नीति राजनीतिक राजनैतिक

 

किसी भी परिवार, राज्य, राष्ट्र में नीति कृत्रिम रूप से बनती भी है और स्वाभाविक रूप से विकसित भी होती है। यहाँ किसी चीज के सरकारीकरण या गैर सरकारीकरण का विषय नहीं है। परिवार- राज्य- राष्ट्र को इन दोनों (कृत्रिम नीति एवं स्वाभाविक रूप से विकसित नीति) के युग्म से चलना भी चाहिये और संविधान भी इन दोनों के आधार पर बनना चाहिये। राजनीति केवल नीति का निर्माण कर सकती है; नीति का स्वाभाविक विकास नहीं कर सकती। राज्यनीति और राजनीति, दो अलग- अलग चीजें हैं। राज्यनीति, राजनीतिक भी हो सकती है और राजनैतिक भी। परिवारनीति, राज्यनीति, राष्ट्रनीति के आधार एवं व्यवहार एक ही होते हैं। इनका साहचर्य, यदि शिक्षानीति, गृहनीति, रक्षानीति, विदेशनीति, अर्थनीति के क्रम में पञ्चनीतिक रूप में हों, तो परिवार में, समाज में, राज्य में, राष्ट्र में भी कभी कोई समस्या नहीं आ सकती है। किसी भी राज्य के लिये, ये पञ्चनीतियाँ, शरीर सञ्चालन के लिये पञ्चकर्म जैसे और राष्ट्र के सञ्चालन के लिये पञ्चप्रण जैसे होते हैं।

 

यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि राजनीतिक और राजनैतिक, शब्द आपस में पर्यायवाची नहीं हैं। राजनीतिकता में नीति और अनीति दोनों का स्वाभाविक समावेश होता है; जबकि राजनैतिकता केवल नीति से चलती है। अनेक बार राजनैतिक को भी राजनीतिक होना पड़ता है; क्योंकि उसे राजनीति से स्पर्धा करके राजनैतिकता की स्थापना करनी होती है। यह उसके आत्मबल पर निर्भर करता है कि, स्थापना हो जाने के बाद, वह अपने मूल स्वरूप में लौट पाता है या नहीं!

 

शब्दों के उपयोग में दूरदर्शिता का परिचय देना चाहिये; क्योंकि संस्कृत एवं हिन्दी भाषाशास्त्र में ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में प्रत्येक शब्द अपना अलग तथा विशेष अर्थ, प्रयोग एवं उपयोग धारण करता है। अभारतीय विचार एवं सिद्धान्त में पर्यायवाची और प्रतिलिपि या इसके रूपान्तरण का प्रयोग होता है; क्योंकि वहाँ शब्द और शब्दों के अर्थ सीमित हैं। भारतीय विचार एवं सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति में कोई भी शब्द, तत्व, जीव, पदार्थ पर्यायवाची नहीं होते; प्रतिलिपि भी नहीं होते; सभी स्वयं में अनूठे और विलक्षण होते हैं। यहाँ शब्द, ब्रह्म है; क्योंकि आप जो भी उच्चारण करते हैं, उस उच्चारण से एक निश्चित प्रकार की ध्वनि निकलती है, उस ध्वनि से नाद होता है; नाद होने पर ही हमें वह उच्चारण कर्ण स्पर्शी अर्थात सुनायी पड़ता है। अर्थात उच्चारण के बाद नाद तक शब्द का स्वरूप अस्तित्व में होकर भी अदृश्य या अमूर्त या सूक्ष्म होता है। नाद की प्रतिध्वनि प्रकृति में उँकार के रूप में प्रकट होती है अर्थात उँकार प्रकृति के सूक्ष्म और स्थूल दोनों स्वरूप का एक साथ प्रकटीकरण है।

 

प्रकाशित लेख।

 

डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र

प्रोफेसर एवं स्तम्भकार