सामान्यतया सत्ताबोध के तीन स्वरूप होते हैं। पहला, सत्ता का अहंकार (नशा); दूसरा, सत्ता का अधिकार और तीसरा, सत्ता का कर्तव्य। जहाँ- जहाँ सत्ता का अहंकार होगा, वहाँ- वहाँ सत्ता की निरंकुशता रहेगी; जहाँ- जहाँ सत्ता का अधिकार भाव रहेगा, वहाँ- वहाँ अहम ब्रह्मश्मि की स्थिति रहेगी और जहाँ- जहाँ सत्ता का कर्तव्य भाव रहेगा, वहाँ- वहाँ वास्तविक प्रजातान्त्रिक या लोकतान्त्रिक मानवीय सत्ता संचालित होगी। हमारा दुर्भाग्य यह है कि 1947 में देश के आजाद होते ही, जिन सत्ताधारियों को सत्ता मिली, उनके अन्दर सत्ता का अहंकार और सत्ता का अधिकार भाव तो जगा और स्थापित हुआ; लेकिन सत्ता के कर्तव्य भाव का लोप हो गया। वह अहंकार आया इसलिये कि ‘हमने देश को आजाद कराया है, इसलिये हमें सत्ता मिलनी चाहिये और इसीलिये हमें कुछ भी करने का अधिकार है।’ यही देश के साथ और देश के वास्तविक लोक के साथ बड़ी गलती हो गयी। इसमें दोषी वे लोग माने जाने चाहिये, जिन्होंने देश के आजादी के समय कुछ लोगों को सत्ता का हकदार मान लिया और जिनको सत्ता मिली, उन्होंने अपने को स्वयंभू तरीके से स्थापित किया कि हमने ही देश को आजाद कराया है। इस कारण उन आरम्भिक सत्ताधारियों के अन्दर सत्ता का अहंकार भी आया और सत्ता का अधिकार भी कुलाँचे मारने लगा। येसे में निरंकुशता आयी। उनके अन्दर वह निरंकुशता अपने दल के उन लोगों के प्रति भी दिखी, जिनसे उनको सत्ता का खतरा दिखाई पड़ा; विपक्ष में उनके प्रति दिखा, जिनसे सत्ता का खतरा था और यह निरंकुशता उस लोक या जन के प्रति भी दिखी, जिनसे भय था कि वे हमें समय आने पर कभी भी सत्ताच्युत कर सकते हैं। इस लोक के प्रति दो प्रकार से निरंकुशता प्रभावी हुई, एक भय दिखाकर और दूसरा लोभ दिखाकर। अभी – अभी जो राजस्थान में सांसद मीणा जी के साथ हुआ, यह इसी प्रवृत्ति के कारण हुआ है। आप यह भी कहिये कि, इसी प्रकार की प्रवृत्ति के शिकार लालबहादुर शास्त्री जी, ललित नारायण मिश्र जी, राजशेखर रेड्डी जी, राजेश पायलट जी, माधवराव सिन्धिया जी आदि जैसे राजनेता भी हुए। इस प्रकार के शिकार बहुत से विपक्षी भी हुए हैं। देश में आपातकाल भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति का परिणाम था। सत्ता के अधिकार की आवश्यकता पड़ती जरूर है; लेकिन उस अधिकार का कर्तव्य के साहचर्य के बिना उपयोग गलत होता है। सत्ता के अहंकार की तो कभी आवश्यकता पड़ती ही नहीं है।
सत्ता का खेल, सत्ता के अधिकार भाव को प्रकट करे या ना करे; लेकिन सत्ता के कर्तव्य या उत्तरदायित्व भाव को जरूर प्रकट करना चाहिये। सत्ता को इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि हमको (सत्ताधारी को) किन कारणों से किन लोगों ने चुना है? उन कारणों का मूल्यांकन करना सत्ता का दायित्व जरूर है; क्योंकि उन्हीं कारणों से किसी क्षेत्र विशेष में विपक्ष का कोई व्यक्ति या दल भी चुना जाता है। लेकिन विपक्ष को उन कारणों के मूल्यांकन का कोई अधिकार नहीं होता; सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच यह प्रमुख अन्तर है। उदाहरण के लिये, जिन कारणों से किसी दल या समूह- दल की सत्ता या सरकार बनी है और उसकी लोकप्रियता कायम हुई है; उतना ही मूल्यवान यह बात जानना भी है कि कोई विपक्षी जनप्रतिनिधि भी उसी प्रकार के किन्हीं एक या अधिक कारणों से चुना गया है। अन्तर केवल इतना है कि स्वयं के साथ- साथ विपक्ष के भी चुने जाने के कारणों के मूल्यांकन का भी अधिकार सत्ताधारी को होता है; लेकिन विपक्ष को नहीं; क्योंकि सत्ताधारी को नियमों कानूनों और मर्यादाओं के पालन का नैतिक उत्तरदायित्व भी निर्वहन करना होता है। यदि कोई जनप्रतिनिधि अपने धनबल, बाहुबल, भयबल से लोक का समर्थन प्राप्त कर जनप्रतिनिधि बना है, तो सत्ता को हक है कि उसके गिरेबान में हाथ डालकर भविष्य के लोकमूल्य की स्थापना करे; जिससे पुनः कोई उन्हीं बलों के आधार पर जनप्रतिनिधि न चुन लिया जाय! सत्ता निरंकुश है या नियमों तथा मर्यादाओं के प्रतिकूल व्यवहार करने वाली है या नियमों एवं मर्यादाओं का पालन कराने वाली है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सत्ता की लोकप्रियता समाज अथवा लोक में कितनी है। यदि सत्ता लोकप्रियता के आधार पर आयी है और उस लोकप्रियता का अनवरत पालन करने के आधार पर संचालित हो रही है, तो इसका स्पष्ट आशय है कि सत्ता अपने अधिकारों को नहीं, बल्कि अपने कर्तव्यों या उत्तरदायित्वों के बोध के आधार पर चल रही है तथा सत्ता का अधिकार उस कर्त्तव्यबोध का अनुसरण कर रहा है।
सवाल यह नहीं है कि वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार या वर्तमान राजस्थान सरकार क्या और कैसे सत्ता का संचालन कर रही है? वह संचालन लोकहित में है अथवा नहीं है? सवाल यह है कि जो जनप्रतिनिधि चुने गये और वे सत्ता पक्ष के नहीं हैं; यदि सत्ता या सरकार उनके विरुद्ध कठोर व्यवहार करती है, तो इसका स्पष्ट आशय है कि, सत्ता अपनी ही लोकप्रियता पर प्रश्न खड़ा कर रही है! राजस्थान में एक सांसद के साथ जिस प्रकार सत्ता और सत्ता की पुलिस ने दुर्व्यवहार किया, वह मर्यादित नहीं था। उस दुर्व्यवहार के पीछे का हेतु यह था कि उस सांसद की लोकप्रियता अधिक थी और सांसद अपने चुने जाने के कारणों के आधार पर अपनी गतिविधियाँ चला रहे थे। सत्ता को जब यह प्रतीत होता है कि जिस लोकप्रियता के आधार पर लोक ने हमारा चुनाव किया है और अब हम उसी लोकप्रियता का वहन लोकहित में नहीं कर पा रहे हैं; बल्कि विपक्ष या कोई विपक्षी उस लोकप्रियता को क्रमशः धारण करता जा रहा है, तो वह सत्ता अपने में सुधार करने के बजाय निरंकुशता की ओर प्रवृत्त होती है; यह भी निरंकुशता का हेतु बनता है। लेकिन यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि यदि अलोकप्रिय विपक्ष या किसी विपक्षी के विरुद्ध कोई कार्य या कार्यवाही सत्ता कर रही है; जो विपक्ष पहले से ही अलोकप्रिय है और अपनी अलोकप्रियता को छिपाने के लिये नियम या मर्यादा के विरुद्ध कार्य कर रहा है तो वह निरंकुशता नहीं कही जा सकती। वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार और राजस्थान की प्रदेश सरकार के बीच यह मूलभूत अन्तर है। राजस्थान सरकार जिनके विरुद्ध कार्यवाही कर रही है? क्या उन्होंने कभी कहीं धनबल बाहुबल आदि का उपयोग किया है? क्या उनके विरुद्ध कभी कोई आपराधिक मामला या न्यायिक मामला है? उत्तर है, नहीं! अर्थात वहाँ सत्ता के लिये निरंकुशता का प्रयोग हो रहा है। ठीक येसा ही प्रश्न बनता है कि उत्तर प्रदेश सरकार जिनके विरुद्ध कार्यवाही कर रही है? क्या उन्होंने कभी कहीं धनबल बाहुबल आदि का उपयोग किया है? क्या उनके विरुद्ध कभी कोई आपराधिक मामला या न्यायिक मामला है? उत्तर है, हाँ! अर्थात वहाँ सत्ता के लिये निरंकुशता का प्रयोग नहीं हो रहा है।
यदि किसी जनप्रतिनिधि के विरुद्ध अनेक आपराधिक मुकदमें, अनेक न्यायिक मामले चल रहे हैं, लोक उनसे भयग्रस्त रहता है, उस जनप्रतिनिधि के पास अचानक बहुत अधिक सम्पत्ति इकट्ठी हो गई है या बहुत सी चल- अचल सम्पत्ति एसी है, जिसका कोई आधार या पत्रजात आदि उपलब्ध नहीं है; तो वह जनप्रतिनिधि सत्तापक्ष का है या विपक्ष का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सत्ता का वहाँ दायित्व हो जाता है कि न केवल उससे जुड़े मामलों का मूल्यांकन कर कार्यवाही करे; बल्कि उसके जनप्रतिनिधि चुन लिये जाने के कारणों का भी मूल्यांकन कर यथोचित कार्यवाही करे। यदि उत्तर प्रदेश की सरकार किसी की हत्या के आरोप में किसी जनप्रतिनिधि के विरुद्ध कार्यवाही कर रही है तो स्वाभाविक है कि उस जनप्रतिनिधि के अन्य सभी प्रकार की गतिविधियों का मूल्यांकन होगा और तत्सम्बन्धी कार्यवाही भी होगी ही; चाहे वह जनप्रतिनिधि प्रयागराज का हो या मऊ का हो या चाहे कहीं का भी हो! इसलिये यदि कोई देश में अराजकता या खराब माहौल की बात कर रहा है तो उसे उक्त के आलोक में चीजों का मूल्याँकन करना चाहिये। जो किसी पूर्वाग्रह में उक्त बातें कर रहा है; निश्चित रूप से वे उसी मानसिकता से पीड़ित है, जो देश की आजादी के समय मानसिकता हावी थी। इस कारण निरंकुशता, अनिरंकुशता के भेद को ही केवल नहीं समझना चाहिये; बल्कि भेद के कारणों को भी समझना चाहिये और लोक तथा जन के व्यापक हित में कार्य व्यवहार करना चाहिये। यदि लोक की इस भावना का ठीक ध्यान नहीं रखा जा सकता तो लोकतन्त्र के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा। मूल्याँकन करना होगा कि, वास्तविक अर्थों में जिस लोकतन्त्र की बात भारत में की गयी और जिस लोकतन्त्र की बात राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने वैशाली के सम्बन्ध में किया था; क्या हम उस लोकतन्त्र की दिशा में हैं?
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
प्रोफेसर एवं स्तम्भकार
