उत्तर प्रदेश राज्य में कुशीनगर जिले की अवस्थिति गोरखपुर मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर पूर्व दिशा में राष्ट्रीय राजमार्ग पर है। इस जनपद का क्षेत्रफल 2,873.5 वर्ग किमी तथा 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 3,560,830 है। यहाँ का जनघनत्व 1,228 व्यक्ति वर्ग किमी; जिसमें शहरी जनसंख्या 4.87 प्रतिशत; साक्षरता 68.00 प्रतिशत; लिंगानुपात 960 है। इस जिले में एक लोकसभा और दूसरी लोकसभा का आंशिक भाग आता है। इसमें सात विधानसभाएँ कुशीनगर, हाटा, रामकोला, खड्डा, पड़रौना, फाजिलनगर और तमकुहीराज हैं। फाजिलनगर और तमकुहीराज, देवरिया लोकसभा के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार यहाँ के जनपद का नाम कुशीनगर, लोकसभा का नाम कुशीनगर और विधानसभा का भी नाम कुशीनगर है। इस जनपद का मुख्यालय पड़रौना नगरीय क्षेत्र में है; जबकि भगवान गौतम बुद्ध का परिनिर्वाणस्थल कुशीनगर नगरीय क्षेत्र में है। कुशीनगर का समीपवर्ती बाजार कसया है। कुशीनगर जिला भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश के गोरखपुर मण्डल के अन्तर्गत एक जिला है। इस जनपद का मुख्यालय कुशीनगर से लगभग 15 किमी दूर स्थित है और यह जिला पहले देवरिया जिले का भाग था। कुशीनगर जिले के पूर्व में बिहार राज्य, दक्षिण-पश्चिम में देवरिया जिला, पश्चिम में गोरखपुर जिला तथा उत्तर-पश्चिम में महराजगंज जिला स्थित है। इस जिले में कुल 14 विकासखण्ड हैं – पड़रौना, बिशुनपुरा, कुशीनगर, हाटा, मोतीचक, सेवरही, नेबुआ नौरंगिया, खड्डा, दुदही, फाजिलनगर, सुकरौली, कप्तानगंज, रामकोला और तमकुहीराज। जिले में ग्रामों की संख्या 1447 है। कुल छः तहसीलें कुशीनगर जिले में आती हैं – पड़रौना, कुशीनगर, हाटा, तमकुहीराज, खड्डा, कप्तानगंज।
जहाँ तक कुशीनगर के धार्मिक एवं ऐतिहासिक परिचय का प्रश्न है; हिमालय की तराई वाले क्षेत्र में स्थित कुशीनगर का इतिहास अत्यन्त ही प्राचीन व गौरवशाली है। वर्ष सन 1876 में अंग्रेज पुरातत्वविद ए कनिंघम ने यहाँ पुरातात्विक खुदायी कराया था और उसके बाद सी एल कार्लाइल ने भी खुदायी कराया। जिसमें यहाँ का मुख्य रामाभार स्तूप और 6.10 मीटर लम्बी भगवान बुद्ध की लेटी हुई प्रतिमा मिली थी। इन खोजों के परिणामस्वरूप कुशीनगर का गौरव अन्य कारणों में जुड़कर पुनर्स्थापित हुआ। जे पीएच वोगेल के देखरेख में पुनः 1904-5, 1905-6 एवं 1906-7 में खुदायी हुई, जिससे बुद्ध धर्म से सम्बन्धित अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुईं। गौतम बुद्ध के सैकड़ों वर्ष पूर्व वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह स्थान त्रेता युग में भी आबाद था और यह मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के पुत्र कुश की राजधानी थी; जिसके चलते इसे \’कुशावती\’ के नाम से भी जाना गया। पालि साहित्य के ग्रन्थ त्रिपिटक के अनुसार बौद्ध काल में यह स्थान षोड्श महाजनपदों में से एक था और मल्ल राजाओं की राजधानी थी। तब इसे \’कुशीनारा\’ के नाम से जाना जाता था। ईसापूर्व छठी शताब्दी के अन्त या ईसापूर्व पाँचवीं शताब्दी के आरम्भ में यहाँ गौतम बुद्ध का आगमन हुआ था। कुशीनगर में ही उन्होंने अपना अन्तिम उपदेश देने के बाद महापरिनिर्वाण को प्राप्त हो गये थे। कुशीनगर से 16 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में मल्लों का एक और गणराज्य पावानगर था। यहाँ बौद्ध धर्म के समानान्तर ही जैन धर्म का प्रभाव व्यवहार में था। माना जाता है कि जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी, जो बुद्ध के ही समकालीन थे, ने पावानगर (जिसे वर्तमान में फाजिलनगर कहते हैं) में ही परिनिर्वाण प्राप्त किया था। इन दो मतों के अलावा प्राचीन काल से ही यह स्थल सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिये भी काफी महत्वपूर्ण केन्द्रस्थल माना जाता है।
जैसा कि सभी लोग जानते हैं कि बौद्ध मैनके प्रवर्तक गौतम बुद्ध से सम्बन्धित भारत में चार प्रमुख केन्द्र हैं। एक- लगभग भारत- नेपाल सीमा पर स्थित लुम्बिनी, जहाँ उनका जन्म हुआ था; दूसरा- बिहार राज्य में स्थित बोधगया, जहाँ उनको स्वयं ज्ञान प्राप्त हुआ था; तीसरा- वाराणसी उत्तर प्रदेश के पास स्थित सारनाथ, जहाँ उन्होंने पहली बार अपने शिष्यों को उपदेश दिया था और चौथा- उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर स्थित कुशीनगर, जहाँ उनको परिनिर्वाण प्राप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त कुशीनगर में गुप्तकाल के तमाम भग्नावशेष आज भी जिले में बिखरे पड़े हैं। इनमें लगभग डेढ़ दर्जन प्राचीन टीले हैं, जिसे पुरातात्विक महत्व का मानते हुए पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित कर दिया है। उत्तर भारत का एकमात्र सूर्य मन्दिर भी इसी जिले के तुर्कपट्टी नामक एक गाँव में स्थित है, जहाँ विपणन केन्द्र तेजी से विकासमान है। भगवान सूर्य की प्रतिमा खुदायी के दौरान ही यहाँ मिली थी, जो गुप्तकालीन मानी जाती है। इसके अलावा भी जनपद के विभिन्न भागों में प्रायः जमीन के नीचे से पुरातन निर्माण व अन्य अवशेष मिलते रहते हैं। कुशीनगर जनपद का जिला मुख्यालय पड़रौना में स्थित है, जिसके नामकरण के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि भगवान राम के विवाह के उपरान्त पत्नी सीता व अन्य सगे-सम्बन्धियों के साथ इसी रास्ते जनकपुर से अयोध्या लौटे थे। जिससे उनके पैरों से रमित धरती पहले \’पदरामा\’ और बाद में पड़रौना के नाम से जानी गयी। जनकपुर से अयोध्या लौटने के लिये भगवान राम और उनके साथियों ने पड़रौना से 10 किलोमीटर पूरब से होकर बह रही बाँसी नदी को पार किया था। आज भी बाँसी नदी के इस स्थान को \’रामघाट\’ के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष यहाँ भव्य मेला लगता है, जहाँ उत्तर प्रदेश और बिहार के लाखों श्रद्धालु आते हैं। बाँसी नदी के इस घाट को स्थानीय लोग इतना महत्व देते हैं कि \’सौ काशी न एक बाँसी\’ की कहावत स्थानीय स्तर पर प्रचलित हो गई है। मुगल काल में भी यह जनपद अपनी खास पहचान रखता था और इसकी सांस्कृतिक विरासत कायम थी; जिसको आक्रांता स्थानीय जागरूकता के कारण विनष्ट नहीं कर सके।
कुशीनगर का परिनिर्वाण मन्दिर इसकी प्रत्यक्ष ऐतिहासिकता और सांस्कृतिक विरासत का गुणगान करता हुआ दिखायी पड़ता है। विदित है कि कुशीनगर में महात्मा बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ था। यहाँ पर मुख्य रूप से महापरिनिर्वाण मन्दिर, रामाभार स्तूप तथा माथाकुँवर मन्दिर स्थित है। आज कुशीनगर में म्यांमार बुद्ध विहार, थाईलैण्ड बुद्ध विहार, कोरिया बुद्ध विहार, चीनी बुद्ध विहार, जापानी बुद्ध विहार, श्रीलंका बुद्ध विहार, कम्बोडिया बुद्ध विहार, प्रबुद्ध सोसाइटी, अग्ग महापण्डित भदन्त ज्ञानेश्वर बुद्ध विहार एवं भिक्षु संघ सेवारत है। यहाँ प्रत्येक वर्ष बुद्ध पूर्णिमा धूमधाम से कुशीनगर में मनाया जाता है; जिसमें देश विदेश के लाखों श्रद्धालु आते हैं । कुशीनगर में प्रत्येक वर्ष अगस्त में अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन, मिलन एवं सम्मान समारोह का आयोजन कुशीनगर भिक्षु संघ एवं प्रबुद्ध सोसाइटी द्वारा किया जाता है। तुर्कपट्टी का सूर्य मन्दिर वहाँ के मुख्य चौक से लगभग 800 मीटर दक्षिण दिशा में स्थित है। कुशीनगर का \’कोणार्क\’ कहे जाने वाले इस स्थान पर मिले सूर्य प्रतिमा की कथा सुदामा शर्मा नामक स्थानीय व्यक्ति से जुड़ी हुई है। परिवार के लोगों के आकस्मिक निधन से परेशान श्री शर्मा ने रात में स्वप्न देखा। स्वप्न में देखे गये स्थान की खुदाई में नीलमणि पत्थर की दो खण्डित प्रतिमाएँ मिलीं। अध्ययन के बाद इतिहासकारों ने बताया कि इनमें मिली मूर्तियाँ गुप्तकालीन हैं। एक प्रतिमा सूर्यदेव की है। अप्रैल 1998 को यह प्रतिमा चोरी हो गयी; लेकिन पुलिस के प्रयास से प्रतिमा को शीघ्र बरामद कर लिया गया। अब यहाँ एक अच्छा मन्दिर बन चुका है। मन्दिर में बाहर से भी श्रद्धालु आते रहते हैं और इसका परिसर श्रद्धालुओं से भरा रहता है। इस मूर्ति की विशेषता यह कि सूर्य के उगने के साथ ही मूर्ति की चमक बढ़ती है और दोपहर बाद मूर्ति की चमक मद्धिम पड़ने लगती है। कुशीनगर के पनियहवा में गण्डक नदी पर बना पुल देखने में काफी रोचक लगता है। कुशीनगर का सबसे बड़ा गाँव जंगल खिरकिया में भी भव्य मन्दिर है; जहाँ श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। ग्राम जंगल अमवा के समीप मुसहर टोली में बना रामायण काल के अनुरूप पार्क भी देखने योग्य है। इस जिले में शिक्षा का स्तर पुराने समय से काफी प्रगतिमान रहा है और बहुत सारे कालेज व शैक्षिण संस्थान आज भी उन्नत अवस्था में हैं। कुशीनगर को एक प्रकार से सनातन धर्म से निकले हुये अनेक मत- पन्थों के उत्स का केन्द्र कह सकते हैं; जो प्राचीन काल से ही यहाँ की स्थानीयता से एकाकार होकर स्वयं भी प्रभावित हुईं हैं और इनको भी प्रभावित किया है। इसलिये यहाँ की संस्कृति में भारतीयता के स्थायी भाव के साथ- साथ व्यापक वैविध्य दिखायी पड़ता है।
कुशीनगर कृषि-प्रधान जनपद है। गन्ना, गेहूँ, धान यहाँ की प्रमुख फसलें हैं। इसके अलावा मक्का, बाजरा, मूंग, उड़द, अरहर एवं सब्जियों की खेती भी की जाती है। कुशीनगर जिला गन्ना एवं चीनी उत्पादन के लिये भी प्रसिद्ध है। यहां गन्ने की सर्वाधिक खेती की जाती है। इसलिये यहाँ चीनी मिलों की अधिकता है। कुशीनगर जनपद में लगभग 80 प्रतिशत सनातनी हिन्दू, लगभग मुसलमान 16 प्रतिशत मुस्लिम और शेष अन्य मतावलम्बी निवास करते हैं।
सन 2011 की भारत की जनगणना के अनुसार कुशीनगर जनपद की जनसंख्या 3,560,830 है; जो लिथुआनिया की जनसंख्या के लगभग बराबर है। इस प्रकार कुशीनगर जिला भारत के 640 जिलों में जनसंख्या की दृष्टि से इक्यासीवाँ सर्वाधिक जनसंख्या वाला जिला है। सन 2001 2011 के बीच इस जिले की जनसंख्या की वृद्धि दर 23.08 प्रतिशत थी। यहाँ की साक्षरता दर 67.66 प्रतिशत है। कुशीनगर जिले में अधिकांशतः हिन्दू, मुसलमान व बौद्ध मत- पन्थ के अधिकतर लोग निवास करते है। हिन्दू समुदाय के मल्ल-सैंथवार, अहिर, कोइरी, कुर्मी, बाभन/ भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, चमार, डोम, दुसाद, मुसहर, पासी, बीन, मल्लाह, भर, बारी, कुम्हार, भेड़िहार, हजाम, आदि जातियाँ निवास करती हैं। मुस्लिम समुदाय की शेख, पठान, अंसारी (जुलाहा), देवान, कुरैशी, चुड़ीहार, मिसकार, गद्दी, राकी आदि निवास करते हैं। इस कारण भी यहाँ सामाजिक- सांस्कृतिक विविधता एवं एकता के सुन्दर स्वरूप देखने को मिलता है। एकता में विविधता यहाँ के सांस्कृतिक मूल्यों एवं विशेषताओं का प्रमुख आधार है। यहाँ पर क्रियाशील लोकरंग सांस्कृतिक समिति´विगत कई वषों से लोक संस्कृतियों के अन्वेषण, संवर्धन और संरक्षण की दिशा में कार्य कर रही है। किसी भी समाज की लोक संस्कृति, कला और संगीत का उसके मानवीय संवेदनाओं के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। जब समाज लिप्सा, धूर्तता, पाखण्ड से आवृत परिवेश की दिशा में जा रहा हो, तो वहाँ के सांस्कृतिक- सामाजिक मूल्य ही उसे आधार संरक्षण एवं सम्वर्धन प्रदान करते हैं। सन 2008 के लोकरंग के माध्यम से यहाँ के लोगों ने प्रयास किया था कि पूर्वांचल के, देवीगीत, हुड़का, पखावज, फरी नृत्य, विविध लोकगीतों और नुक्कड़ नाटकों को एक मञ्च पर लाया जाय और इस दिशा में काफी हद तक सफलता भी प्राप्त हुई है। सन 2009 के लोकरंग में हमने चइता, बिरहा, जोगीरा, कहरवा, कबीर, कजरी और निर्गुन गायकी, एकतारा वादन, जांघिया और धोबियाऊ जैसे विविध लोकगीतों और नाटकों का मन्चन किया और उनको मञ्च प्रदान हुआ। सन 2010 के में पंवरिया, पखावज, हुड़का, अहिरऊ नृत्य, छत्तीसगढ़ी लोकगीत, बुन्देलखण्डी अचरी, बृजवासी, ईसुरी फाग एवं आल्हा गायकी को स्थान दिया गया और उसे कुशीनगर की सांस्कृतिक विरासत से समाश्रयित किया गया। भोजपुरी गीतों को मञ्च प्रदान करने के लिए तमाम लोक गायकों को आमन्त्रित किया गया।
कहा जाता है कि कुशीनगर के करीब फाजिलनगर कस्बा है; जहाँ \’छठियांव\’ नामक गाँव में किसी ने महात्मा बुद्ध को सूअर का कच्चा माँस खिला दिया था, जिसके कारण उन्हें दस्त की बीमारी शुरू हुई और मल्लों की राजधानी कुशीनगर तक जाते-जाते वे निर्वाण को प्राप्त हो गये। फाजिलनगर में आज भी कई टीले हैं, जहाँ गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की ओर से कुछ खुदाई का काम कराया गया है और अनेक प्राचीन वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। फाजिलनगर के पास ग्राम जोगिया जनूबी पट्टी में भी अति प्राचीन मन्दिर के अवशेष हैं; जहाँ बुद्ध की अतिप्राचीन मूर्ति खण्डित अवस्था में पड़ी है। गाँव के लोग इस मूर्ति को \’जोगीर बाबा\’ कहते हैं। शायद जोगीर बाबा के नाम पर इस गाँव का नाम जोगिया पड़ा है। ईसापूर्व 500 में कुशीनगर का मुख्य द्वार, सांची के कुशीनगर के चित्र के आधार पर कल्पित कर बनाया गया। कुशीनगर उत्तरी भारत का एक प्राचीन नगर है जो मल्ल गण की राजधानी था। दीघनिकाय में इस नगर को \’कुशीनारा\’ कहा गया है। इसके पूर्व इसका नाम \’कुशावती\’ था। कुशीनारा के निकट एक सरिता \’हिरञ्ञ्वाती या हिरण्यवती\’ का बहना बताया गया है। इसी के किनारे मल्लों का शाल वन था। यह नदी आज की छोटी गण्डक है, जो बड़ी गण्डक से लगभग 38 किलोमीटर पश्चिम बहती है और सरयू में आकर मिलती है। बुद्ध को कुशीनगर से राजगृह जाते हुए ककुत्था नदी को पार करना पड़ा था; जिसे अब बरही नदी कहते हैं और यह कुशीनगर से लगभग 8 किमी पूर्व की ओर बहती है। गौतम बुद्ध के कथनानुसार कुशीनगर पूर्व-पश्चिम में 14 योजन लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में 8 योजन चौड़ा था। किन्तु राजगृह, वैशाली अथवा श्रावस्ती नगरों की भाँति बड़ा नगर नहीं था। यह बुद्ध के शिष्य आनन्द के इस वाक्य से पता चलता है- \’अच्छा हो कि भगवान की मृत्यु इस क्षुद्र नगर के जंगलों के बीच न हो।\’ भगवान बुद्ध जब अन्तिम बार अस्वस्थ हुए, तब शीघ्रतापूर्वक कुशीनगर से पावा गये; किन्तु जब उन्हें लगा कि उनका अन्तिम क्षण निकट आ गया है, तब उन्होंने आनन्द को कुशीनारा भेजा। कुशीनारा के संथागार में मल्ल अपनी किसी सामाजिक समस्या पर विचार करने के लिये एकत्र हुए थे। सूचना पाकर वे शालवन की ओर दौड़े, जहाँ बुद्ध अपने जीवन का अन्तिम समय गिन रहे थे। मृत्यु के पश्चात् वहीं तथागत की अंत्येष्ठि की गयी। बुद्ध के अवशेष के एक भाग पर कुशीनगर के मल्लों ने एक स्तूप खड़ा किया। कसया गाँव के इस स्तूप से ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है, जिसमें उसे \’परिनिर्वाण चैत्याम्रपट्ट\’ कहा जाता है। जिससे यह पूर्णतः प्रमाणित होता है कि तथागत का यही महापरिनिर्वाण स्थान है।
मौर्य काल में कुशीनगर की उन्नति विशेष रूप से हुई। किन्तु उत्तर मौर्यकाल में इस नगर की महत्ता कम हो गई। गुप्तयुग में इस नगर ने फिर अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के काल में यहाँ अनेक विहारों और मन्दिरों का निर्माण हुआ। गुप्त शासकों ने यहाँ जीर्णोद्वार के कार्य भी करावाये। खुदाई से प्राप्त लेखों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम के समय हरिबल नामक बौद्ध भिक्षु ने भगवान् बुद्ध की महापरिनिर्वाण अवस्था की एक विशाल मूर्ति की स्थापना किया था और उसने महापरिनिर्वाण स्तूप का जीर्णोद्वार कर उसे ऊँचा भी किया था। स्तूप के गर्भ में एक ताँबे के घड़े में भगवान की अष्टधातु तथा कुछ मुद्राएँ रखकर एक अभिलिखित ताम्रपत्र से ढँककर स्थापित किया था। कुशीनगर के उत्तरी- पूर्वी कोने पर सम्राट अशोक द्वारा बनवाया एक स्तूप है। यहाँ पर ईटों का विहार है, जिसके भीतर भगवान के परिनिर्वाण की एक मूर्ति बनी है। सोते हुए पुरुष के समान उत्तर दिशा में सिर करके भगवान लेटे हुए हैं। इसके आगे एक स्तम्भ है जिसपर तथागत के निर्वाण का इतिहास है। ग्यारहवीं- बारहवीं शताब्दी में कलचुरी तथा पाल नरेशों ने इस नगर की उन्नति के लिये पुनः प्रयास किया था; जो कि माथाबाबा की खुदाई में प्राप्त काले रंग के पत्थर की मूर्ति पर उत्कीर्ण लेख से ध्वनित होता है। यहाँ धरती के अन्दर से लगभग 1500 वर्ष पुराना बुद्ध का चित्र खोद निकाला। उसके बाद से यह स्थान एक प्रमुख बौद्ध तीर्थ बन गया। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि कुशीनगर एक प्राचीन तीर्थस्थल था। उपरोक्त तथ्य एवं प्रमाण कुशीनगर के सांस्कृतिक- सामाजिक, ऐतिहासिक- आध्यात्मिक मूल्यों एवं विशेषताओं का ही केवल प्रकटीकरण नहीं करते हैं; बल्कि इसके पर्यटन के कारण आर्थिक तथा संसाधनगत विशेषताओं के भी मूल्य एवं महत्व का पता चलता है।
(नवोत्थान, नयी दिल्ली के सितम्बर 2021 के अंक में प्रकाशित।)
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
