बिहार की राजनीति की बिसात

 

वास्तव में बिहार स्वतन्त्रता आन्दोलन की दृष्टि से संघर्ष का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। चम्पारण सत्याग्रह के बाद गांधी एक बड़े नेता बन गये; उन्होंने स्थानीय नेता राज कुमार शुक्ल के बार-बार अनुरोध पर चम्पारण सत्याग्रह आरम्भ किया था और उन्हें डॉ राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह और ब्रजकिशोर प्रसाद जैसे महान विभूतियों का समर्थन प्राप्त हुआ था। बिहार, यदुनन्दन प्रसाद मेहता, बाबू जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा जैसे महान समाज सुधारकों एवं नेताओं की भूमि भी रही है। सन 1946 में बिहार की पहली सरकार का नेतृत्व दो प्रतिष्ठित नेताओं बाबू श्रीकृष्ण सिंह और बाबू अनुग्रह नारायण सिंह ने किया था; जो अखण्डता और सार्वजनिक भावना के व्यक्ति थे। देश की स्वतन्त्रता के बाद, सत्ता को इन दो गांधीवादी राष्ट्रवादियों डॉ श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह द्वारा साझा किया गया, जो बाद में बिहार के पहले मुख्यमन्त्री और पहले उप-मुख्यमन्त्री बने। रेलमन्त्री स्वर्गीय ललित नारायण मिश्र (जो एक हथगोले के हमले से मारे गये, जिसके लिये तत्कालीन केन्द्रीय नेतृत्व को सबसे अधिक दोषी ठहराया जाता है) की मृत्यु के बाद 60 के दशक के अन्त में स्वदेशी उन्मुख जन नेताओं के अन्त की शुरुआत हुई। दो दशकों तक कांग्रेस ने राज्य पर शासन किया; यह वह समय था जब बाबू सत्येन्द्र नारायण जनता पार्टी के साथ होकर कांग्रेस के साथ अपने मतभेदों के कारण वे अपने लिये राजनीतिक स्थान बनाने में सफल रहे। इसके पश्चात 1970 के दशक में बिहार में जातिवादी मानसिकता राजनीतिक सत्ता के लिये मुखर हो गयी। नेतृत्व तीन मध्यवर्ती कृषि जातियों द्वारा किया गया। दरोगा प्रसाद राय की मुख्यमन्त्री के रूप में नियुक्ति के बाद, पिछड़ों के बीच और कौतूहल दिखायी पड़ा। लेकिन कांग्रेस के एक गुट ने कांग्रेस के प्रति असन्तोष पैदा करने के लिये उन्हें हटाने की साजिश रचनी शुरू कर दिया; जबकि इस तरह की राजनीति शुरू करने का खेल भी स्वयं कांग्रेस ने ही किया था। इस अवधि में एक प्रभावशाली नेता जगदेव प्रसाद का उदय हुआ, जो अपने ‘जाति’, अन्य पिछड़ों और दलितों के बीच लोकप्रिय हुए और एक राजनीतिक पार्टी ‘शोषित समाज दल’ बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में उभड़ कर आयी, जो बाद में कांग्रेस के ही समर्थन से थोड़े समय के लिये सत्ता में आई। सतीश प्रसाद सिंह, जो जगदेव प्रसाद के रिश्तेदार थे, बिहार के पहले जातिवाद के परखनली से उत्पन्न मुख्यमन्त्री थे। बिहार आन्दोलन के एक भाग का नेतृत्व करते हुए बिहार में ही जगदेव प्रसाद के मारे जाने के बाद, उनकी मृत्यु को लेकर रहस्य बढ़ गया; क्योंकि पिछड़ों के बीच सन्देह था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक मन्त्री के इशारे पर जगदेव प्रसाद की जान गयी।

 

जब भारत इन्दिरा गांधी के शासनकाल में एक निरंकुश शासन में गिर रहा था; तब चुनाव कराने का आन्दोलन बिहार से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आया सामने आया। सन 1974 में, जेपी ने बिहार राज्य में एक बिहार आन्दोलन’ के नाम से एक लोकप्रिय छात्र आन्दोलन का नेतृत्व किया। इस आन्दोलन के दौरान, जयप्रकाश नारायण ने वी एम तारकुण्डे के साथ मिलकर शान्तिपूर्ण सम्पूर्ण क्रान्ति का आह्वान किया। उन्होंने 1974 में सिटीजन फॉर डेमोक्रेसी और 1976 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, नामक दो गैर-सरकारी संगठनों की स्थापना किया। फलस्वरूप 23 जनवरी 1977 को इन्दिरा गांधी ने नये सिरे से चुनाव स्वीकारा और सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया तथा आपातकाल आधिकारिक रूप से 23 मार्च 1977 को समाप्त हुआ। कांग्रेस पार्टी को, 1977 में बने कई छोटे दलों के जनता पार्टी गठबन्धन के हाथों हार का सामना करना पड़ा और गठबन्धन मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सत्ता में आई। बिहार में, जनता पार्टी ने जेपी की सलाह से 1977 के आम चुनावों में सभी चौबीस लोकसभा सीटें जीतकर बिहार विधानसभा में भी सत्ता हासिल किया। तत्कालीन जनता पार्टी के अध्यक्ष सत्येन्द्र नारायण सिन्हा से एक प्रतियोगिता जीतने के बाद कर्पूरी ठाकुर मुख्यमन्त्री बने। बिहार आन्दोलन के अभियान ने सिद्ध किया कि चुनाव ‘लोकतन्त्र और तानाशाही’ के बीच चयन करने का उनको अवसर और अधिकार है। सन 1977 में एक लहर ने कांग्रेस पार्टी को हराया और फिर 1989 में जनता दल पुनः कांग्रेसी भ्रष्टाचार विरोधी लहर के कारण सत्ता में आई। बीच में, समाजवादी आन्दोलन ने महामाया प्रसाद सिन्हा और कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में यथास्थिति के गढ़ को तोड़ने की कोशिश किया। एक तरफ यह इन नेताओं के अव्यवहारिक आदर्शवाद के कारण और दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय नेताओं की स्वयंभू मानसिकता के कारण पनप नहीं सका; क्योंकि कांग्रेस, राजनीतिक रूप से जागरूक राज्य द्वारा खतरा महसूस करती थी। बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1939 में हुआ था। सन 1960, 1970 और 1980 के दशक में बिहार में कम्युनिस्ट आन्दोलन ताकतवर था और सभी प्रबुद्ध समूहों का प्रतिनिधित्व करता था। यह एक प्रकार से सरकार के नेतृत्व में, अकांग्रेसी शक्तियों ने जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में सम्पूर्ण क्रान्ति लड़ी; क्योंकि तत्कालीन स्थिति में आन्दोलन लोकतान्त्रिक था।

 

चूंकि क्षेत्रीय पहचान और मुद्दा आधारित विकास तथा प्रगति धीरे-धीरे तिरोहित होती गयी; इसलिये इसका स्थान जाति-आधारित राजनीति ने ले लिया। बिहार की राजनीति में जाति की भूमिका का जहां तक प्रश्न है; बिहार के सर्वोच्च नेता लालू यादव और नितीश कुमार के पूर्व भी बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है और इसके लिये कांग्रेस पूरी तरह से जिम्मेदार है; जिसने अपनी राजनीति के लिये समाज को तोड़ा, लड़ाया और एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया। श्रीकृष्ण सिंह के कार्यकाल में भूमिहारों और राजपूतों के बीच जातिगत संघर्ष देखा गया, क्योंकि दोनों ही बिहार में राजनीतिक रूप से प्रमुख जाति थे। यह वह समय था जब पूरा देश खाद्यान्न की कमी और गरीबी की व्यापक समस्याओं का सामना कर रहा था। बिहार जैसे राज्य बुरी तरह प्रभावित थे और उन्हें बीमारू राज्य की श्रेणी में रखा जाता था। यहां जातियां अपने राजनीतिक अधिकारों के लिये शुरू से ही लड़ रही थीं और इसका बीज वपन राजनीतिक लाभ लेने के लिये कांग्रेस ने किया। पहले तो हिन्दुओं को तीन भागों क्रमशः उच्च वर्ग अर्थात सवर्ण, माध्यम वर्ग अर्थात पिछड़ा वर्ग और तीसरा निचला अर्थात अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजाति में बांटा और पहले तथा तीसरे को एक साथ लेकर कांग्रेस ने अपनी तीसरे चरण की राजनीति शुरू कर दिया। कांग्रेस की पहले चरण की राजनीति अंग्रेजों की चाटुकारिता से स्वयं को स्थापित करना था; दूसरे चरण में प्रायोजित तरीके से सत्ता को अंग्रेजों से प्राप्त करना था। यहां यह ध्यान रखना होगा कि अंग्रेजों से सत्ता का हस्तांतरण देश को नहीं, कांग्रेस और नेहरू- गांधी परिवार को हुआ था; इसलिये देश 1947 में स्वाधीन तो हुआ, स्वतन्त्र नहीं। उपरोक्त के कारण बिहार में पिछड़े वर्ग में असंतोष उभड़ा, जिसका फायदा बिहार में वामपंथियों ने उठाया। बिहार में जे पी आन्दोलन इसी का परिणाम था। सन 1930 के दशक में यदुनंदन प्रसाद मेहता, जगदेव सिंह यादव और शिवपूजन सिंह द्वारा त्रिवेणी संघ की स्थापना उच्च पिछड़ी जातियों में बढ़ती जागरूकता के संकेत थे। बिहार आन्दोलन से पहले के दशक में कृषि जातियों में मुख्य रूप से कोइरी और यादव जाति के बीच राजनीतिक उग्रवाद एवं टकराव का भी दौर चला। जगदेव प्रसाद जैसे नेता बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिये आगे आये। जगदेव प्रसाद का नियोजित अन्त पिछड़ी जाति के लिये कांग्रेस से मध्य या पिछड़े वर्ग के पूर्ण प्रस्थान का कारण बनी। चौथे और पांचवें विधानसभा चुनावों में राजनीतिक सत्ता के लिये उच्च जातियों और उच्च पिछड़ी जातियों के बीच खींचतान देखा गया, जब एक छोटी सी अवधि में आधा दर्जन मुख्यमंत्री आये और गये। बिहार में साम्यवादी उग्रवाद, मूल में कांग्रेस द्वारा सम्पूर्ण हिन्दू समाज का वोटबैंक का राजनीतिक विभाजन था। इस दौरान कई कम्युनिस्ट संगठन बिहार में स्थापित हुए और कांग्रेस द्वारा विभाजित तीसरे धड़े अर्थात तीसरे समूह को भी अपने प्रभाव में लेना शुरू कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टियों ने भूमिहीन दलितों और गरीब किसान जातियों का समर्थन ‘उच्च जातियों’ और ‘उच्च पिछड़ी जाति’ के जमींदारों के खिलाफ किया। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कोइरी, कुर्मी और यादव जातियों का एक बड़ा हिस्सा भी जमींदारों का था, लेकिन इन जातियों की महत्वपूर्ण आबादी मध्यवर्ती किसान थे, जो अपनी जमीन पर काम करते थे और दूसरों की भूमि पर काम करना अपनी गरिमा से विरुद्ध मानते थे।

 

जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल विरोधी आंदोलन के दौरान बिहार की पिछड़ी जातियां एकजुट हुईं। इसी के बाद से बिहार में पिछड़ी जातियों के प्रभुत्व वाली राजनीति का उभार हुआ। शरद यादव, लालू यादव और नीतीश कुमार इन जातियों का नेतृत्व कर रहे थे। इस राजनीति के उभार के बाद बिहार में कांग्रेस द्वारा विभाजित पहली और तीसरी श्रेणी की जातियाँ अहम खिलाड़ी नहीं रहीं; इनके राजनीतिक मैदान से बाहर हो जाने के बाद जेपी और राममनोहर लोहिया को अपना गुरु मानने वाले लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच ही प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। दोनों नेताओं ने जातियों के अलग-अलग समूहों का गठन किया। जातियों के इस नये गठबन्धन में छोटे जाति समूहों की वफादारी बदलती रही। इस राजनीति में भाजपा, तीनों समूहों को एकजुट करने के उद्देश्य से हिन्दुत्व की राजनीति के साथ सामने आई और सभी जातियों को प्रतिनिधित्व देने को तैयार दिखी। पिछड़ी जातियों के प्रभुत्व वाली राजनीति में बीजेपी ने अप्रासंगिक हो चुकी ऊंची जातियों को आकर्षित करते हुए पहचान की नई राजनीति को उभारना शुरू किया। राजनीति के इस नए खेल में कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों का धरातल खिसकता गया। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की छटपटाहट का कारण यही है। उनसे पुराने पिछड़े समाज का भी विश्वास उठ चुका है। एक तरफ लालू जी यादव एवं मुस्लिम तो नीतीश जी कुर्मी एवं मुस्लिम मतदाताओं के भरोसे अपनी गाड़ी पार करना चाहते हैं। ये दोनों तीन तरफ लड़ रहे हैं; एक तरफ ये भाजपा से, दूसरी तरफ अघोषित रूप से आपस में और तीसरी तरफ जे पी एवं लोहिया आन्दोलन से लड़ रहे हैं। कहने के लिये ये जे पी और लोहिया के चेले हैं; लेकिन व्यवहार में अपने निजी अहंकार तथा स्वार्थ में चेलेपन से पलायन कर चुके हैं। कांग्रेस और वामपन्थ इनमें अपनी खोई जमीन तलाशते थक चुके हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो समय बतायेगा; लेकिन सच यह है कि, कांग्रेस एवं वामपन्थ खो चुकी जमीन ढूंढ रही है और लालू एवं नितीश जमीन खो न जाय, इस भय से परेशान हैं। जहां तक भाजपा का प्रश्न है, अभी तक उसे बहुत कुछ हासिल हुआ है, बहुत कुछ हासिल करना है और बहुत कुछ हासिल कर लेने की सम्भावना है।

 

डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र

युगवार्ता, नयी दिल्ली के 16 से 30 सितम्बर के अंक में प्रकाशित।