लगभग 135 करोड़ की आबादी वाले देश में संसाधन, नीतिगत प्रोत्साहन, अवस्थापनात्मक सुविधाओं जलवायु तथा विभिन्न क्षेत्रों जैसे – सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी), कृषि आधारित खाद्य प्रसंस्करण, हल्के इंजीनियरिंग सामान, खेल के सामान, कपड़ा, चमड़ा आधारित सामान, पर्यटन और जैव प्रौद्योगिकी में निवेश ही नहीं, अन्य विकासपरक प्रक्रियाओं की गति हेतु उपयुक्त अवसर आज उपलब्ध है। देश में अच्छी तरह से विकसित सामाजिक, भौतिक और औद्योगिक बुनियादी ढांचा खड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्गों, हवाई अड्डों और सभी प्रमुख शहरों के लिये रेल लिंक के माध्यम से गमनागमन की अच्छी व्यवस्था और सुचारू हुई है। इतना ही नहीं, राज्य राजमार्गों का भी व्यापक गुणात्मक एवं मात्रात्मक विस्तार हुआ है। पेयजल, आवासीय भवन निर्माण, स्वक्षता अभियान, उज्जवला योजना जैसी अनेक केन्द्रीय एवं राज्य सरकार की योजनाओं का व्यापक नियोजन द्वारा उन्हें देश भर में लागू किया गया और किया जा रहा है। देश ने हाल के दिनों में बुनियादी ढांचे के विकास की उच्च दर देखा है। बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में औद्योगिक समूहों/केन्द्रों और सार्वजनिक-निजी-भागीदारी (पीपीपी) परियोजनाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। व्यापक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित हुआ है। सौर ऊर्जा उत्पादन बढ़ाने के लिये, निजी निवेश को आकर्षित करने के उद्देश्य से सौर ऊर्जा नीति लागू की गयी है। देश में 2020-21 तक 50 लाख से अधिक घरों के निर्माण के साथ प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घरों का तेज निर्माण दर्ज किया गया है। निवेश का लक्ष्य पूरी तरह आईटी, डेयरी, इलेक्ट्रॉनिक्स, पर्यटन, विनिर्माण, अक्षय ऊर्जा, कृषि और खाद्य प्रसंस्करण जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर केन्द्रित है। प्रत्येक जिले में न्यूनतम एक इनक्यूबेटर स्थापित करना या समर्थन करना और कम से कम 10,000 स्टार्टअप के लिये एक पारिस्थितिकी तन्त्र बनाने का लक्ष्य पूरा हो, इसके लिए पूर्ण प्रयास जारी है। यहां हमें समग्र विकास, ग्रामीण विकास, शहरी विकास के भेद को भी और इनके बीच साहचर्य को भी एक साथ समझना होगा।
उपरोक्त विवेचन से कोई भी स्वतः समझ सकता है कि, समृद्धि या संरचनात्मक विकास केवल शरीर को सुख प्रदान कर सकता है; लेकिन संतुष्टि पाने के लिये वस्तुगत विकास की कोई आवश्यकता नहीं होती। वस्तुगत विकास, वस्तुगत अधिकार की मांग करता है और वही संघर्ष का कारण बनता है। किसी भी व्यक्ति, किसी भी समाज और यहां तक कि किसी भी देश का विकास सहयोग एवं संघर्ष दोनों से होता है। वस्तुगत विकास, संघर्ष की मांग करता है; क्योंकि वहां अधिकार भाव जागृत होता है। संतुष्टि, त्यागमय भाव है और इसी कारण यह संघर्ष की अपेक्षा सहयोग को महत्वपूर्ण मानता है। अवस्थापनात्मक सुविधाओं के विकास के साथ साथ यदि कोई सरकार स्वक्षता, निर्मलता, प्रेम, भाईचारा, दया आदि का भाव पैदा करने वाले योजना एवं कार्यक्रम ले आती है; इसका आशय है कि वह समग्र विकास की पोषक है। यदि कोई सरकार समान नागरिक संहिता, समान नागरिक कानून, भेदभाव रहित समाज निर्माण, प्रकृति से सहकार स्थापित करने वाले कार्यक्रम चला रही है तो इसका आशय है कि वह समग्र विकास की दिशा में है। समन्वित अथवा समेकित अथवा समग्र विकास से आशय ‘समृद्धि’ एवं ‘संतुष्टि’ के समन्वय से है। इन्हें स्थूल और सूक्ष्म विकास के समन्वय से भी जानते हैं। जो केवल सन्तुष्ट होकर रह लेना चाहता है, उसे समृद्धि नहीं मिल सकती और जो केवल समृद्धि की इच्छा रखता है, उसे संतुष्टि नहीं मिल सकती। यहां यह बात ध्यान रखिये कि लोक या संसार या लौकिक जगत या मानव या जीव जगत, इनमें से केवल किसी एक के सहारे नहीं चल सकता है; यदि चलेगा तो उसकी आयु लम्बी नहीं होगी। दुनिया में अर्थात भारत के बाहर केवल समृद्धि को विकास का आधार माना गया है और इसीलिये वहां केवल इस बात पर ध्यान रहता है कि समृद्धि कितनी, किसका, कैसा? संसाधन कितना, किसका, कैसा? सम्पत्ति कितना, किसका, कैसा? आदि। भारत में ऐसा नहीं है और न ऐसा था; आज भारत में जो भी विसंगति है, वह इसी कारण है कि यहां भी कुछ लोगों ने वही करना चाहा, जो भारत के बाहर होता रहा है।
अनेक बार अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक मन्दी से जोड़कर देखा जाता है और दुर्भाग्य से अर्थव्यवस्था के समूचे तन्त्र को अर्थशास्त्र का विषय बना दिया जाता है। ऐसे में अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों नियमों एवं संकल्पनाओं के आलोक में समूची अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन विवेचन एवं विश्लेषण किया जाता है। भारत से बाहर दुनिया में मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली अनवरत प्रभावी रही है और जब से मुद्रा को ही अर्थशास्त्र का और अर्थशास्त्र को अर्थ-व्यवस्था का केन्द्रीय विषय मान लिया गया या बना दिया गया, तभी से अर्थशास्त्र ही अर्थ-व्यवस्था का केन्द्रीय विषय बन गया और अर्थ-व्यवस्था का वास्तविक अर्थ तिरोहित होता गया। जिसके कारण यह शब्द और इसका अर्थ क्रमशः संकुचित अर्थ ग्रहण करता चला। दुनिया में मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली पूँजीवादी एवं साम्यवादी दोनों प्रकार की आर्थिक प्रणालियों के कारण आया और तात्कालिक सुविधा एवं आकर्षण के कारण एवं भारत में भी लागू करने के कारण हमारा देश भी उस दिशा में चल पड़ा। देश के आजाद होते समय देश में मिश्रित अर्थ-व्यवस्था को लागू करना भारत में मुद्रा आधारित विनिमय का बीजरोपण कर गया और बाद में वैश्वीकरण की काल्पनिक दुनिया ने भारत को भी अपने आगोश में ले लिया। जहाँ तक अर्थव्यवस्था शब्द का प्रश्न है, यह दो शब्दों से मिलकर बना है- अर्थ और व्यवस्था। लेकिन अर्थशास्त्र में व्यवस्था के पक्ष को लेकर अर्थात समाज आधारित सभ्यता और इससे उपजे माननीय एवं जैविक सम्बन्धों के लिये कोई स्थान नहीं है। यदि स्थान है भी तो उसका भी मूल्यांकन मुद्रा आधारित ही किया जाता है और बिना जाने समझे उसी को प्रश्रय देने का प्रयत्न होता है। मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली हमेशा उपलब्ध अर्थ के आधार पर व्यवस्था के संचालन का कार्य करती है एवं मुद्रा के मूल्यवान या अवमूल्यन होने पर अर्थ का और फिर समाज संस्कृति एवं देश का ढाँचा चरमराने लगता है; लेकिन वस्तु एवं सेवा आधारित विनिमय प्रणाली, व्यवस्था के अनुसार अर्थ का संयोजन करती है। विषय यह है कि हमें अर्थ के अनुसार व्यवस्था चाहिये या व्यवस्था के अनुसार अर्थ चाहिये? मुद्रा आधारित अर्थशास्त्र ने दुनिया में वैश्वीकरण, निजीकरण एवं उदारीकरण के नाम पर अर्थव्यवस्था को और भी खोखला अदूरदर्शी एवं अमानवीय बना दिया। परिणामस्वरूप व्यक्ति एवं समाज की मानसिकता प्रत्येक वस्तु एवं सेवाओं का मूल्यांकन मुद्रा में करने लगी और मुद्रा में किसी चीज का मूल्यांकन जैविक और मानवीय पक्ष को भी मुद्रा में मूल्यांकन करने के लिये प्रेरित करने लगा। इसके कारण न केवल समाज एवं परिवार टूटने लगे, बल्कि स्वयं व्यक्ति भी अपने अन्तरतम से खण्डित होता गया; अवसाद तनाव एवं आत्महत्या के वशीभूत हो गया। क्योंकि सकारात्मक सामाजिक सरोकार और मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध व्यक्ति को अवसाद एवं तनाव में जाने से रोकते हैं।
वस्तु एवं सेवा आधारित विनिमय प्रणाली में मुद्रा की आवश्यकता होती ही नहीं है; इसलिये मुद्रा रहित विनिमय प्रणाली का अधिकतम उपयोग किसी भी परिवार समाज एवं राष्ट्र के सुखद स्थायी एवं दूरदर्शी अर्थ-व्यवस्थागत भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है। ऐसे समाज एवं देश में अर्थव्यवस्था सम्बन्धी- मन्दी एवं मंहगाई आदि जैसे विडम्बना पूर्ण अर्थशास्त्र के नियम की न तो उपादेयता रहेगी और न ही इस तरह के संकट का सामना करना पड़ेगा। ऐसे संकट के ना आने से ही स्वदेशी का, स्वावलम्बन का, परस्परावलम्बन का एवं परिवार समाज देश आत्मनिर्भरता की तरफ उन्मुख होगा और वह आत्मनिर्भरता परस्परावलम्बन पर निर्भर करेगी। समग्र विकास एवं ग्रामीण विकास की कल्पना आप बिना वस्तु आधारित विनिमय प्रणाली के नहीं कर सकते। जो लोग यह कहते हैं मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली आसान सहज एवं सरल है- पहली बात तो यह केवल एक मानसिक दशा है; दूसरा जिस तन्त्र का अभ्यास हो जाता है, वही सहज और सरल होता है; तीसरा मनुष्य होने के कारण हमारा अपने के अतिरिक्त औरों के प्रति भी उत्तरदायित्व है, उसके निर्वहन में यदि मुद्रा आधारित विनिमय प्रणाली सहज एवं सरल भी है तो, वह अन्यायपूर्ण है। अनेक बार यह भी विषय आता है कि, स्वदेशी है क्या? हम स्वदेशी चीजों का उपयोग कैसे करें? हमारे देश में यह वस्तु पैदा होती है, वह नहीं होती। इसमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि स्वदेशी का भाव स्वयं द्वारा उत्पादित, पड़ोसी द्वारा उत्पादित, हमारे समाज द्वारा उत्पादित, हमारे देश में उत्पादित, हमारे मित्र देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं से है। स्वदेशी से अभिप्राय स्वावलम्बन से है, अर्थात जिस पर हम अवलम्बित हो सकते हैं, अर्थात जो हमसे अवलम्बित हो सकता है, अर्थात जिससे हम सहयोग और सहायता ले या दे सकते हैं तथा जिसके कारण सम्बन्ध में साहचर्य तथा सहकारिता का भाव प्रबल हो सकता है। जिस प्रकार स्वदेशी को स्वावलम्बन और स्वावलम्बन को स्वदेशी आधार प्रदान करता है; ठीक उसी प्रकार परस्परावलम्बन, आत्मनिर्भरता को और आत्मनिर्भरता परस्परावलम्बन को आधार प्रदान करता है।
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
प्रोफेसर, भूगोल
बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कुशीनगर
(दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय)
युगवार्ता, नई दिल्ली के 01 से 15 सितम्बर 2022 के अंक में प्रकाश्य।
