आज जो एक सूत्र वाक्य चल पड़ा है कि, बंगाल चुनाव भाजपा हार गयी है। इस वाक्य प्रथमतया कहीं अस्तित्व नहीं बनता है। वास्तव में बंगाल में कोई हारा है तो कांग्रेस वामपन्थ और धर्मनिरपेक्षता की बड़ी हार हुई है। एक दूसरी चर्चा भी है कि, और लोग यह प्रश्न बार- बार पूछ रहे हैं कि, क्या पश्चिमी बंगाल भी कश्मीर के रास्ते पर है? इन दोनों के सम्बन्ध में मैंने पहले भी बहुत कुछ लिखा है। इससे सम्बन्धित यूट्यूब चैनल पर भी मेरे दो वीडियो हैं। सवाल यह है कि, देश आजाद होने के बाद से या जनसंघ की स्थापना के बाद से या 1980 में भाजपा के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक भाजपा ने बंगाल में जीत कब दर्ज किया था? पहली बार भाजपा ने बंगाल में इतनी बड़ी राजनीतिक वैचारिक जीत दर्ज किया है। केवल सत्ता एवं सरकार के लिये जीत दर्ज करना ही राजनीति में जीत नहीं होती। राजनीतिक जगह एवं ताकत या जनमत का निरन्तर बढ़ते जाना भी जीत का आधारभूत भाग है। इसमें भाजपा पूरी तरह सफल रही है। भाजपा ने विधानसभा में शून्य से दो और दो से 78 सीट तथा लोकसभा में शून्य से दो एवं दो से 18 सीट की यात्रा अनायास नहीं, सायास प्राप्त किया है। भाजपा की इस प्रकार की जीत भले तृणमूल कांग्रेस की छाती पर मूँग दलकर न हासिल हुआ हो; लेकिन भाजपा को वामपन्थ एवं कांग्रेस की छाती पर मूँग दलने में जो सफलता मिली है! क्या उसे भाजपा की हार कहना चाहिये? यदि कोई कहता है तो इसका आशय है कि वह सत्य या यथार्थ के साथ खड़ा नहीं है, वह वामपन्थ एवं कांग्रेस की कुण्ठा हताशा एवं निराशा के आवरण में है और ताड़ के पेड़ के नीछे छाँव तलाश करने की कोशिश कर रहा है। दूसरा या दूसरे प्रकार की चर्चा या प्रश्न करने वालों को को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि, भारत को 1929 में की गयी त्रिकट संकल्पना योजना के अन्तर्गत खण्डित करने एवं भारतीयता को समाप्त करने की कोशिश आरम्भ हुई थी और वह अब भी जारी है। जम्मू- कश्मीर, बंगाल, केरल को ध्यान में रखकर त्रिकट विद्वेषकारी योजना अभारतीय विचारधारा के प्रांगढ़ से शुरू हुई थी। इन तीनों को लेकर एक ही प्रकार का उद्देश्य; किन्तु अलग- अलग कार्यशैली अपनायी गयी। तीनों को लक्ष्य करके भारत से भारतीयता को नष्ट एवं समाप्त करने की कोशिश की गयी। इसके लिये व्यापक पैमाने पर धर्मनिरपेक्षता साम्यवाद आतंकवाद के साये में बलपूर्वक भी तथा सेवापूर्वक भी, दोनों तरीकों से मतान्तरण एवं घुसपैठ का खेल चला और अब भी बदस्तूर जारी है।
उपरोक्त तीनों केन्द्रों में इस हेतु भिन्न- भिन्न तरीके अपनाये गये। एक ओर जहाँ कश्मीर में आतंकवाद एवं हिंसा के बल से देश को तोड़ने की साजिश एवं कोशिश की गयी; तो बंगाल में साम्यवाद के चाबुक का सहारा लिया गया और केरल में साम्यवादी धर्मनिरपेक्षता को आधार बनाया गया। लेकिन कम या अधिक मात्रा में मतान्तरण, घुसपैठ एवं हिंसा तीनों जगह आधारभूत कारक रहे हैं। इसीलिये जब आप गहरायी में जायेंगे तो आपको स्पष्ट पता चलेगा कि- मार्क्सवाद, कम्यूनवाद, साम्यवाद, नक्सलवाद, आतंकवाद आदि हिंसक स्वक्षन्दतावादी कटीले नागफनी की अलग- अलग पौध या वैरायटी हैं, जो उसी से निकलकर अलग तरीके से खड़े हो जाते हैं; वास्तविक अर्थों में इनमें कोई भेद नहीं है। क्योंकि मार्क्सवाद की आधारभूत संकल्पना ही गलत एवं अप्राकृतिक मान्यता पर आधारित है। इसलिये जब भी आप बंगाल को समझने की कोशिश कीजिये तो कश्मीर एवं केरल के साथ समझिये। अर्थात बिना तीनों को एक साथ समझे, आप किसी एक को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी विकृतियों का समाधान कर सकते हैं। इन तीनों की जड़ में आपको मार्क्सवाद, साम्यवाद, नक्सलवाद, आतंकवाद अर्थात हिंसक विचार की, आपकी विचारधारा के अनुसार सुगन्ध या दुर्गन्ध आयेगी या एक साथ इसकी प्रतीति होगी। वर्तमान केन्द्र सरकार और उसकी वैचारिकी को कभी भी शेष भारत जैसी समझ रखकर इन तीनों को नियमित एवं नियन्त्रित करने का यत्न नहीं करना चाहिये। केन्द्र सरकार की वास्तविक रणनीति क्या है, यह अन्तिम रूप से अभी स्पष्ट नहीं है और अभी वे स्पष्ट कर भी नहीं सकते। उन्हें बंगाल की गतिमान एवं घुमावदार परिस्थितियाँ इसको अभी स्पष्ट करने की स्पष्ट अनुमति भी नहीं देतीं हैं।
उपरोक्त प्रश्नोत्तरी के माध्यम से हाल के बंगाल के चुनाव के माध्यम से जम्मू- कश्मीर, बंगाल एवं केरल के समीकरण को ठीक से समझा जा सकता है। इन स्थानों के लोगों की मानसिकता तीन प्रकार की है। पहले वाले उस मानसिकता के हैं; जिनको मार्क्सवाद, साम्यवाद, नक्सलवाद, आतंकवाद का पाठ पढ़ाकर उनके अन्दर से आदमीयत को समूल नष्ट कर दिया गया है। ऐसे लोग वामपन्थी या तृणमूल कांग्रेस जैसी मानसिकता वाली सरकार को ही पसन्द करते हैं और उसी में उनका निर्वाह भी हो सकता है। तृणमूल कांग्रेस भी एक तरह से वामपन्थी राजनीति का ही संस्करण है। दूसरे प्रकार के तठस्थ लोग हैं; जो इनसे उबरना तो चाहते हैं, छटपटाते भी हैं, प्रतिरोध भी करते हैं और मौका आने पर इनको सत्ता से बेदखल भी करना चाहते हैं; लेकिन इनकी वहाँ की परिस्थितिजन्य कुछ सीमाएँ हैं। ऐसे ही लोगों के कारण आज भारतीय जनता पार्टी को बंगाल में इस प्रकार की पैठ बनाने में सफलता मिली है। तीसरे प्रकार के वे कायर और डरपोंक लोग हैं, जो मार्क्सवाद, साम्यवाद, नक्सलवाद, आतंकवाद को बंगाल से उखाड़ फेंकना तो चाहते हैं; लेकिन वे इनके आतंक एवं हिंसा से इतने भयाक्रान्त हैं कि स्वयं इनके विरुद्ध कोई निर्णय या लड़ाई नहीं कर सकते। ऐसे लोग सत्ता परिवर्तन की पूर्ण आश्वस्ति होने के बाद ही मार्क्सवाद, साम्यवाद, नक्सलवाद, आतंकवाद के विरोध में किसी को मतदान कर सकते हैं या सत्ता परिवर्तन में अपनी कोई भूमिका अदा कर सकते हैं। ऐसी विकट स्थिति में केवल एक तिहाई को साथ लेकर आप बंगाल में नहीं लड़ सकते; जब तक कि कोई सक्षम राजनीतिक दल दूसरे प्रकार के लोगों के साथ साम- दाम- दण्ड- भेद से खड़ा होकर तीसरे प्रकार के लोगों को पूरा विश्वास दिलाये कि- हम आपके साथ हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। उनको डण्डे की ताकत का स्पष्ट सहारा चाहिये। बंगाल, केरल, कश्मीर में यह भ्रम पालना कि, हिंसा के विरुद्ध सहानुभूति की लहर पैदा करके राष्ट्रवादी राजनीतिक दल सफलता प्राप्त कर लेंगे अथवा हिंसा एवं राजनीतिक हिंसा के विरुद्ध हिन्दुओं में ध्रुवीकरण होगा और वे पूर्ण सफलता प्राप्त कर लेंगे तो, यह कठिन लगता है। वामपन्थी या तृणमूल की राजनीति का एक आजमाया नुस्खा है कि वे प्रायोजित तरीके से अपने विरोधी पार्टी में अपने लोगों को चुनाव के समय और उससे पूर्व उसमें घुसाते हैं; जो सफल होने के बाद पुनः वामपन्थी जीन्स- कुर्ता ही पहनते हैं। बंगाल में ममता बनर्जी ने ही नहीं, पहले के लोगों ने भी ऐसा खेल खूब खेला है एवं आंशिक ही सही; ममता, भाजपा के साथ यह खेल करने में सफल रही हैं। यही खेल ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य भी कांग्रेस के साथ चुनावों में खेलते थे। भाजपा में ऐसे सिद्ध लोग हैं कि आगामी चुनावों में ऐसी स्थितियों से निपट सकते हैं और संज्ञान में लेकर समय से उन्हें निपटना भी चाहिये।
पश्चिम बंगाल या शेष भारत में अपनी सीट हारने वाली ममता बनर्जी पहली मुख्यमन्त्री नहीं हैं। हार के बाद भी ममता को तीसरी बार मुख्यमन्त्री बनने का संवैधानिक अधिकार अनुच्छेद 164 (4) देता है। पश्चिम बंगाल में हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनाव लम्बे समय तक इसलिये याद किया जायेगा; क्योंकि इस चुनाव में जिस नेता के दम और नाम पर भारी बहुमत से तृणमूल कांग्रेस द्वारा चुनाव जीते गये, वह नेता स्वयं अपनी सीट हार गयी। इस हार के बावजूद ममता को तीसरी बार प्रदेश की बागडोर सम्भालने का संवैधानिक अधिकार सम्विधान देता है; लेकिन साथ ही अपनी पार्टी के 293 में से 213 प्रत्याशियों को जिताकर या न जिताकर और स्वयं हारकर, सत्ता में मुख्यमन्त्री के रूप में वापसी के नैतिक अधिकार से वंचित भी करता है। लेकिन एक महत्वपूर्ण बात यहाँ स्पष्ट होती है कि ममता बनर्जी को इस बात की कोई चिन्ता नहीं है वे चुनाव हार गयीं; उनको और उनके पार्टी के लोगों की दृष्टि में इस विषय का सामाजिक राजनीतिक सम्मान- अपमान, लोकप्रियता- अलोकप्रियता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ममता बनर्जी का जो भी अच्छा या बुरा व्यक्तित्व है और रहा है; शुभेन्दु अधिकारी से हारने के बाद भी उनकी स्वयं की दृष्टि में, उनके कार्यकर्तायों की दृष्टि में, बंगाल की सामान्य जनता की दृष्टि में और यहाँ तक की देश की सामान्य जनता के बीच भी यथावत उनका व्यक्तित्व जस का तस खड़ा है। सामान्यतया यह भारतीय मानस स्वीकार नहीं करता; लेकिन ममता के विषय में यदि स्वीकार कर रहा तो इसका आशय यह भी है कि, लोग यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि, ममता का वैचारिक व्यवहारिक आधार अभारतीय है। भारत में न तो कोई मुख्यमन्त्री पहली बार चुनाव हारा है और न ही हारा हुआ नेता पहली बार मुख्यमन्त्री बन रहा है। यही नहीं बिना चुनाव लड़े ही मुख्यमन्त्री बनने की परम्परा भी देश में रही है। लेकिन पार्टी को चुनाव जिताने वाली शख्सियत का स्वयं हार जाना भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली घटना है। साथ ही किसी भी राजनीतिक दल में दलबदल करने वालों, अनुशासनहीनता, बगावत आदि ऐसे खेल हैं; जो सम्बन्धित पार्टियों के भविष्य लोकप्रियता और भविष्यगामी सफलता पर ग्रहण लगाते हैं। इसका यह आशय स्पष्ट होता है कि उक्त पार्टी का भविष्य लम्बा नहीं है। यह परिस्थिति सम्विधान का अनुपालन भले करती हो; लेकिन वास्तविक अर्थों में यह लोकतन्त्र का घिनौना और भौंडा मजाक भी है। इस प्रकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनेक बार सम्विधान ही लोकतन्त्र को तार- तार करता हुआ दिखायी पड़ता है और इसी कारण भारतीय सम्विधान आमूल- चूल परिवर्तन की स्वयं माँग करता है।
सामान्यतया विधायक दल का नेता विधायकों द्वारा नहीं, बल्कि केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा चुना जाता है और फिर उसे विधायक दल पर थोपा जाता है। कई मामलों में यह ठीक होता है; लेकिन अनेक मामलों में लोकतन्त्र मतदान और मतदाता के साथ खिलवाड़ जैसा लगता है। वास्तव में यह या तो स्वयं विधायकों द्वारा तय होना चाहिये या जिसकी लोकप्रियता पर चुनाव लड़ा जा रहा हो, उसके द्वारा! इन परिस्थितियों में किसी को भी निरंकुश होने का अधिकार नहीं है। उसी ममता की निरंकुशता के कारण बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के कार्यकर्ताओं के खिलाफ प्रायोजित हिंसा चिन्ताजनक है और यह लोकतन्त्र के साथ कुटिल खिलवाड़ है। इस हेतु निश्चित रूप से केन्द्र सरकार को 256 या 356 किसी भी प्राविधान के अनुसार यथाशीघ्र यथोचित कदम उठाने चाहिये। वर्तमान परिस्थिति में राष्ट्रपति शासन दूरदर्शी निर्णय नहीं प्रतीत होता। जहाँ तक आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव और उसको बंगाल के बीते विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखने का प्रश्न है; यह जोड़ना अनेक कारणों से समीचीन नहीं है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली बात, बंगाल की राजनीतिक जमीन और राजनीति का वैचारिक आधार स्वतन्त्र भारत से पहले और उसके बाद भी अलग रहा है। दूसरा, बंगाल, स्वतन्त्रता के काफी पहले से अर्थात पूँजीवाद अर्थात अंग्रेजों के मुख्य निशाने पर रहा है और स्वतन्त्रता के बाद वामपन्थ के मुख्य निशाने पर रहा है; लेकिन स्वतन्त्रता के आसपास अर्थात 1930 से 1970 के आसपास तक बंगाल पूँजीवाद- वामपन्थ के संयुक्त निशाने पर रहा है। यहाँ के लोगों के चाहने के बाद भी, देश के प्रत्येक कोने से लोगों के यहाँ घुल- मिलकर रहने के बाद भी पूँजीवाद और वामपन्थ ने इस क्षेत्र को राष्ट्रवाद के निशाने पर इस क्षेत्र को नहीं आने दिया। इस कारण यहाँ राजनीति का एक विशेष संस्करण विकसित हुआ और वह संस्करण इस क्षेत्र को पूँजीवाद, धर्मनिरपेक्षता, वामपन्थ, साम्यवाद, नक्सलवाद होते हुये हिंसा के उस तहखाने तक ले जाने में सफल रहा, जो यहाँ के कुछ लोगों को आतंकवाद, देहद्रोह और चीन परस्ती तक ले गया। ऐसे लोगों की संख्या यहाँ अधिक नहीं थी और न है; लेकिन राजनीतिक रूप से अति सक्रिय ऐसे लोग आग में घी लगाने में हमेशा सफल रहते हैं और शान्तिप्रिय भारतीय बंगाली संस्कृति को जीने वाले लोगों को जोर- जबरदस्ती डराते- धमकाते रहे हैं और अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं।
तीसरी बात, बंगाल में मतदाता और नेता दोनों वर्गों में या तो अतिवादी अर्थात अतिशय सक्रिय लोग मिलेंगे या एकदम निष्क्रिय लोग मिलेंगे, औसत प्रकार के लोगों की संख्या यहाँ कम मिलेगी। ये सब ऐसे कारण हैं, जो बंगाल से तुलनात्मक राजनीतिक समीकरण के मोलभाव में उत्तर प्रदेश का मूल्याँकन नहीं करने देते। चौथी बात, उत्तर प्रदेश में छत्रपों के साथ- साथ बड़े राजनीतिक दलों की भूमिका भी महत्वपूर्ण रहती है। लेकिन बंगाल में छत्रप आधारित राजनीतिक दलों की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण रही है; यहाँ तक कि कांग्रेस भी यहाँ आकर छत्रप आधारित राजनीति की शिकार हुई है। पाँचवीं बात, जहाँ तक दाँव लगाने का सवाल है, बंगाल में भाजपा जैसे दलों के पास खोने के लिये कुछ नहीं और पाने के लिये बीते चुनाव में बहुत कुछ था और भाजपा ने उस बहुत कुछ में से काफी कुछ प्राप्त भी किया है। साथ ही बंगाल में भाजपा के पास स्थानीय नेतृत्व की दृष्टि से दाँव लगाने के लिये बहुत विकल्प नहीं थे या यों कहें कि सकारात्मक विकल्पहीनता की स्थिति थी। उत्तर प्रदेश में यह स्थिति बिल्कुल उलट है, इसलिये यहाँ दाँव लगाना आसान है और विकल्प की बहुतायत है। इस कारण सत्ता की दृष्टि से चाहे कितनी भी विकट स्थिति का मूल्याँकन क्यों न किया जाय, दाँव की अच्छी स्थिति के कारण यहाँ केवल दाँव लगाना ही नहीं; बल्कि अपने दाँव पर सत्ता के अखाड़े को जीतना भी भाजपा के लिये आसान नहीं है। उत्तर प्रदेश में शेष राजनीतिक दलों की स्थिति नकारात्मक विकल्पहीनता की स्थिति है। जहाँ एक ओर अखिलेश यादव के अलावा सपा के पास कोई दूसरा चेहरा नहीं है; वहीं मायावती के अलावा बसपा के पास कोई चेहरा नहीं है। कांग्रेस में तो राहुल, प्रियंका और उनके अनुचरों के अलावा कोई चेहरा नहीं है। ये वे चेहरे हैं, जिनके तम्बू से वर्षा का कितना पानी अन्दर आता है और कितना बाहर, यह उत्तर प्रदेश के लोग एवं मतदाता जान चुके हैं। ऐसी स्थिति में तम्बू में जातिवाद का पैबन्द भी निकट भविष्य में उत्तर प्रदेश में बहुत कारगर होता हुआ नहीं दिखता है। इस प्रकार अनेक कारण एवं आधार हैं, जिससे उत्तर प्रदेश में किसका कौन सा दाँव भारी एवं अचूक होगा, सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है।
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
सन्दर्भ:
नयी दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका \’सत्यपरख भारत\’, के www.satyparakhbharat.com जुन 2021 के अंक में पृष्ठ 13 – 14 पर \’बात पाते की\’ कालम के अन्तर्गत कौस्तुभ नारायण मिश्र का \’बंगाल का चुनाव और यूपी पर दाँव\’ विषयक लेख।
