समाज राजनीति और धर्म

राजनीति में धर्म आवश्यक नहीं, अनिवार्य तत्व है। जिस प्रकार नमक का धर्म खारापन, पानी का धर्म तरलता, अग्नि का धर्म ऊष्मा एवं प्रकाश तथा पृथ्वी की दृढ़ता है; ठीक वैसे ही मानव का धर्म मानवता है। अर्थात नमक का धर्म है कि वह खारेपन के कर्तव्य का पालन करे; पानी, तरलता के कर्तव्य या धर्म का पालन करे और मानव, मानवता के कर्तव्य या धर्म का पालन करे। यह उनका दायित्व और उत्तरदायित्व (ड्यूटी एण्ड रिस्पांसिबिलिटी) है। अपने इस धर्म से निरपेक्ष होने पर मानव की उपयोगिता और महत्ता स्वतः नष्ट हो जाती है। जैसा कि प्रचलन में है और कहा जाता है कि- धर्म एवं राजनीति का मेल घातक होता है। इस बात को तथाकथित पढ़े- लिखे लोगों द्वारा भ्रम फैलाने के लिये कहा गया है, इसको हम भय के रूप में पालपोश रहे हैं। हमें इस बात को समझना चाहिये कि \’धर्म विहीन राजनीति\’ मधुमक्खी के छत्ते की तरह है जिसमें मधु को कुछ नहीं होता, किन्तु वहाँ काटने वाले विषैले बर्रे के झुण्ड होते हैं। समस्या का हल भ्रम या भय द्वारा नहीं; बल्कि सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र से हो सकता है और यह उन्हीं के पास होता है, जिनको अपने कर्तव्य या धर्म का बोध हो और वे उसके अनुसार व्यवहार करें। भ्रमित ज्ञान के आधार पर हम धर्म एवं राजनीति और इनके मेलजोल पर सम्यक निश्चय नहीं कर सकते। इसके लिये धर्म और राजनीति तथा इनके परस्पर सम्बन्धों का सही अर्थ समझना होगा और उसकी सही विवेचना भी करनी होगी। धर्म एक ऐसा मन्त्र है, जो सम्पूर्ण सृष्टि के धारण एवं संचालन के निमित्त, सम्पूर्ण मानवता, मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति को प्राप्त कराने हेतु सभी प्रकार के कर्मों के निर्धारण एवं संपादन द्वारा उत्स प्राप्त करने की व्यवस्था करता है अर्थात जो अपने कर्तव्य का ठीक- ठीक निर्वहन करता है, उसे स्वतः ही सब कुछ ठीक- ठीक प्राप्त होता है।

 

सत्य, अहिंसा, अक्रोध, ईश्वर, धैर्य, क्षमा, अन्दर और बाहर की शुद्धि, अस्तेय, विद्या एवं विवेक को धारण करना, मनुष्य मात्र के धर्म माने गये हैं। धर्म रूपी व्यवस्था के पालन से व्यक्ति, समाज, देश एवं राष्ट्र सबकी उन्नति साथ-साथ होती रहती है। सामाजिक सुरक्षा एवं सुव्यवस्था में जितना स्थान पुलिस और प्रशासन का होता है, उससे अधिक योगदान धर्म के मूल तत्त्वों एवं सिद्धान्तों का होता है। यदि राजनीति की बात की जाय तो, राजनीति भी सामाजिक व्यवस्था का ही एक रूप है। एक निश्चित भूमि पर अपनी विशिष्ट संस्कृति और एकात्मक प्रवाह के साथ जीवन यापन करने वाले जब अपने राष्ट्र को जनहित में संचालित करने हेतु उचित नीति और व्यवस्था का पालन करते हैं, तो उसे राजनीति कहते हैं। यही कार्य स्वतः स्फूर्त तरीके से धर्म करता है। अन्तर केवल इतना है कि व्यक्ति, परिवार, समाज एवं देश तथा राष्ट्र में सुव्यवस्था लाने का राजनीति प्रायोजित उपकरण है और धर्म अप्रायोजित, इसीलिये यह स्वतः स्फूर्त है। जो व्यक्ति या समाज अपने कर्तव्य समझता एवं जानता है, वह धर्म का पालन करता है और इससे स्वाभाविक सुव्यवस्था बनती है। जैसे यदि हमें संज्ञान है कि, माता – पिता के प्रति हमारा धर्म क्या है? तो वृद्धों से जुड़ी समस्या का स्वतः अन्त हो जाता है। दीन – दुखी के प्रति हमारा धर्म क्या है? यदि हमें इसका ज्ञान एवं व्यवहार है तो इससे जुड़ी समस्या का अन्त हो जाता है; इसी प्रकार अन्य बहुत से विषयों पर भी यह बात लागू होती है। धर्म एवं राजनीति के स्वरूप की सम्यक विवेचना एवं समृद्ध दर्शन के उपरान्त यह भ्रम खत्म हो जाता है कि राजनीति और धर्म का मेल घातक हो सकता है! राजनीति वह कार्यकारी व्यवस्था है, जिसके द्वारा व्यष्टि एवं समष्टि के मध्य समन्वय एवं सन्तुलन स्थापित होता है। ठीक इसी प्रकार धर्म वह स्थायी व्यवस्था है, जिसके द्वारा व्यष्टि एवं समष्टि के मध्य समन्वय एवं सन्तुलन स्थापित रहता है। इस प्रकार धर्म एवं राजनीति एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने के व्यवहारिक एवं सैद्धान्तिक अथवा प्रायोजित एवं अप्रायोजित पक्ष हैं। इन दोनों का परस्पर मेल एक दूसरे की क्षमता बढ़ाने के लिये आवश्यक नहीं, बल्कि अनिवार्य है। इस प्रकार सामाजिक राष्ट्रीय सुव्यवस्था स्थापित करने वाली राजनीति में मान्य धर्म सम्मत सिद्धान्तों का समावेश आवश्यक है, तभी इस दिशा में व्याप्त भ्रम दूर हो सकेगा।

 

धर्म एवं राजनीति में समन्वयहीनता से हिंसावाद, अलगाववाद, आतंकवाद, नक्सलवाद तथा दंगा, हाथापाई, हिंसक प्रदर्शन, हड़ताल, भ्रष्टाचार, व्याभिचार आदि में वृद्धि होती है। धर्म का प्रभाव न रहने से अधर्म का प्रभाव बढ़ेगा, जैसे प्रकाश के अभाव में अन्धकार उपस्थित हो जाता है। इसलिये, राजनीति में धर्म का मेल घातक नहीं, मंगलकारी होता है। इस प्रकार की परिस्थिति में गन्दी राजनीति कोई, चाहे धर्म में करे या राजनीति में, गलत है। धर्म के कारण ही सभी मत, पंथ, सम्प्रदाय, मजहब अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं और यह सिद्ध मार्ग भी है। कलयुग में हम सभी किसी न किसी प्रकार की हिंसा कर ऊँचा उठने की कोशिश कर रहे हैं। कहने का अर्थ यह है कि सभी पंथ अपने आपमें श्रेष्ठ होते है; सभी की आस्था अपने पंथ में होती है; किन्तु इन सबका निमित्त मानव धर्म है और यही धर्म का मूल है अर्थात धर्म केवल एक है, और वह है मानव धर्म। यह सनातन है, पुरातन है, चिरन्तन है। चाहे जो भी राजनीतिक दल शासन कर रहे होते हैं, उनमें कुछ न कुछ कमी रहती है; लेकिन न्यूनतम कमी किसमें है? अर्थात उपलब्ध सुन्दर (अवलेबल बेस्ट) क्या है? उसके अनुसार कार्य व्यवहार करना होता है; यह विवेक जागृत होना जरूरी होता है। किसी बात का अर्थ का अनर्थ निकालकर जनता को भ्रमित किया जा सकता है; किन्तु, धर्म रहित राजनीति में होकर उचित कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया जा सकता है। धर्म में राजनीति जैसी गुटबाजी, एक-दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप लगाना तर्कहीन है। हम सबको मिलकर राजनीति में धर्म एवं धर्म में राजनीति के अर्थ तथा प्रयोग को समझना होगा; इनके बीच के काल्पनिक भेद को दूर भगाने में राजनीतिक रूप से एवं धर्म सम्मत तरीके से एक दूसरे का सहयोग करना होगा। सबको मिलकर, चाहे वह किसान हो या अधिकारी, व्यापारी हो या नेता प्रत्येक समय में धर्म को राजनीति या राजनीति को धर्म से जुड़ाव की नकारात्मक व्याख्या करके देश और प्रदेश तथा समाज में विघटन पैदा करने की कोशिश न करें; तभी सर्वसमाज खुशहाल जीवन जी पायेगा।

 

\’धर्म का राजनीति से क्या लेना- देना है? धर्म और हिंसा का क्या सम्बन्ध है? वर्तमान समय में, विभिन्न राजनीतिक कार्यसूची कौन सा रूप धारण कर हमारे सामने आ रही हैं? ऐसा लगता है कि राजनीति ने धर्म का चोला ओड़ लिया है और यह प्रवृत्ति दक्षिण व पश्चिम एशिया में अधिक नजर आ रही है।\’ येसी बातें कहने वाले मूढ़ लोग हैं। धर्म और पंथ को प्रत्येक दशा में अलग करना होगा। जिनको यह पता है कि कुछ दशक पहले, धर्म की राजनीति में घुसपैठ की शुरूआत ईरान में अयातुल्लाह खुमैनी के सत्ता में आने के साथ हुई! जिनको यह पता है कि इसके पहले, मुसादिक की सरकार का तख्ता पलट दिया गया था; मुसादिक ईस्वी सन 1953 में लोकतान्त्रिक तरीके से ईरान के प्रधानमंत्री चुने गये और उन्होंने देश के कच्चे तेल के भण्डार का राष्ट्रीयकरण कर दिया, जो पश्चिमी या अमरीकी बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियों को पसन्द नहीं आया; क्योंकि इससे उनका लाभ नकारात्मक रूप से प्रभावित होने लगा। मुसादिक सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद शाह रजा पहलवी को सत्ता सौंप दिया गया। इसके बाद हुई एक क्रान्ति के द्वारा अयातुल्लाह खुमैनी सत्ता में आये। खुमैनी और उनके साथी कट्टरवादी इस्लामिक पंथ के झण्डाबरदार थे। उनके सत्ता में आने से पश्चिमी मीडिया में हलचल मची और इस्लाम को ‘आने वाले समय का सबसे बड़ा खतरा’ बताया गया। जहां तक दक्षिण एशिया का प्रश्न है, पिछले कुछ दशकों में भारत में पांथिक नहीं, धर्म सम्मत राजनीति का स्वरूप खुलकर सामने आया; लेकिन पाकिस्तान में जिया-उल-हक द्वारा राजनीति का इस्लामीकरण किया गया। इस्लाम की मौलाना मौदूदी की व्याख्या का इस्तेमाल, जिया-उल-हक ने अपनी सत्ता को इस्लामीकरण के द्वारा मजबूत करने के लिये किया।

 

इसके बाद, म्यानमार अर्थात वर्मा में अशिन विरथू जैसे लोगों का उदय हुआ, जिसे वर्मा का बिन लादेन कहा जाने लगा। श्रीलंका में बौद्ध मतावलंबियों ने राजनीति में घुसपैठ शुरू किया। इसी दौर में अमरीका में ईसाई कट्टरवाद का बोलबाला बढ़ा। न्यूयार्क के डब्ल्यूटीसी टावर पर 9 नवम्बर के हमले के बाद, ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द अस्तित्व में आया; यह शब्द तब आया, लेकिन यह कार्य दुनिया में पहले भी चल रहा था। इसके कारण इस्लामिक पंथ आतंकवादी हिंसा के जाल में पहले से था, अब कीचड़ में आ गया था। आज तक यह आम धारणा है, बल्कि मजबूत धारणा है कि, इस्लाम और मुसलमान, आतंकवादी हिंसा की जड़ में हैं। इस्लाम का राजनीति में उपयोग और सिरफिरे लोगों द्वारा अपने हितों की रक्षा के लिये इस्लाम के नाम का इस्तेमाल करने के कारण इस धारणा को मजबूती मिली और पूरी दुनिया में मुसलमानों की छवि स्वयं उनके कृत्यों के कारण खराब हुई। बोको हरम, आईसिस और अलकायदा की तिकड़ी, इस्लामिक पहचान को केन्द्र में रखकर वीभत्स हिंसा कर रही है। यह प्रक्रिया शुरू हुई थी अफगानिस्तान में सोवियत सैनिकों को काफिर बताकर उन पर हमला करने के आह्वान के साथ; अब हालत यह है कि मुसलमानों का एक पंथ ही दूसरे पंथ के सदस्यों को काफिर बता रहा है और अत्यंत क्रूर व दिल दहलाने वाले तरीकों से लोगों की जान ली जा रही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस तिकड़ी द्वारा जिन लोगों की जान ली गई या ली जा रही है; उनमें सबसे अधिक मुसलमान ही हैं। अलकायदा के उभार के पीछे कई कारक थे। इनमें से एक था जिया-उल-हक द्वारा पाकिस्तान का इस्लामीकरण। जिया-उल-हक ने पाकिस्तान में ऐसे मदरसों की स्थापना किया, जिनका इस्तेमाल युवाओं के दिमाग में जहर भरने के लिये किया जाने लगा। सउदी अरब से इस्लाम के वहाबी संस्करण का आयात कर लिया गया। वहाबियों की मान्यता है कि शासक, ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। इस्लाम के इस संस्करण के अनुसार, जो उनसे सहमत नहीं है, वह काफिर है और काफिर की जान लेना पवित्र जिहाद है। जो लोग इस जिहाद में मारे जाते हैं उन्हें जन्नत नसीब होती है। अलकायदा के खूनी अभियान को सबसे अधिक सहयोग अमरीका से मिली। कैंसर की तरह अलकायदा धीरे-धीरे पूरे दक्षिण एशिया में फैल गया और उसे उखाड़ फेंकना मुश्किल होता गया।

 

सवाल है कि अब हमारे सामने आगे की राह क्या है? अलग-अलग काल में धर्म की अलग-अलग भूमिका रही है। हमें धर्मों की सन्त परम्परा ठीक से पुनर्जीवित करना होगा। हमें लोगों को यह बताना होगा कि धर्म एक नैतिक शक्ति है और धर्म के नाम पर हिंसा किसी भी स्थिति में जायज नहीं है और यह भी कि धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा पांथिक हिंसा है; उसको धर्म के साथ जोड़कर, धर्म को बदनाम नहीं किया जा सकता। धार्मिक विद्वानों और अध्येताओं को धर्मों के नैतिक पक्ष पर जोर देना चाहिये और लोगों को पहचान से जुड़े मुद्दों और बाहरी आडम्बर से दूर रहने की सलाह देनी चाहिये। पंथ या सम्प्रदाय को धर्म द्वारा बताये नीतियों एवं सिद्धान्तों का पालन करना चाहिये। लगभग सभी मत, पंथ, अपने-अपने सन्दर्भों में, मानवता की बात करते हैं; किन्तु न जाने क्यों, धर्मों के दार्शनिक पक्ष की बजाय, केवल दिखावटी पक्ष उनके पंथों की पहचान बन गये और अब भी बने हुये हैं। यहां सामंत, धनिक वर्ग तथा मौलवी वर्ग और एसे सत्ताधारियों के बीच गठजोड़ हुआ करता था। मौलवी वर्ग ने ही इस अवधारणा को प्रस्तुत किया कि सामंत वर्ग को ही शासन करने का दैवीय अधिकार है। यूरोप में राजा और पोप हमराही हो गये, इस्लामिक दुनिया के बड़े हिस्से में नवाब और शाही इमाम तथा मौलवी आदि में दोस्ती हो गयी; लेकिन सनातन पद्धति अर्थात हिन्दू प्रभाव वाले क्षेत्रों में राजा और राजगुरू एक साथ खड़े दिखने लगे; यहां ये कर्म के आधार पर विभाजित थे, इसलिये या तो टकराव नहीं था या टकराव काल्पनिक था। लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई, लोहे का काम करने वाले लुहार, बाल आदि काटने वाले नाई, शास्त्र एवं कर्मकाण्ड का कार्य करने वाले पुरोहित आदि कहलाये और फिर यही सीखने की पारिवारिक सुविधा के कारण आगे की पीढ़ी ने भी यही कार्य सीख लिया; बाद में चलकर लोग उनको उसी जाति का कहने लगे। उनके कर्म ही कर्तव्य या धर्म बन गये। जिन्होंने परिवार से अलग हटकर दूसरे कार्य अपनाये, उनका उस परिवार से अलग धर्म हो गया। जैसे विश्वामित्र जी ऋषि कहलाये; वेदव्यास जी, महर्षि कहलाये और बाल्मीकि जी अपनी साधना से ब्राह्मऋषि कहलाये आदि।

 

इसलिये भारत में शासक एवं राजगुरु का सम्बन्ध, राजनीति में घुसपैठ करने या कट्टरता फैलाने के लिये नहीं, राजनीति के श्रेष्ठ कर्तव्य का पालन एवं निर्वहन कैसे हो, उसको सुगम बनाने के लिये था। इसलिये ईरान, पाकिस्तान या शेष विश्व में जहां भी इस तरह का गठजोड़ हुआ, वह भारत जैसा व्यवस्थित रूप में परिभाषित नहीं रहा है। भारत के बाहर इस गठजोड़ द्वारा शासक वर्ग ने सत्ता को अधिक से अधिक अपने हाथों में केन्द्रित करने के लिये पंथ या सम्प्रदाय का उपयोग और दुरुपयोग करने लगे। यहां तक कि इस्लामिक देशों में तो राजाओं या शासकों ने अपनी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को धार्मिक आधार पर उचित सिद्ध करना शुरू कर दिया। यदि कोई ईसाई राजा अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था तो उसके लिये किये जाने वाले युद्ध को वह ‘क्रूसेड’ बताता था। इसी प्रकार, मुस्लिम राजा कभी युद्ध नहीं करते थे, वे हमेशा जिहाद करते थे। जबकि हिन्दू राजाओं की प्रत्येक लड़ाई धर्मयुद्ध हुआ करती थी। भारत में हमेशा से धर्मसापेक्ष और पंथनिरपेक्ष व्यवस्था रही है। जहां- जहां धर्मनिरपेक्ष एवं पंथसापेक्ष व्यवस्था थी या लागू करने की कोशिश हुई; वहां वहां \’क्रुशेड\’ और \’जिहाद\’ हुये। पंथ, सम्प्रदाय का समानार्थी शब्द है। भारत में भी धर्मनिरपेक्ष एवं पंथसापेक्ष व्यवस्था लागू करने का प्रयास हुआ और कुछ हद तक सफल भी हुआ; जिससे मुस्लिम सम्प्रदायवादी धारा सामने आयी। उसकी आंशिक प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक थी, वह हुई भी। लेकिन भारत में प्रायोजित तरीके से धर्मनिरपेक्ष एवं पंथसापेक्षवादी सम्प्रदायवादियों ने इसका ठीकरा धर्मसापेक्ष और पंथनिरपेक्षवादियों पर फोड़ना शुरू किया, इसका विरोध हुआ और इस कारण भारत में व्यवस्थित वैचारिक परिवर्तन सरकार, समाज तथा व्यक्ति में आया और इस परिवर्तन ने पिछले दशक में एक प्रकार से स्थायी वैचारिक सत्ता परिवर्तन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में करा दिया। अभारतीय धारा ने हमारे औपनिवेशिक शासकों को उनकी ‘फूट डालो और राज करो\’ की नीति को लागू करने में सहयोग किया। औपनिवेशिक ताकतें, जो शनैः शनैः साम्राज्यवादी ताकतें बनती गयी, उनका आर्थिक प्रभुत्व बनाये रखने में इस शक्तियों ने उनका साथ दिया। लेकिन अब धर्म आधारित राजनीति से औनिवेशिक मानसिकता भी तिरोहित हो रही है।

 

डा कौस्तुभ नारायण मिश्र

 

न्यूज टाइम पोस्ट, लखनऊ के 01 से 15 जुलाई 2022 के अंक में प्रकाशनाधीन।