\’स्वदेशी आत्म-निर्भरता एवं भारतीय अर्थ-व्यवस्था\’…

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डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
असोसिएट प्रोफेसर
बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कुशीनगर

अनेक बार भारत और दुनिया की अर्थव्यवस्था की और उससे जोड़कर आर्थिक मन्दी की भी चर्चा की जाती है। दुर्भाग्य से अर्थव्यवस्था के समूचे तन्त्र को अर्थशास्त्र का विषय बना दिया जाता है और अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों नियमों एवं संकल्पनाओं के आलोक में समूची अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन विवेचन एवं विश्लेषण किया जाता है। भारत और दुनिया में मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली जबसे प्रभावी हुई है और जब से मुद्रा को ही अर्थशास्त्र का और अर्थशास्त्र को अर्थ-व्यवस्था का केन्द्रीय विषय मान लिया गया या बना दिया गया, तभी से अर्थशास्त्र ही अर्थ-व्यवस्था का केन्द्रीय विषय बन गया और अर्थ-व्यवस्था का वास्तविक अर्थ तिरोहित होता चला गया और तिरोहित होता चला जा रहा है। इसी कारण अर्थव्यवस्था नामक शब्द क्रमशः संकुचित अर्थ ग्रहण करता चला गया है। दुनिया में मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली पूँजीवादी एवं साम्यवादी दोनों प्रकार की आर्थिक प्रणालियों के कारण आया और तात्कालिक सुविधा एवं आकर्षण के कारण भारत भी उस दिशा में चल पड़ा। देश के आजाद होते समय देश में मिश्रित अर्थ-व्यवस्था को लागू करना भारत में मुद्रा आधारित विनिमय का बीजरोपण कर गया और बाद में वैश्वीकरण की काल्पनिक दुनिया ने भारत को भी उसके आगोश में ले लिया। अन्यथा भारत स्वाभाविक रूप से वस्तुओं एवं सेवाओं आधारित विनिमय प्रणाली का देश एवं समाज रहा है और यह प्रणाली समाज एवं देश को स्थायी एवं दूरदर्शी आधार देता रहा है।अर्थव्यवस्था, वास्तव में दो शब्दों से मिलकर बना है- अर्थ और व्यवस्था अर्थशास्त्र में व्यवस्था के पक्ष को लेकर अर्थात समाज आधारित संस्कृति सभ्यता और इससे उपजे माननीय एवं जैविक सम्बन्धों के लिये कोई स्थान नहीं है। यदि स्थान है भी तो उसका भी मूल्यांकन मुद्रा आधारित ही किया जाता है तथा उसको प्रश्रय देने का प्रत्येक प्रकार से उपक्रम किया जाता है। जब हम मुद्रा आधारित विषय वस्तु का प्रतिपादन करते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमें सम्बन्धों एवं सामाजिक सरोकारों के भाव को तिरोहित करना या शून्य करना पड़ता है। मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली हमेशा उपलब्ध अर्थ के आधार पर व्यवस्था के संचालन का कार्य करती है एवं मुद्रा के मूल्यवान या अवमूल्यन होने पर अर्थ का ढाँचा चरमराने लगता है; लेकिन वस्तु एवं सेवा आधारित विनिमय प्रणाली, व्यवस्था के अनुसार अर्थ का संयोजन करती है। अर्थात हमारी जो व्यवस्था, जो आवश्यकता और जो जरूरत है उसके अनुसार हम अर्थ का उपयोग करते हैं, न की अधिक अर्थ होने पर हम अपनी व्यवस्था बढ़ाते हैं या कम होने पर घटाते हैं। इसमें अनावश्यक रूप से अर्थात  हमको कम अर्थ हो जाने पर तकलीफ या कष्ट में नहीं आना पड़ता है। विषय यह है कि हमें अर्थ के अनुसार व्यवस्था चाहिये या व्यवस्था के अनुसार अर्थ चाहिये? भारत में व्यवस्था या जरूरत या आवश्यक आवश्यकता के अनुसार अर्थ की जरूरत बताई गयी है और इसी कारण वह अर्थ केवल मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली ना रहकर वस्तु एवं सेवा आधारित विनिमय प्रणाली के रूप में स्वीकार की गयी है। अर्थात यदि किसी के पास गेहूँ है और किसी के पास दूध है, किसी के पास दूध है किसी के पास सब्जी है, किसी के पास मसाला है किसी के पास दाल है तो, वह आपस में आदान प्रदान करके एक दूसरे के सहयोग साहचर्य समन्वय एवं सहकारिता के भाव में सुखमय शान्तिमय  विकासपरक जीवन व्यतीत करते हैं। भारत में ऐसी भी विनिमय प्रणाली रही है कि, यदि किसी के पास मकान है और किसी के पास खेत है तो, मकान वाले ने अपने मकान का एक हिस्सा उस आदमी को रहने के लिये दे दिया और उसने अपनी कृषि योग्य भूमि का एक हिस्सा उसे कृषि कार्य करने हेतु दिया और फिर दोनों का जीवन सहज एवं सरल हो जाता है, दोनों एक दूसरे की आवश्यकता को पूर्ण कर देते हैं। इस परिपेक्ष में अर्थव्यवस्था को पहले मुद्रा आधारित अर्थशास्त्र ने परिवर्तित करके अमानवीय बनाने का उपक्रम किया और मुद्रा आधारित अर्थशास्त्र ने दुनिया में वैश्वीकरण, निजीकरण एवं उदारीकरण के नाम पर अर्थव्यवस्था को और भी खोखला अदूरदर्शी एवं अमानवीय बना दिया। परिणामस्वरूप व्यक्ति एवं समाज की मानसिकता प्रत्येक वस्तु एवं सेवाओं का मूल्यांकन मुद्रा में करने लगी और मुद्रा में किसी चीज का मूल्यांकन जैविक और मानवीय पक्ष को भी मुद्रा में मूल्यांकन करने के लिये प्रेरित करने लगा। इसके कारण न केवल समाज एवं परिवार टूटने लगे, बल्कि स्वयं व्यक्ति भी अपने अन्तरतम से खण्डित होता गया, टुकड़े होता गया और अवसाद तनाव एवं आत्महत्या के वशीभूत हो गया। क्योंकि सामाजिक सरोकार और मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध व्यक्ति को अवसाद एवं तनाव में जाने से रोकते हैं। उसको अपने से इतर किसी के लिये, लोक के लिये या समाज के लिये न केवल अपने उत्तरदायित्व का बोध होता है; बल्कि उसे उस उत्तरदायित्व का निर्वाह भी करना आवश्यक हो जाता है। उस उत्तरदायित्व के निर्वहन में वह अपनी  मनुष्यता का स्वाभाविक रूप से ठीक-ठीक उपयोग और सदुपयोग करता है। मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली सर्वप्रथम वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्यांकन, मुद्रा में करती है और तत्पश्चात विनिमय प्रणाली का कार्य आरम्भ होता है; जबकि वस्तु एवं सेवा आधारित विनिमय प्रणाली में मुद्रा की आवश्यकता होती ही नहीं है और न ही विनिमय प्रक्रिया के पहले वस्तु एवं सेवा का मुद्रा आधारित मूल्यांकन ही करना पड़ता है। इसलिये मुद्रा रहित विनिमय प्रणाली का अधिकतम उपयोग किसी भी परिवार समाज एवं राष्ट्र के सुखद स्थायी एवं दूरदर्शी अर्थ-व्यवस्थागत भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है। जबकि मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली इन सारे भाव को तिरोहित और खण्डित करता है। व्यवहारिक रुप से किसी भी देश या समाज में एक तिहाई से अधिक वस्तुओं एवं सेवाओं का विनिमय मुद्रा में कत्तई नहीं होना चाहिये। तभी उस समाज और देश में अर्थव्यवस्था सम्बन्धी- मन्दी एवं महँगाई, सकल घरेलू उत्पाद एवं सकल घरेलू आय सम्बन्धी तथा प्रतिव्यक्ति आय एवं प्रतिव्यक्ति व्यय सम्बन्धी विडम्बना पूर्ण अर्थशास्त्र के नियम की नप तो उपादेयता रहेगी और न ही इस तरह के संकट का सामना व्यक्ति समाज या देश को करना पड़ेगा। ऐसे संकट के ना आने के कारण ही स्वदेशी का, स्वावलम्बन का, परस्परावलम्बन का एवं परिवार समाज देश आत्मनिर्भरता की तरफ उन्मुख होगा और वह आत्मनिर्भरता परस्परावलम्बन पर निर्भर करेगी; परस्परावलम्बन स्वावलम्बन एवं स्वदेशी का मार्ग स्वाभाविक रूप से प्रशस्त करती है। यह मार्ग जिस समाज परिवार या राष्ट्र में विकसित हो जाता है, वहाँ अर्थ-व्यवस्था से सम्बन्धित कोई भी संकट या समस्या नहीं आती है। जो लोग यह कहते हैं मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली आसान सहज एवं सरल होता है। पहली बात तो यह केवल मन का भ्रम या केवल एक मानसिक दशा है; दूसरा उनके मनोविज्ञान को केवल इस उत्तर से सन्तुष्ट किया जा सकता है कि व्यक्ति में जिस तन्त्र का अभ्यास हो जाता है, वही सहज और सरल होता है, तीसरा मनुष्य होने के कारण हमारा अपने के अतिरिक्त औरों के प्रति भी एक निश्चित उत्तरदायित्व है, उस उत्तरदायित्व के निर्वहन में यदि मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली सहज एवं सरल भी है तो वह मूल्यहीन है। अनेक बार यह भी विषय आता है कि, स्वदेशी है क्या? हम स्वदेशी चीजों का उपयोग कैसे करें? हमारे देश में यह वस्तु पैदा होती है, यह वस्तु पैदा नहीं होती है? इस सम्बन्ध में यह बात स्पष्ट रूप से ध्यान में रखना चाहिये कि स्वदेशी का भाव स्वयं द्वारा उत्पादित, पड़ोसी द्वारा उत्पादित, हमारे समाज द्वारा उत्पादित, हमारे देश में उत्पादित, हमारे मित्र देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं से है। हमको जो वस्तु चाहिये, उस वस्तु को हम क्रमशः उक्त प्राथमिकता के आधार पर प्राप्त करते हैं। यह सभी भाव स्वदेशी के अन्तर्गत आते हैं। स्वदेशी से अभिप्राय स्वावलम्बन से है, अर्थात जिस पर हम अवलम्बित हो सकते हैं, अर्थात जो हमसे अवलम्बित हो सकता है, अर्थात जिससे हम सहयोग और सहायता ले सकते हैं और जिसको हम सहयोग और सहायता दे सकते हैं तथा जिसके कारण सम्बन्ध में साहचर्य तथा सहकारिता का भाव प्रबल हो सकता है। वह सभी कार्य व्यवहार तथा विचार भी स्वदेशी के अन्तर्गत शामिल हैं। जिस प्रकार स्वदेशी को स्वावलम्बन और स्वावलम्बन को स्वदेशी आधार प्रदान करता है; ठीक उसी प्रकार परस्परावलम्बन, आत्मनिर्भरता को और आत्मनिर्भरता परस्परावलम्बन को आधार प्रदान करता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि स्वदेशी एवं स्वावलम्बन की समाज एवं देश में स्थापना होने के बाद उसका स्वरूप स्वाभाविक रूप से परस्परावलम्बन एवं आत्मनिर्भरता की तरफ उन्मुख एवं स्थापित हो जाता है। इस तरह की स्थापना के बाद कोई भी व्यक्ति परिवार समाज राज्य और राष्ट्र भी आत्मनिर्भरता की धारा में न केवल बहता है; बल्कि उसके उच्चतम मानबिन्दु को भी प्राप्त कर लेता है। इस स्तर तक पहुँचने के लिये किसी भी समाज एवं देश में वस्तु एवं सेवा आधारित अधिकतम विनिमय प्रणाली का उपयोग प्रयोग एवं सदुपयोग तथा तदनुरूप कार्य एवं व्यवहार आवश्यक होता है। स्वदेशी से लेकर आत्मनिर्भरता तक की यात्रा तभी पूरी की जा सकती है, जब जिस समाज एवं देश में वस्तुओं एवं सेवाओं पर आधारित सम्पूर्ण गतिविधि का विनिमय प्रणाली में दो तिहाई से अधिक का संचालन करती हो; अन्यथा स्वदेशी से लेकर आत्मनिर्भरता तक की यात्रा केवल कठिन ही नहीं, असम्भव भी हो जाती है।

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