विवेक बुद्धि और विद्या (भारतीय ज्ञान परम्परा, क्रमशः दो)

अनेक बार यह कहा जाता है कि- ‘न मूलं लिख्यते किञ्चित।’ ऐसे लोगों से जब प्रश्न पूछिये कि आखिर मूल कहते किसे हैं? तो उनके पास कोई उत्तर नहीं होता। वास्तव में मनुष्य और जीव का मष्तिष्क और उस मष्तिष्क के वाह्य या स्थूल जगत के साहचर्य से उपजा बुद्धि और विवेक ही वास्तविक मूल है। मष्तिष्क की निर्माण प्रक्रिया और निर्माण प्रक्रिया का कर्ता और करण ही मूल है। बाकी जिसको- जिसको आप मूल समझते हैं, वह मूल नहीं! मूल का फलन या प्रतिफल या परिणाम है अर्थात वह मूल की कृपा एवं क्रिया से उपजा उत्पाद है। वह उत्पाद मौलिक नहीं अर्थात विद्या का कारक नहीं है। जैसा कि पहले व्यक्त हुआ है कि विद्या ही मूल प्रतिपादन सूत्र है। इसी कारण मष्तिष्क और विद्या को समझने के लिये अलौकिक या पारलौकिक या अदृश्य या सूक्ष्म सत्ता को समझना आवश्यक होता है। इसको समझने की पूर्णता ही ‘ब्रम्ह’ के रूप में प्रकट होती है अर्थात मष्तिष्क एवं विद्या को वही समझ सकता है, जो ब्रम्ह को समझता है या जो ब्रम्ह को समझता है, वही मष्तिष्क और विद्या को समझ सकता है। ऐसा न करने वाला विद्या, विज्ञान, ज्ञान से दूर है और वह प्रज्ञा के निकट नहीं जा सकता। ऐसा ही व्यक्ति ब्रम्ह के आवश्यक लक्षण (ऐसेंटियल फीचर) अर्थात ‘सच्चिदानन्द ब्रम्ह’ अर्थात ‘सत्यम ज्ञानम अन्तम ब्रम्ह’ को समझ सकता है। ऐसा ही व्यक्ति ब्रम्ह के तठस्थ अर्थात लौकिक लक्षण अर्थात उस ब्रम्ह के कर्ता और करण भाव को अर्थात उसके लौकिक स्थिति को समझ सकता है। जब ब्रम्ह माया के स्वरूप में प्रकट होता है, तभी उसका कर्ता और करण अर्थात लौकिक भाव दृष्टिगत होता है अर्थात तभी वह लौकिक रूप से किसी तत्व पदार्थ आदि को घटित या उदघाटित करता है। ब्रम्ह का यही लौकिक रूप अर्थात जब वह माया से संपृक्त होते हैं तो ईश्वर या परमात्मा कहलाते हैं। इसी भाव को हम भिन्न- भिन्न रूपों में मानकर या स्वीकार कर इनकी आराधना करते हैं। इसी को ब्रम्ह का अंग्रेजी में एक्सीडेंटल फंक्सन कहते हैं। इन बातों को व्यवस्थित रूप में समझने के लिये हमें ‘प्रमा’ (वैलिड नॉलेज) और ‘अप्रमा’ (इनवैलिड नॉलेज) को समझना जरूरी होता है। तर्क, अप्रमा का ही एक रूप है; जबकि प्रमा, प्रमेय का कारक है। प्रमा को जानने और समझने के लिये हम छः तरह के आधार पर परीक्षण करते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि। इनके सहारे ही हम प्रमा अर्थात वैलिड नॉलेज तक पहुँचते हैं। यह वैलिड नॉलेज ही ज्ञान कहलाता है। उक्त छः मार्ग विज्ञान के परिक्षण जनित मार्ग हैं और वैलिड नॉलेज तक पहुँचने के लिये ही हम प्रश्न जनित विद्या का सहारा लेते हैं। वह प्रश्न ही वास्तव में वास्तविक मूल है। इस दार्शनिक समुच्चय और सच को जो यथार्थ धरातल पर जानता और समझता है, वही भारतीय ज्ञान परम्परा को समझ और जान सकता है अर्थात उसका अधिकारी बन सकता है। इसी कारण भारतीय दार्शनिक परम्परा का यथार्थ आधार भारतीय ज्ञान परम्परा है।

भारत में दार्शनिक मूल्य और परम्परा वैदिक काल से ही स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ते हैं। भारतीय दर्शनों में छः दर्शन अधिक प्रसिद्ध हुए- महर्षि गौतम का ‘न्याय’, कणाद का ‘वैशेषिक’, कपिल का ‘सांख्य’, पतञ्जलि का ‘योग’, जैमिनि की पूर्व मीमांसा और आद्य शंकर का ‘वेदान्त’ या उत्तर मीमांसा। ये सभी वैदिक दर्शन के नाम से जाने जाते हैं; क्योंकि ये सभी वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। जो दर्शन वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार करते हैं, वे आस्तिक दर्शन कहलाते हैं और जो वेदों के प्रमाण जन्य अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, उन्हें नास्तिक दर्शन की संज्ञा दी जाती है। इसमें बौद्ध, जैन, चार्वाक शामिल किये जाते हैं। आस्तिक दर्शनों को षड्दर्शन और नास्तिक दर्शनों को त्रिकदर्शन कहते हैं। किसी भी दर्शन का आस्तिक या नास्तिक होना परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर निर्भर न होकर, वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर निर्भर माना जाता है। इसी को कुछ अदूरदर्शी परमात्मा या ईश्वर के स्वीकार एवं अस्वीकार से जोड़कर विकृति फैलाते हैं। वे यह मानते हैं कि वेदों की प्रामाणिकता को मानना, ईश्वर को स्वीकार करना है; इसलिये यदि वेदों को स्वीकार किया गया तो ईश्वर या परमात्मा को स्वीकारना मान लिया जायेगा। यहाँ तक कि बौद्ध मत के विभिन्न सम्प्रदायों का भी उदगम उपनिषदों से ही है; यद्यपि उन्हें सनातन धर्म नहीं माना जाता है; क्योंकि वे वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते; जबकि यह भी एक बड़ा झूठ बोया गया है कि बौद्ध दर्शन वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करता और इसलिये यह सनातन नहीं है। यदि आप बौद्ध दर्शन में उनके पञ्चशील के सिद्धान्त, अष्टांगिक मार्ग और पारमिताओं की विस्तृत विवेचन विश्लेषण में जाइये तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि बौद्ध मत भी सनातन मत है और वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करता है। इसकी आगे विस्तृत चर्चा की जायेगी। हमें बौद्धकाल में दार्शनिक चिन्तन की प्रगति, साधारणतः, किसी ऐतिहासिक परम्परा पर होने वाले किसी प्रबल आक्रमण के कारण ही सम्भव प्रतीत होती है। जब कि मानव समाज पीछे लौटने को और उन मूलभूत प्रश्नों को एक बार फिर उठाने के लिये अकारण बाध्य हो जाता है। जिनका समाधान उसके पूर्वपुरुषों ने प्राचीनतम योजनाओं के द्वारा किया था। इस अर्थ में इस झूठ को भी स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है कि, ‘बौद्ध तथा जैन मतों के विप्लव ने, वह विप्लव अपने-आप में चाहे जैसा भी था, भारतीय विचारधारा के क्षेत्र में एक विशेष ऐतिहासिक युग का निर्माण किया, उसने कट्टरता की पद्धति को अन्त में उड़ाकर ही दम लिया तथा एक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को उत्पन्न करने में सहायता दी। महान बौद्ध विचारकों के लिये तर्क ही ऐसा मुख्य शस्त्रसागर था, जहाँ सार्वभौम खण्डनात्मक समालोचना के शस्त्र गढ़कर तैयार किये गये थे। बौद्ध मत ने मस्तिष्क को पुराने अवरोधों के कष्टदायक प्रभावों से मुक्त करने में विरेचन का काम किया है।’ यह सत्य नहीं, पूर्वाग्रहपूर्ण प्रतिवेदन है; इसका आगे समाधान किया जायेगा।

कुमारिल भट्ट, जिनकी सम्मति इन विषयों में प्रामाणिक एवं योग्य मानी तथा समझी जाती है, स्वीकार करते हैं कि बौद्ध दर्शनों ने उपनिषदों से व्यापक प्रेरणा लिया है, और इस कारण प्रेरणा लिया; क्योंकि उनका उद्देश्य अत्यन्त विषय-भोग पर रोकथाम लगाना था। कुमारिल भट्ट यह भी कहते हैं कि ये सब प्रामाणिक दर्शन हैं। वेद को स्वीकार करने का अर्थ यह है कि आध्यात्मिक अनुभव से इन सब विषयों में शुष्क तर्क की अपेक्षा अधिक प्रकाश मिलता है। तात्पर्य यह है कि कोई बौद्ध या जैन मत का अपने को अनुयायी कहने वाला किसी पूर्वाग्रह के कारण यह कह दे कि हम वेदों की प्रामाणिकता को नहीं मानते तो इसका आशय यह है कि वह वास्तव में बौद्ध मत का अनुयायी है ही नहीं। क्योंकि बौद्ध मत का आधारभूत कारक इस बात को स्पष्ट रूप से मानने को विवश करता है कि, बौद्ध मत वेदों की प्रामाणिकता को मानता है। वास्तविक तथा जिज्ञासा-भाव से निकला हुआ संशयवाद, विश्वास को उसकी स्वाभाविक नीवों पर जमाने में सहायक होता है। संशय या भ्रम यदि नकारात्मक या पूर्वाग्रहपूर्ण नहीं हैं तो ‘प्रश्न’ को जन्म देते हैं। नीवों को अधिक गहराई में डालने की आवश्यकता का ही परिणाम दार्शनिक हलचल के रूप में प्रकट होता है; जिसने छः दर्शनों को जन्म दिया। जिनमें काव्य तथा धर्म का स्थान, विश्लेषण और शुष्क समीक्षा ने लिया। रूढ़िवादी सम्प्रदाय अपने विचारों को संहिताबद्ध करने तथा उसकी रक्षा के लिए तार्किक प्रमाणों का आश्रय लेने को बाध्य हुये तथा प्रमा एवं अप्रमा को दोनों के सहारे प्रामाणिक ज्ञान (वैलिड नॉलेज) तक पहुँचने की चेष्टा करने लगे। दर्शनशास्त्र का समीक्षात्मक पक्ष उतना ही महत्त्वपूर्ण हो गया है, जितना कि अभी तक प्रकल्पनात्मक पक्ष था। दर्शनकाल से पूर्व के दार्शनिक मतों द्वारा अखण्ड विश्व के सम्बन्ध में कुछ सामान्य विचार तो अवश्य प्राप्त हुये थे; किन्तु यह अनुभव नहीं हो पाया था कि किसी भी सफल कल्पना का आधार ज्ञान का विद्या एवं विज्ञान से उपजा समीक्षात्मक या समालोचनात्मक सिद्धान्त ही होना चाहिये, आलोचनात्मक नहीं। आलोचकों ने विरोधियों को इस बात के लिये विवश कर दिया कि वे अपनी परिकल्पनाओं की प्रामाणिकता किसी दिव्य ज्ञान के सहारे सिद्ध न करें, बल्कि ऐसी स्वाभाविक पद्धतियों द्वारा सिद्ध करें जो जीवन और अनुभव पर आधारित हों। कुछ ऐसे विश्वासों के लिये, जिनकी हम रक्षा करना चाहते हैं। हमारा मापदण्ड शिथिल नहीं होना चाहिये। इस प्रकार आत्मविद्या अर्थात दर्शन को अब अनुसन्धानरूपी विज्ञान अर्थात बिना विद्या आधारित प्रश्न के विज्ञान का सहारा मिल गया और यहीं से अविश्वास शुरू हुआ। दार्शनिक विचारों का केवल तर्क की कसौटी या अप्रमा पर इस प्रकार कसा जाना स्वाभावतः मौलिक ज्ञान परम्परा के वाहकों को रुचिकर नहीं लगा। श्रद्धालुओं को यह निश्चित ही निर्जीव लगा होगा, क्योंकि अन्तः प्रेरणा के स्थान पर अब आलोचनात्मक तर्क आ गया था, समालोचनात्मक विमर्श नहीं। चिन्तन की उस शक्ति का स्थान जो सीधे जीवन और अनुभव से फूटती है, जैसी कि उपनिषदों में, और आत्मा की उस अलौकिक महानता का स्थान जो परब्रह्म का दर्शन और गान करती है, जैसा कि भगवद्गीता में है, कठोर दर्शन ले लेता है। इसके अतिरिक्त, तर्क की कसौटी पर पुरानी मान्यताएँ निश्चित ही खरी उतर सकेंगी यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता था; क्योंकि तर्क की कसौटी, सत्य की कसौटी नहीं होती है। वास्तव में तर्क अविश्वास और नकारात्मकता से उपजा एक कारण होता है और इसीलिये इसे अप्रमा भी कहते हैं। ज्ञान और दार्शनिक परम्परा के अनुसार संशय और भ्रम का तो अनिवार्य समाधान होना चाहिये; लेकिन अविश्वास और नकारात्मक पूर्वाग्रह के लिये इसमें कोई स्थान नहीं है। इसी कारण अविश्वास और पूर्वाग्रहपूर्ण नकारात्मक भाव के कारण अस्वाभाविक रूप से उत्पन्न प्रश्न अप्रमा तथा संशय एवं भ्रम के कारण स्वाभाविक रूप से उपजा प्रश्न प्रमा द्वारा व्यवहृत होता है।

दार्शनिक मार्ग के मध्य समय की सर्वमान्य भावना का आग्रह था कि प्रत्येक ऐसी विचारधारा को, जो तर्क की कसौटी पर खरी उतर सके ‘दर्शन’ के नाम के ग्रहण करना चाहिये; पूरी तरह गलत थी। इसी कारण उन सभी तर्कसम्मत प्रयासों को जो विश्व के सम्बन्ध में फैली और बिखरी हुई धारणाओं को कुछ व्यापक विचारों में समेटने के लिये किये गये, दर्शन की कोटि में शामिल करके, दर्शन की मूल्यगत महत्ता को घटा दिया गया। इस प्रकार के अप्रमा जनित प्रयास हमें सत्य के किसी अंश को अनुभव कराने में सहायक सिद्ध तो नहीं होते हैं; लेकिन इससे यह विचार बना कि प्रकट रूप में पृथक प्रतीत होते हुए भी, सभी दर्शन वस्तुतः एक ही बृहत स्वाभाविक ऐतिहासिक सामयिक योजना के अंग हैं। जब तक हम इन्हें स्वत्रन्त्र समझते रहेंगे तथा ऐतिहासिक समन्वय में इनकी स्थिति पर ध्यान नहीं देंगे, तब तक हम इनकी वास्तविकता को पूर्णरूप से हृदयंगम नहीं कर सकते हैं। तर्क की कसौटी का आधार अप्रमेयगत होता है। दार्शनिक मूल्यों और मान्यताओं में तर्क की कसौटी के आधार को स्वीकार कर लेने वाले के प्रति, स्थापित मान्यताओं के प्रचारकों का विरोध नरम पड़ गया और उससे यह स्पष्ट हो गया कि दोनों अपने- अपने आधारों को लेकर एक दूसरे के प्रति विरोध का भाव रखते हैं। इस कारण मानने और न मानने के आपसी विरोध के कारण दर्शन एवं ज्ञान परम्परा में एक दूसरे को दर्शन और ज्ञान मानने से अस्वीकार के भाव में आने लगे। दोनों का इस प्रकार का भेद उतना सशक्त व सुदृढ़ नहीं था और इस प्रकार की विचारधाराओं को दर्शन का नाम देना भी ठीक नहीं था। भौतिकतावादियों, संशयवादियों और कतिपय बौद्ध धर्मानुयायियों के विध्वंसात्मक जोश ने निश्चयात्मक ज्ञान के आधार को नष्ट किया! इस प्रकार की भी टिप्पणी की जाने लगी। भारतीय मानस इस निषेधात्मक परिणाम को शान्ति से ग्रहण नहीं कर पाया; क्योंकि इन विषयों को लेकर अकारण पूर्वाग्रह के कारण भेद और द्वैध खड़ा करने की कोशिश की जाने लगी और यह कहा जाने लगा कि मनुष्य संशयवादी रह कर निर्वाह नहीं कर सकता। निरे बौद्धिक द्वन्द से ही काम नहीं चल सकता। वाद-विवाद का स्वाद मानव की आत्मिक भूख को शान्त नहीं कर सकता और यह ज्ञान एवं दर्शन का हेतु भी नहीं है। ज्ञान और दर्शन में संशय एवं भ्रम होने पर प्रश्न करने; उन प्रश्नों का समाधान की प्रक्रिया करने और समाधान प्रस्तुत करने का कार्य किया जाता है। इसमें ऐसे शुष्क तर्क से कुछ लाभ नहीं जो हमें किसी सत्य तक न पहुँचा सके। यह असम्भव था कि उपनिषदों के ऋषियों जैसे आत्मनिष्ठ महात्माओं की आशाएँ और महत्वाकांक्षाएँ, तार्किक अर्थात अप्रमा या अप्रमेयगत समर्थन के आभव में यों ही नष्ट हो जाती। यह भी असम्भव था कि शताब्दियों के संघर्ष और चिन्तन से भी मानव संशय एवं भ्रम जनित समस्या के समाधान की दिशा में कुछ आगे चलता गया। उक्त संशय और भ्रम वास्तव में मनुष्य एवं जीव जगत की आवश्यकता तथा स्वाभाविक जिज्ञासा के कारण उत्पन्न होने लगे और तब विज्ञान एवं ज्ञान को विद्या द्वारा निरन्तर आलोकित किया जाने लगा। एक मात्र निराशा में ही उसका अन्त नहीं होने दिया जा सकता अर्थात अविश्वास और पूर्वाग्रहजनित कारकों के द्वारा जीव एवं जगत की समस्याओं के समाधान हेतु क्रिया नहीं की जा सकती। क्रिया और परिणाम हेतु, कर्ता का होना अनिवार्य है और उस कर्ता के अस्तित्व को स्वीकार करने का कार्य अविश्वास और पूर्वाग्रह से नहीं किया जा सकता। क्योंकि जो विश्वसनीय और दृश्य है, उसको देखकर विश्वास किया जाता है; जबकि जो अविश्सनीय या अदृश्य है, उसे विश्वास करके देखा जाता है। आगे इसके विस्तृत भेद की चर्चा आवश्यकतानुसार की जायेगी।

प्रमा सदैव, मान्यता या श्रद्धा के विषय से आरम्भ होती है; जैसे आपकी माँ ने कहा कि, अमुख व्यक्ति तुम्हारा पिता है, तो हम प्रथमतया उसे मान लेते हैं, विश्वास कर लेते हैं और फिर आगे चलकर वह स्थापित सत्य का स्थान ले लेता है। यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि तर्क को भी अन्ततोगत्वा श्रद्धा का ही आश्रय ढूंढ़ना पड़ता है। उपनिषदों के ऋषि पवित्र ज्ञान के शिक्षणालय के महान शिक्षक हैं। जैसे भक्त साधु सन्त महात्मा ऋषि और मुनियों की श्रेणियाँ हमें क्रमशः इसका मार्गदर्शन करती हैं। वे हमारे आगे ब्रह्मज्ञान व आध्यात्मिक जीवन की सुन्दर व्याख्या रखते हैं। निरे तर्क से मानव यथार्थ सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकता; क्योंकि सत्य तक पहुँचने का मार्ग अविश्वास से नहीं, विश्वास से होकर जाता है। जो केवल तर्कवादी हैं, निश्चय ही उसे उन ऋषियों के महान विचारों और लेखों की सहायता प्राप्त करनी चाहिये; जिन्होंने आध्यात्मिक ध्रुव सत्य को प्राप्त करने का दावा किया और प्राप्त किया है। इस प्रकार जो कुछ श्रद्धा के द्वारा स्वीकार किया गया था, कुछ के द्वारा उसकी वास्तविकता को तर्क द्वारा सिद्ध करने के प्रबल प्रयास किये गये; जो उपयुक्ततम मार्ग नहीं था। क्योंकि दर्शन उस प्रयास का ही दूसरा नाम है जो मानव समाज के बढ़ते हुए अनुभवजनित प्रश्नों के परीक्षण एवं ज्ञानात्मक परिणाम तक ले जाने एवं उनकी व्याख्या के लिये किया जाता है। किन्तु जिस खतरे से हमें सावधान रहना होगा वह यह है कि कहीं केवल तर्क को ही दार्शनिक विज्ञान का परिणाम स्वीकार न कर लिया जाय। श्रद्धा भाव का जागरण ही वास्तविक ज्ञानात्मक परम्परा का वहन करता है। तर्क हमेशा ज्ञान, चिन्तन एवं दार्शनिक परम्परा पर न केवल ग्रहण लगाता है; बल्कि आपको स्तय और वास्तविकता तक पहुँचने ही नहीं देता है। इसलिये तर्क ज्ञान का हेतु या कारक नहीं है।

भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों की चर्चा करते समय हम लोगों ने देखा है कि उन्हें साधारणत: आस्तिक और नास्तिक वर्गों में रखा जाता है। वेद को प्रामाणिक मानने वाले दर्शन को ’आस्तिक’ तथा वेद को अप्रमाणिक मानने वाले दर्शन को ’नास्तिक’ कहा जाता है। आस्तिक दर्शन छ: हैं जिन्हें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त कहा जाता है। इनके विपरीत चावार्क, बौद्ध और जैन दर्शनों को ’नास्तिक दर्शन’ के वर्ग में रखा जाता है। इन दर्शनों में अतिशय आपसी विभिन्नता है। किन्तु मतभेदों के बाद भी इन दर्शनों में सर्वनिष्ठता का पुट है। कुछ सिद्धान्तों की प्रमाणिकता प्रत्येक दर्शन में उपलब्ध है। इस साम्य का प्रमुख कारण प्रत्येक दर्शन का विकास एक ही भूमि ‘भारत’ में हुआ है, यह कहा जा सकता है। एक ही देश में पनपने के कारण इन दर्शनों पर भारतीय प्रतिभा, निष्ठा और संस्कृति की छाप अमिट रूप से पड़ गयी है। इस प्रकार भारत के विभिन्न दर्शनों में जो साम्य दिखाई पड़ते हैं, उन्हें ‘भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताएँ’ कहा जाता है। ये विशेषताएँ भारतीय विचारधारा के स्वरूप को पूर्णत: प्रकाशित करने में समर्थ हैं। इसीलिये इन विशेषताओं का भारतीय दर्शन में अत्यधिक महत्त्व है। अब हम लोग एक- एक कर इन विशेषताओं का अध्ययन कर सकते हैं। इसी आधार पर हम भारतीय दर्शन के प्रमुख लक्षणों की भी चर्चा करते हैं। यहाँ के दार्शनिकों ने संसार को दुख:मय माना है। दर्शन का विकास ही भारत में अध्यात्मिक असंतोष के कारण हुआ है। रोग, मृत्यु, बुढ़ापा, ऋण आदि दु:खों के फलस्वरूप मानव मन में सदा अशान्ति का निवास रहता है। बुद्ध का प्रथम आर्य सत्य विश्व को दु:खात्मक बतलाता है। उन्होंने रोग, मृत्यु, बुढ़ापा, मिलन, वियोग आदि की अनुभूतियों को दु:खात्मक कहा है। जीवन के प्रत्येक आयाम में मानव दु:ख का ही दर्शन करता है। उनका यह कहना कि दु:खियों ने जितने आँसू बहाये हैं, उसका पानी समुद्र जल से भी अधिक है। यह उनके जगत के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है। बुद्ध के प्रथम आर्यसत्य से सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, शंकर, रामानुज, जैन आदि सभी दर्शन सहमत हैं। सांख्य ने विश्व को दुःख का सागर कहा है। विश्व में तीन प्रकार के दु:ख हैं — आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। आध्यात्मिक दु:ख शारीरिक और मानसिक दु:खों का दूसरा नाम है। आधिभौतिक दु:ख बाह्य जगत के प्राणियों- जैसे पशु और मनुष्य से प्राप्त दुःख होते हैं। इस प्रकार के दु:ख के उदाहरण चोरी, डकैती, हत्या आदि कुकर्म के रूप में देखे जाते हैं। आधिवैदिक दु:ख वे दु:ख हैं जो अप्राकृतिक शक्तियों से प्राप्त होते हैं, जैसे- भूत, प्रेत, बाढ़, अकाल, भूकम्प आदि से प्राप्त दु:ख इसके उदाहरण हैं। इस प्रकार यहाँ के प्रत्येक दार्शनिक ने संसार का क्लेशमय चित्र उपस्थित किया है। संसार के सुखों को वास्तविक सुख समझना अदूरदर्शिता है। भारतीय दर्शनों ने विश्व की सुखात्मक अनुभूति को भी दु:खात्मक कहा है। उपनिषद और गीता जैसे दार्शनिक साहित्यों में विश्व की अपूर्णता की ओर संकेत किया गया है। लेकिन यह भाव जागरण ही वास्तविक सुख और सुख का कारण है; क्योंकि ऐसा मानना और जानना ही निवृत्ति का मार्ग है; क्योंकि ऐसा मानना और जानना ही ईश्वर के माया जगत से विलग भाव को देखना है; क्योंकि ऐसा मानना और जानना ही ब्रम्ह को मानना और जानना है। यही निवृत्ति ही वास्तविक सुख है।

डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र