प्रेरित होकर \’रामकथा\’ से सम्बन्धित विस्तृत साहित्य का सृजन उपन्यास विधा में किया। वैसे विद्यानिवास जी से वे कितना प्रभावित थे, उसका उल्लेख यहाँ नहीं किया जा सकता; लेकिन बात- बात में वे उनके निबन्ध \’मेरे राम का मुकुट भीग रहा है\’ और \’हिन्दू धर्म सनातन की खोज\’ पुस्तक की बार- बार कोहली जी चर्चा करते थे। विद्यानिवास की ही तरह कोहली जी को हिन्दी विषय दसवीं कक्षा की परीक्षा के बाद ही मिल पाया। विद्यार्थी के रूप में नरेन्द्र अत्यन्त मेधावी थे एवं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते रहे। वाद-विवाद में भी उन्हें अनेक बार अनेक प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और डाक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त किया। प्रसिद्ध आलोचक डॉ॰ नगेन्द्र या नगेन्द्र जी के निर्देशन में \’हिन्दी उपन्यासों का सृजन एवं सिद्धान्त\’ विषय पर उनका शोध-प्रबन्ध पूर्ण हुआ। इस प्रारम्भिक कार्य में ही युवा नरेन्द्र कोहली की मर्मभेदक दृष्टि एवं मूल तत्व को पकड़ लेने की शक्ति का पता लग जाता है। जैसा कि सभी जानते हैं और सामान्य स्थापना भी है कि किसी भी साहित्य में उपन्यास एवं कहानी समाज पर अधिक और दीर्घकालिक प्रभाव डालती है; इस कारण भी कोहली जी का रचना संसार अतिशय प्रभावी रहा है। उन्होंने 1963 से लेकर 1995 तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया और वहीं से मात्र 56 वर्ष की आयु में पूर्णकालिक लेखन हेतु स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण किया।
पौराणिक विषयों पर हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं विद्यानिवास मिश्र की विश्लेषण दृष्टि का नरेन्द्र कोहली पर प्रभाव था। इस या अन्य कारणों से उन्हें वर्तमान तुलसीदास कहना चाहिये या नहीं? यह अलग चर्चा का विषय है; लेकिन साहित्य को उस दिशा में कल-कल धारा के रूप में प्रवाहमान बनाये रखने का श्रेय उन्हें ही जाता है। इस प्रकार प्रायः छह-सात दशकों के पश्चात आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक अवदान का मूल्याँकन करते समय अब एक प्रमुख तथ्य उसमें और जोड़ा जा सकता है कि- आचार्य द्विवेदी और विद्यानिवास ने हिन्दी साहित्य में एक ऐसे द्वार को खोला जिस मार्ग से होते हुए या जिस नींव पर नरेन्द्र कोहली ने एक सम्पूर्ण युग या भव्य भवन की प्रतिष्ठा कर डाली। यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का सबसे उज्जवल पृष्ठ है और इस नवीन प्रभात का, कोहली को प्रमुख रश्मि बनाने का श्रेय अवश्य ही आचार्य द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र को दिया जाना चाहिये, जिसने युवा नरेन्द्र कोहली को प्रभावित किया। परम्परागत विचारधारा एवं चरित्र-चित्रण से प्रभावित हुए बगैर स्पष्ट एवं सुचिन्तित तर्क के आग्रह पर मौलिक दृष्टि से सोच सकना, साहित्यिक तथ्यों, विशेषत: ऐतिहासिक- पौराणिक तथ्यों का मौलिक वैज्ञानिक विश्लेषण, यह वह विशेषता है जिसकी नींव आचार्य द्विवेदी ने डाला, उसको विद्यानिवास सरीखे लोगों ने आगे बढ़ाया और उस पर रामकथा, महाभारत कथा एवं कृष्ण-कथाओं आदि का भव्य प्रासाद खड़ा करने का श्रेय आचार्य नरेन्द्र कोहली का है। संक्षेप में कहा जाय तो भारतीय संस्कृति के मूल स्वर आचार्य द्विवेदी जैसे लोगों के साहित्य में प्रतिध्वनित हुई और उनकी अनुगूंज ही नरेन्द्र कोहली रूपी बाँसुरी में समाकर संस्कृति के कृष्णोद्वेग में परिवर्तित हुई, जिसने हिन्दी साहित्य को झंकृतकर रख दिया। आधुनिक युग में नरेन्द्र कोहली ने साहित्य में आस्थावादी एवं विश्वासवादी मूल्यों को स्वर दिया था। सन 1995 में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास \’दीक्षा\’ के प्रकाशन से हिन्दी साहित्य में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का एक त्रिक का उदय हुआ, जिसे हजारी प्रसाद द्विवेदी- विद्यानिवास मिश्र- नरेन्द्र कोहली का त्रिक कहना पड़ेगा। तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता और अभारतीय वैचारिक दिशाहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पन्दित था। महाकाव्य का जमाना बीत चुका था, साहित्य के \’कथा\’ तत्त्व का संवाहक अब पद्य नहीं, गद्य बन चुका था। अत्यधिक रूढ़ हो चुकी रामकथा को युवा कोहली ने अपनी कालजयी प्रतिभा के बल पर जिस प्रकार उपन्यास के रूप में अवतरित किया, वह अब हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुका है। युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान राम की कथा को भक्तिकाल की भावुकता एवं संवेदना के साथ- साथ वर्तमान या आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया। साहित्यिक- सांस्कृतिक पाठक वर्ग अभिभूत हो गया। किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नये प्राण फूँक देता है, \’अभ्युदय\’ में यह देखना किसी आह्लादकारी चमत्कार से कम नहीं था। रामकथा आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नये कलेवर में ढलकर जब सामने आया, तो यह देखकर मन आकर्षित हुये बिना कैसे रह सकता था! उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक निर्वाह किया है। जब त्रिवेणी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि- \’प्रबन्धकार कवि की भावुकता का पता यह देखने से चल सकता है कि वह किसी आख्यान के अधिक मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचान सका है या नहीं!\’ वास्तव में इसको पहचान सकने की सामर्थ्य जिसमें है, वही मानवता, समाज और राष्ट्र केन्द्रित सृजन संसार की तरफ जा सकता है। नरेन्द्र कोहली जी का मूल्याँकन इस दृष्टि से होना चाहिये; क्योंकि आचार्य तुलसीदास के बाद सम्बन्धित आख्यानों में ठीक-ठीक उसी प्रकार आस्था विश्वास एवं श्रद्धा से जुड़े मर्मस्पर्शी स्थानों को कोहली जी ने अपने सृजन में पहचाना, जो समाज में मर्यादा की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
साहित्य, दर्शन, कला, गणित, विज्ञान या ज्ञान की किसी भी शाखा में सूक्ष्म एवं स्थूल अर्थात आत्मा एवं शरीर को समझने जानने एवं विश्लेषण करने की शक्ति होती है। लेकिन यह रचनाकार के विवेक पर निर्भर करता है कि दोनों के बारे में वह कैसी दृष्टि अपनाता है? यदि कोई रचनाकार दोनों पर समान दृष्टि से विचार एवं कार्य करता है तो वह कालजयी रचनाकार होता है और वह ज्ञान के क्षेत्रों के उपयोग की भारतीय दृष्टि होती है। लेकिन जिसको केवल स्थूल चीजें दिखायी पड़ती हैं, सूक्ष्म नहीं; जिसको केवल शरीर दिखायी पड़ती है, आत्मा नहीं; जिसको इसकी समझ नहीं है कि किस कारण कोई शरीर, शरीर है और किस कारण शरीर मृत कहलाती है? वह क्या है, जिसके न रहने पर शरीर मृत कहलाती है? वह ज्ञान के अनुशासनों का संगत उपयोग नहीं करता, वह कालजयी रचनाकार नहीं हो सकता अर्थात उसकी दृष्टि प्रत्येक दशा में अभारतीय होती है। इस कारण कालजयी रचनाशीलता के हिन्दी साहित्य में आधुनिक या वर्तमान काल में अन्य साहित्यकार भी हैं; लेकिन इस दृष्टि से हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र एवं नरेन्द्र कोहली का नाम अप्रतिम है। भारतीयता इस बात का सदैव मार्गदर्शन करती है कि- जो दृश्य है, वह भी दृश्य है और जो अदृश्य है, वह भी दृश्य है। उदाहरण के लिये- जिस कारण शरीर, शरीर है; वह कारण अदृश्य है और जब वह शरीर को त्याग देता है, तब शरीर, मृतशरीर हो जाती है। जिसको हम विज्ञान कहते हैं, उसके अनुसार- सृष्टि या प्रकृति में जो भी तत्व जीव पदार्थ हैं, वे सभी किसी न किसी क्रिया के परिणाम हैं और यदि क्रिया हुई है तो उस क्रिया को करने वाला अनिवार्यतः कोई कर्ता रहा होगा। तब प्रश्न खड़ा होता है कि- इस दृष्टि का, वायुमण्डल स्थलमण्डल जलमण्डल जीवमण्डल का, महाद्विप महासागर का, पर्वत पठार मैदान का, हिमालय रॉकी एण्डीज आदि भी किसी क्रिया के परिणाम हैं तो उस क्रिया का कर्ता कौन है? यदि यह कोई वैज्ञानिक नियम के कारण आस्तित्व में आये हैं, तो उस वैज्ञानिक नियम का सृजनकर्ता कौन है? यह सदैव ध्यान रखिये कि कोई वैज्ञानिक, नियमों की खोज करता है, नियमों को पैदा नहीं करता है। जेम्सव्हाट ने भाप में शक्ति पैदा नहीं किया, केवल पता लगाया कि भाप में शक्ति होती है। न्यूटन ने पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति पैदा नहीं किया, केवल पता लगाया कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति होती है। इस प्रकार की शक्तियों को पैदा करने वाला अदृश्य होता है; इसीलिये वह पारलौकिक या अलौकिक है या इसीलिये वह लौकिक या स्थूल या शरीर मात्र नहीं है। यह समझ और दृष्टि ही ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र या अनुशासन की भारतीय दृष्टि है। साहित्य में नरेन्द्र कोहली ने अपने अनेक पूर्ववर्तियों के साथ बखूबी इस वाङ्गमय को जिया है और इसीलिये वह और उनकी रचनाधर्मिता कालजयी है। कोहली जी में वह दृष्टि थी जो दृश्य के साथ- साथ अदृश्य सत्य को भी देख सकती थी और साक्षात्कार कर सकती थी। उनके पास वह दृष्टि थी जो, कबीर के राम को भी देख समझ सकती थी और तुलसी के राम को देख समझ सकती थी। उनके पास वह दृष्टि थी जो पारलौकिक एवं लौकिक, आत्मा एवं शरीर तथा सूक्ष्म एवं स्थूल के साहचर्य को समझ और जान सकती थी।
आश्चर्य नहीं कि तत्कालीन सभी दिग्गज साहित्यकारों से युवा नरेन्द्र कोहली को भरपूर आशीर्वाद और सराहना प्राप्त हुई। मूर्धन्य आलोचक और साहित्यकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, नगेन्द्र, विद्यानिवास मिश्र, यशपाल, जैनेन्द्रकुमार, धर्मवीर भारती इत्यादि प्रायः सभी शीर्षस्थ रचनाकारों ने नरेन्द्र कोहली की खुले शब्दों में प्रसंशा किया। जैनेन्द्र जैसे उस समय के प्रसिद्धतम रचनाकारों ने भी युवा कोहली को पढ़ा और जिन शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किया, उससे हिन्दी साहित्य में किसी विशिष्ट प्रतिभा के आगमन की पहले ही स्पष्ट घोषणा हो गयी थी। नरेन्द्र कोहली का अवदान मात्रात्मक परिमाण में भी पर्याप्त अधिक है। उन्नीस उपन्यासों को समेटे उनकी महाकाव्यात्मक उपन्यास श्रृंखला \’महासमर\’ (आठ उपन्यास), \’तोड़ो, कारा तोड़ो\’ (छः उपन्यास), \’अभ्युदय\’ (दीक्षा सहित पाँच उपन्यास) ही गुणवत्ता एवं मात्रा दोनों की दृष्टि से अपने पूर्ववर्तियों से कहीं अधिक हैं। उनके अन्य उपन्यास भी विभिन्न वर्गों में श्रेष्ठ कृतियों में गिने जा सकते हैं। सामाजिक उपन्यासों में \’साथ सहा गया दुःख\’, \’क्षमा करना जीजी\’, \’प्रीति-कथा\’; ऐतिहासिक उपन्यासों में राज्यवर्धन एवं हर्षवर्धन के जीवन पर आधारित \’आत्मदान\’; दार्शनिक उपन्यासों में कृष्ण-सुदामा के जीवन पर आधारित \’अभिज्ञान\’; पौराणिक- आधुनिकतावादी उपन्यासों में \’वसुदेव\’ उन्हें हिन्दी के समस्त पूर्ववर्ती एवं समकालीन साहित्यकारों की विशिष्ट श्रृंखला में ही केवल खड़ा नहीं करते; बल्कि उससे आगे बढ़कर उनको उस मार्ग का तेज एवं श्रेष्ठ धावक भी सिद्ध करती हैं। इसके अतिरिक्त वृहद व्यंग साहित्य, नाटक और कहानियों के साथ- साथ नरेन्द्र कोहली ने गम्भीर एवं उत्कृष्ट निबन्ध, यात्रा विवरण एवं मार्मिक आलोचनाएँ भी लिखा है। संक्षेप में कहा जाय तो उनका अवदान गद्य की हर विधा में देखा जा सकता है। नरेन्द्र कोहली ने तो उन कथाओं को अपना माध्यम \’रामकथा एवं महाभारत कथा\’ को बनाया है जो अपने विस्तार एवं वैविध्य के लिये पहले से ही विश्व-विख्यात हैं। \’यन्नभारते – तन्नभारते\’ को चरितार्थ करते हुए उनके महोपन्यास \’महासमर\’ में वर्णित पात्रों, घटनाओं, मनोभावों आदि की संख्या एवं वैविध्य देखें तो उसका अद्धभुत स्वरूप दिखायी पड़ता है। वर्णन कला, चरित्र-चित्रण, मनोवेगों का वर्णन इत्यादि देखने लायक हैं। कोहली जी को आप पढ़ते गुनते समझते जानते थकेंगे नहीं, अगुताएँगे नहीं, अघा जायेंगे।
नरेन्द्र कोहली की वह विशेषता जो उन्हें विशिष्ट बनाती है, वह है एक के पश्चात एक पैंतीस वर्षों तक निरन्तर उन्नीस कालजयी कृतियों का सृजन। इस प्रकार उनकी रचनाधर्मिता वृहद व्यंग-साहित्य, सामाजिक उपन्यास, ऐतिहासिक उपन्यास, मनोवैज्ञानिक उपन्यास, सफल नाटक, वैचारिक निबन्ध, आलोचनात्मक निबन्ध, समीक्षात्मक एवं विश्लेषणात्मक प्रबन्ध, अभिभाषण, लेख, संस्मरण, रेखाचित्रों आदि की ऐसी फुलवारी है, जो सभी प्रकार सुरभित सुगन्धित औषधीय पुष्पों से आक्षादित है। उपन्यास विधा पर अद्भुत नियन्त्रण होने के कारण उनको कई विधाओं/विषयों में व्यापक सिद्धहस्तता थी और वे मानव मनोविज्ञान को गहराई से समझते थे तथा विभिन्न चरित्रों के मूलतत्व को पकड़कर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उनकी सहज प्रतिक्रिया को प्रभावशाली एवं विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। औसत एवं असाधारण, सभी प्रकार के पात्रों को वे अपनी सहज संवेदना एवं भेदक विश्लेषक शक्ति से न सिर्फ अपनी लेखनी में पकड़ लेते हैं; वरन उनके साथ तादात्म्य भी स्थापित कर लेते हैं। राजनीतिक समीकरणों, घात-प्रतिघात, शक्ति-सन्तुलन आदि का भी व्यापक चित्रण उनकी रचनाओं में मिलता है। भाषा, शैली, शिल्प एवं कथानक के स्तर पर नरेन्द्र कोहली ने अनेक नये एवं सफल प्रयोग किये हैं। उपन्यासों को प्राचीन महाकाव्यों के स्तर तक उठाकर उन्होंने महाकाव्यात्मक उपन्यासों की नई विधा का आविष्कार किया है। नरेन्द्र कोहली की सिद्धहस्तता का उत्तम उदाहरण उनका \’महासमर\’ उपन्यास है जो, आठ खण्डों के चार हजार पृष्ठों के विस्तार के बाद भी कहीं भी न बिखराव है, न चरित्र की विसंगतियाँ; न दृष्टि और दर्शन का भेद। पन्द्रह वर्षों के लम्बे समय में लिखे गये इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में लेखक की विश्लेषणात्मक दृष्टि कितनी स्पष्ट है, यह उनके ग्रन्थ \’जहाँ है धर्म, वहीं है जय\’ को देखकर समझा जा सकता है; जो महाभारत की अर्थप्रकृति पर आधारित है। दूसरी तरफ उनका दूसरा उपन्यास \’साथ सहा गया दुःख\’ है जो, केवल दो पात्रों को लेकर बुना गया है। उनके द्वारा लिखा गया शुरुआती उपन्यास होने के बावजूद यह हिन्दी साहित्य की एक सशक्त एवं प्रौढ़ कृति है। \’सीधी बात\’ को सहज सरल स्पष्ट रूप से ऐसे कह देना कि वह पाठक के मन में उतर जाय; उसे हँसा भी दे और रुला भी दे, इस कला में नरेन्द्र कोहली अद्वितीय हैं। यह कोहली जी की रचनाशीलता का अद्धभुत पक्ष है कि, मात्र ढाई पात्रों (पति, पत्नी एवं एक नवजात बच्ची) का पारिवारिक उपन्यास इतना गतिमान एवं आकर्षक बन सकता है।
कोहली जी के \’पुनरारम्भ\’ नामक प्रथम उपन्यास में व्यक्तिपरक- सामाजिक जीवन की तीन पीढ़ियों के वर्णन के लक्ष्य को लेकर, उनके माध्यम से स्वतन्त्रता-प्राप्ति के संक्रमणकालीन समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों की मानसिकता एवं जीवन-संघर्ष की उनकी परिस्थितियों को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। नरेन्द्र कोहली की एक बड़ी उपलब्धि है कि वे वर्तमान समस्याओं को काल-प्रवाह के मंझधार से निकालकर मानव-समाज की शाश्वत समस्याओं के रूप में उन पर सार्थक चिन्तन को बाध्य करते हैं। उपन्यास में दर्शन, आध्यात्म एवं नीति तथा राजनीति आदि का पठनीय एवं मनोग्राही समावेश उनकी विलक्षण विशेषता है।
कोहली जी की रचनाधर्मिता वैसे तो 8-10 वर्ष की आयु से ही आरम्भ हो गयी थी; लेकिन 1960 अर्थात 20 वर्ष की आयु के बाद से उनकी रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थीं। समकालीन लेखकों से वे इस प्रकार भिन्न थे कि उन्होंने कहानियों को बिल्कुल मौलिक तरीके से लिखा। उनकी रचनाओँ का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी रामकथा श्रृंखला की कृतियों में कथाकार द्वारा सहस्राब्दियों की परम्परा से जनमानस में जमे ईश्वरावतार भाव और भक्तिभाव की जमीन को, उससे जुड़ी धर्म और ईश्वरवाची सांस्कृतिक जमीन को कर्म अर्थात कर्तव्य के आधार पर तोड़ा भी गया है एवं धर्म अर्थात उत्तरदायित्व के आधार पर जोड़ा भी गया है; आपको कर्म-धर्म का अद्धभुत साहचर्य उनकी रचनाओं में देखने को मिलेगा। रामकथा की नयी जमीन को नये मानवीय, विश्वसनीय, भौतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आधुनिक रूप में उन्होंने प्रस्तुत किया है। कमल किशोर गोयनका के अनुसार- \’उनकी रचनात्मकता भारतीय मन की रचनात्मकता है। भारतीय मन जिस तरह का अनुभव अपने देश समाज और परिवार के लिये करता है, वह कोहली की रचनाओं में साफ दीखता है।\’ राम कथा पर लिखे साहित्य की वजह से आधुनिक तुलसीदास कहलाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार नरेन्द्र कोहली को जैसा लोगों ने देखा और समझा, मैंने भी उनके निकट रहकर या दूर रहकर वैसे ही देखा समझा और जाना है। उनकी कालजयी सृजनशीलता इस बात की साक्षी रहेगी कि उनके न रहने के बाद भी उनको इसी प्रकार देखा समझा और जाना जायेगा। यदि कोई कुछ और अर्थात अभारतीयता को, उनके सृजन संसार में खोजने की कोशिश करेगा तो उसको सौ प्रतिशत निराशा हाथ लगेगी। उन्होंने नौकरी छोड़ दिया, लेकिन लेखन नहीं छोड़ा; लेखन को प्राथमिकता पर रखा। राम एवं रामत्व के प्रति उनकी आस्था विश्वास एवं श्रद्धा तीनों प्रबल थी। वह हमेशा कहते थे कि जैसा राम चाहेंगे, वैसा ही होगा। वे हमेशा कहा करते थे कि- \’जो मेरे चाहने या इच्छा से हुआ तो अच्छा और नहीं हुआ तो और भी अच्छा; क्योंकि अब जो होगा, वह राम के चाहने या उनकी इच्छा से होगा, तो निश्चित ही मेरे चाहने से अधिक अच्छा होगा। अलौकिक सत्ता का सांगोपांग विवेचन कर उन्हें और भारतीय महापुरुषों को जनमानस में स्थापित करने और स्वीकारोक्ति के स्तर तक ले जाने में आधुनिक समय में उनका अप्रतिम योगदान है। भारतीय महापुरुषों को नायक बनाया और उनके नायकत्व को भारतीय जनमानस में स्थापित किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि- नरेन्द्र कोहली एक युगप्रर्वतक साहित्यकार तो थे और उन्हें युगप्रर्वतक साहित्यकार आलोचकों ने नहीं, अपितु पाठकों ने बनाया। उनके पाठक वर्ग में राजनेता से लेकर सामान्य जन तक शामिल हैं। वे एक धरोहर छोड़ गये हैं, जो आने वाली पीढ़ियों का मार्ग दर्शन करेगी। मुझे व्यक्तिगत रूप से कहना चाहिये कि- \’कोहली जी मेरे लिये ऐसे सतगुरु थे, जो न तो स्वयं अन्धभक्ति धारण करते हैं और न ही अपने सहचरों एवं अनुयायियों को अन्धभक्ति धारण करने की राह पर धकेलते हैं; इतना ही नहीं, वे भक्ति के महात्म्य को भी समझते हैं और भक्ति को अन्धभक्ति नहीं कहते हैं।\’ इसके लिये वे किसी भी प्रकार का मोह त्याग सकते थे। इस प्राथमिकता के चलते ही उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था। दस अप्रैल की शाम छह बजे के लगभग उनसे जिन लोगों का भी सम्वाद हुआ; बातचीत के दौरान उन्होंने कोरोना रिपोर्ट पाजिटिव आने की बात बताया था। कोहली को शलाका सम्मान, साहित्य भूषण, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान पुरस्कार, साहित्य सम्मान तथा पद्मभूषण आदि जैसे विशिष्ट सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। अध्यापन के बाद उन्होंने लेखन से साहित्य में नया मुकाम हासिल किया। कोहली अपने विचारों में बेहद स्पष्ट, भाषा में शुद्धतावादी और स्वभाव से सरल लेकिन सिद्धान्तों में बेहद कठोर थे। कोहली ने ऐसे समय में लेखन कार्य चुना जब लोग कार्लमार्क्स, कुशवाहाकान्त, मैक्सिम गोर्की, प्रेमचन्द, आचार्य चतुरसेन, टोलोस्टोय, रमाकान्त रथ, अमृता प्रीतम, गणेश देवी, अशोक बाजपेयी आदि तथा कार्लमार्क्स, लेनिन, माओत्सेतुंग आदि से प्रभावित लेखकों एवं साहित्यकारों की रचनायें पढ़ना पसन्द करते थे। ऐसे समय में उन्होंने पाठकों को भारतीयता की जड़ों तक खींचने की कोशिश किया और उधर सफलतापूर्वक ले गये तथा पौराणिक कथाओं को प्रयोगशीलता, विविधता और प्रखरता के साथ नये कलेवर में पेश किया। सम्पूर्ण रामकथा के जरिये उन्होंने भारत की सांस्कृतिक परम्परा, समकालीन मूल्यों और आधुनिक संस्कारों का लोगों को अहसास कराया। जैसा कि भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने शोक प्रकट करते हुये कहा है कि- \’डॉ कोहली के निधन से बहुत दुख हुआ। हिन्दी साहित्य जगत में उनका विशेष योगदान रहा है। उन्होंने हमारे पौराणिक आख्यानों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। पद्मश्री सम्मानित साहित्यकार के परिवार और पाठकों के प्रति मेरी शोक सम्वेदना।\’ सच्चे अर्थों में भारतीय साहित्य में उनका योगदान इस अर्थ में महत्वपूर्ण माना जायेगा कि, उन्होंने ज्ञान के क्षेत्र के वटवृक्ष के जड़ को सींचा है और उसकी उतुंग कोपल को अनवरत निहारते भी रहे हैं; वे भूत वर्तमान और भविष्य के ऐसे द्रष्टा हैं जो अपने चश्में से उसके सन्तुलन को अपने दृष्टि पटल पर साध लेते हैं। वे वर्तमान समाज के लिये अपनी प्राचीनता के सत्व का साक्षात्कार अपने साहित्य में कराते हैं। वे एक साथ पुरातन चिरन्तन सनातन का पाठ समझते भी थे, पाठ पढ़ भी सकते थे और सबको इसका पाठ पढ़ा भी सकते थे।
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
(न्यूज टाइम पोस्ट, लखनऊ के 16-30 अप्रैल 2021 के अंक में प्रकाशित।)
