कुम्भ महोत्सव की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

सृष्टि और सृष्टि के जीव या किसी भी तत्व के निर्माण तीन अवस्थाएँ सर्वविदित हैं। निर्माण या सृजन का आरम्भ, निर्माण या सृजन की प्रक्रिया और निर्माण या सृजन की पूर्णता। सृष्टि का शून्य होना; मतलब समाप्त होना नहीं होता। इसका आशय होता है- विस्तार, अनन्त, नभ, आकाश अर्थात अनिवार्य और अकल्पनीय विस्तार। शून्य, बिन्दु का उद्घाटन, विस्तारक और पूर्णता का भी नाम है, साथ ही बिन्दु, उन तीनों अवस्थाओं का बोधक या प्रकटीकरण भी है। जब बिन्दु विस्तार पाता है तो वह शून्य की तरफ अग्रसर होता है। बिन्दु रूप में विद्यमान किसी इकाई को जब आप उसके स्वभाव के अनुरूप चतुर्दिक फैलाएंगे, तो वह शून्य या छिद्र या होल की तरफ अग्रसर होता है। शून्य अर्थात जिसमें क्षेत्र होता है। छिद्र अर्थात जिसमें से आप झाँकिया देख सकते हैं। आपको दिखाई कितना पड़ता है, आपकी देखने की क्षमता कितनी है, यह अलग बात है। विज्ञान के आधुनिक सिद्धान्त ब्लैकहोल, जो कि सूर्य के केन्द्र की ऊर्जा अर्थात शून्यता अर्थात सम्पूर्णता अर्थात पूर्णता और समग्रता में विलीन होने से है और उसके साथ एकाकार होकर उसके अनुसार विलीन हो जाने से सम्बन्धित है। यह छिद्र भी उसी बिन्दु और शून्य का भौतिक रूप है। अणुओं और परमाणुओं की संरचना से लेकर, जीवन का आधारभूत वायुमण्डलीय सतह ओजोन की संरचना में भी ऑक्सीजन के तीन अणुओं के मेल का विधान या नियम हैं। जीवन की प्राणवायु ऑक्सीजन के ग्रहण और दूसरे रूप में निस्तारण के दौरान भी इनका आगमन और निर्गमन गोलाकार और वृत्ताकार या शून्य आकर स्वरूप में ही जीव जगत द्वारा होता है। जब आप शून्य के बीच से सुदूर झाँकिये और आपकी देखने की जहाँ तक दृष्टि जाती है, किसी लौकिक अवरोध के कारण वहीं तक आपकी दृष्टि होगी। किन्तु यदि आपकी दृष्टि को किसी अवरोध का आसरा नहीं मिला तो आपकी दृष्टि उस शून्य मार्ग से अनन्त की तरफ देखती हुई चली जाती है; जहाँ सब कुछ दिखाई देकर भी कुछ नहीं दिखाई पड़ता और कुछ नहीं दिखाई पड़कर भी, सब कुछ का बोध होता है या दिखाई पड़ता है।
आज से लगभग 10,000 वर्ष पूर्व, सनातन चिरन्तन पुरातन भारतीय दर्शनशास्त्र गणित और विज्ञान के इस वास्तविक निष्कर्ष के बाद; 1859 में प्रकाशित चार्ल्स डार्विन की पुस्तक ‘ओरिजिन ऑफ द स्पेसीज’ की तीनों आधारभूत मान्यताएँ जीन म्यूटेशन (आनुवंशिक उत्परिवर्तन), नेचुरल सलेक्शन (प्राकृतिक चयन), सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट (सशक्ततम का वर्चस्व) कहीं ठहरती नहीं हैं, अर्थात बचकानी लगती हैं अर्थात खारिज हो जाती हैं। भारतीय दर्शनशास्त्र गणित और विज्ञान के इस वास्तविक नियम कि गहराई में जब आप जाइए तो आपके सामने आधुनिक विज्ञान की एक और काल्पनिक, गलत एवं पूर्वाग्रही मान्यता की भी नींव हिल जाती है कि ‘एवरी एक्शन हैज इट्स ओन रिएक्शन’; क्योंकि जिस दर्शन ने गणित और बाद में चलकर विज्ञान की विभिन्न शाखाओं को जन्म दिया है; उसके अनुसार सृष्टि या प्रकृति के नियम के कारण की दो अवस्थाएं होती हैं। पहला, सशर्त या कण्डीशनल अर्थात् यह होगा तो यह होगा और दूसरा शर्त रहित या अनकण्डीशनल अर्थात चाहे जो भी हो, यही होगा। इन दोनों दृष्टियों से एवरी एक्शन हैज इट्स ओन रिएक्शन गलत सिद्धान्त है।
भारतीय विद्या परम्परा में कलश को कुम्भ कहा जाता है। कुम्भ का अर्थ होता है घट या घड़ा। जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है; यह शून्य और उस अनन्तता का बोधक है, जिसकी ऊपर चर्चा की गई है। सृष्टि के प्रत्येक ठोस द्रव और गैसीय अवस्था का मूल स्वरूप बिन्दु ही है। जैसे द्रव चाहे जल या रक्त ही क्यों न हो, आधार भाग या विभाजन की आधारभूत इकाई बूँद ही है। ठोस की आधारभूत इकाई अणु, जिससे आप ज्ञान बघारते हुए नैनो पार्टिकल कहिए या सहजता में लघुतम कण कह दीजिये। गैस की आधारभूत इकाई भी अणु या कण पर ही आधारित है। ऑक्सीजन जिसे हम सर्वाधिक आधारभूत एवं जीवनदायिनी गैस कहते हैं, में दो कणों का युग्म होता है। इतना ही नहीं सूर्य की पराबैगनी किरणों से रक्षा करने वाले जीवन रक्षक ओजोन नामक गैस की परत का भी तीन कणों के मेल से निर्माण होता है।आशय यह है कि सृष्टि की मूल संरचना बिन्दु आधारित है और उसका विस्तार अनन्त शून्य है। यह बात जो हम कह रहे हैं, यह सब भारत की प्राचीन आर्ष परम्परा द्वारा दर्शन गणित और विज्ञान के सम्बन्ध में बताये गये, ज्ञान और विद्या के अधिष्ठान का शिखर बिन्दु है और वहीं से मार्गदर्शन लेकर मैं यह सब बात कह रहा हूँ या कह पा रहा हूँ।
पृथ्वी के उत्पत्ति के आज के तथाकथित सिद्धान्त जिन बातों की चर्चा कर रहे हैं या करते हैं; वे सभी निर्माण और विध्वंस की भी चर्चा करते हैं। निर्माण और विध्वंस प्राकृतिक सृष्टि की स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है। यही बात महाद्वीपों महासागरों और फिर पर्वतों पठारों मैदानों और सभी प्रकार के प्राकृतिक तत्वों के निर्माण और उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी बतायी जाती रही है और बताई जा रही है। यह सब विगत सौ, डेढ़ सौ वर्षों में दुनिया ने बताया है। यह वास्तव में भारत की विगत साल से अधिक की ज्ञान और विद्या या दूसरे शब्दों में कहें तो दर्शन गणित विज्ञान की नकल करके नई पैकिंग के साथ दुनिया को आधुनिक विज्ञान बताकर भरोसा गया है और परोसा जा रहा है। यह भी आधुनिक विज्ञान ने बताया है कि सृष्टि या पृथ्वी के निर्माण के पहले चरण के बाद पैंजिया नाम के विस्तृत भूभाग और पैंजिया के चतुर्दिक पैंथालासा नाम के विस्तृत सागरीय भाग का अस्तित्व आया। आगे चलकर और दृश्य प्राकृतिक शक्तियों अर्थात निर्माण और विध्वंस की शक्तियों के प्रभाव से पैंजिया में खिंचाव तनाव और संकुचन से यह टूटकर वर्तमान उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की ओर सरकने से क्रमशः गोण्डवानालैण्ड और अंगारालैण्ड का निर्माण हुआ और पुनः क्रमिक प्रक्रिया से अगले चरण में विभिन्न महद्वीपों और महासागरों पर्वतों पठारों मैदानों नदियों झीलों आदि का तथा उसके अगले चरण में जीव जगत के पोषण और सम्वर्धन हेतु विभिन्न प्रकार की मानव या जीव, जल, वायु, वनस्पति, ऊर्जा, खनिज आदि संसाधनों का निर्माण हुआ।
इसी बात को भारतीय दार्शनिक परम्परा में दैवी अर्थात निर्माण और आसुरी अर्थात विध्वंस या संघारक शक्तियों के बीच संघर्ष या समुद्र मन्थन कहा गया है। समुद्र की तली अर्थात पैंथालाशा की तली में और पैंजिया के नीचे इसी समुद्र मन्थन से जीव जगत के संचालन हेतु अमृत के कलश का प्रकटीकरण हुआ। यही कलश संसाधनों के उत्पत्ति का हेतु और कारण बना और इसीलिये भारत में पूजा अनुष्ठान रीति रिवाज में इसी कलश को केन्द्र मानकर सभी संसाधनों को सांकेतिक रूप से उपयोग करते हुए संकल्प आदि वैज्ञानिक पद्धतियों का विकास और प्रचलन हुआ है। इसी अमृत कलश को पाने के लिये ही दैवी या निर्माण और आसुरी या संघारक शक्तियों के बीच संघर्ष हुआ और उस संघर्ष के परिणामस्वरूप सृष्टि और जीव जगत के संचालन हेतु दैवी शक्तियों को जो विजय प्राप्त हुई उसी के फलस्वरूप हम कुम्भ महोत्सव मनाते हैं।अमृत का मूल स्रोत या आधार जलागार या सागर है। इन्हीं से विभिन्न संसाधनों का निर्माण हुआ है, जिनको आधुनिक संसाधनों- मानव जल वन वायु मिट्टी ऊर्जा और खनिज के द्वारा वैदिक रीति से कुम्भ या येसे ही किसी उत्सव में संकल्प प्रदान करने और पुण्य आदि का विधान है। पवित्र जल में विभिन्न मुख्य तिथियों पर स्नान करके हम पुण्य आरोग्य और दीर्घायु का फल प्राप्त करते हैं। पवित्र और मुख्य तिथियों का सम्बन्ध, सूर्य की पृथ्वी सहित सभी ग्रहों और उपग्रहों पर पड़ने वाली किरणों के साथ तथा ग्रहों के आपस में एक दूसरे पर प्रभाव और स्थान के आधार पर तय होता है। क्योंकि सभी ग्रह सूर्य के सापेक्ष एक निश्चित कक्षा से निश्चित समयावधि में परिक्रमा करते हैं। इस पर इस महोत्सव का सम्बन्ध समुद्र मन्थन से निकले अमृत कलश से जुड़ा है।
दैवीय या निर्माणक और आसुरी या विध्वंसक यह संघारक शक्तियों द्वारा अमृत पान के लिये जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीना जा रहा था अर्थात संसाधनों पर अपना-अपना अधिकार जमाने का प्रयास किया जा रहा था; तब महाद्वीप या स्थलीय भूभाग पर विस्तीर्ण, उसकी बूँदें छिटककर धरती की तीन नदियों गंगा गोदावरी और छिप्रा में छिटककर गिर गई। जहाँ जब ये बूँदें गिरी थीं, उस स्थान पर तब कुम्भ का आयोजन होता है। अर्ध का अर्थ है, आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अन्तराल में अर्धकुम्भ का आयोजन होता है; क्योंकि हरिद्वार और प्रयाग दोनों स्थानों पर एक ही नदी गंगा के तट पर कुम्भ के पर्व का आयोजन होता है। पौराणिक और प्राचीन भारतीय शास्त्रीय वैज्ञानिक ग्रन्थों में भी कुम्भ एवं अर्धकुम्भ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है। ज्योतिषशास्त्र अब तक का सर्वाधिक वैज्ञानिक और प्राचीन तर्कयुक्त धर्मशास्त्र है। कुम्भ पर्व हर तीन वर्ष के अन्तराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। हरिद्वार के बाद कुम्भ पर्व प्रयाग नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। प्रयाग और हरिद्वार में मनाये जाने वाले कुम्भ पर्व में एवं प्रयाग और नासिक में मनाये जाने वाले कुम्भ पर्व के बीच तीन वर्ष का अन्तर होता है। यहाँ माघ मेला संगम पर आयोजित एक बार का वृहद कुम्भ समारोह होता है। सृष्टि, घट या कुम्भ के प्राकट्य की दिव्यता की गहराई में जब आप जायेंगे तो आपको इसके वास्तविक स्वरूप का एहसास होगा। कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है। क्योंकि यह सृष्टि निर्माण के दूसरे हिस्से या चरण अर्थात सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा है।
एक बात सदैव ध्यान में रखना चाहिये कि श्रेष्ठ निर्माण का आरम्भ बिन्दु से और उस निर्माण की पूर्णता अर्थात शून्य से होती है। किन्तु निर्माण की प्रक्रिया के दौरान यह बिन्दु विभिन्न प्रकार की अवस्थाओं व्यवस्थाओं स्वरूपों और आकृतियों से होकर गुजरता है। इसी प्रक्रिया से यह अनेक बार रेखा द्विभुज त्रिभुज चतुर्भुज शटभुज आदि का भी रूप ग्रहण करता है। इस क्रम में आप आकृतियों को अनेक बार गेंद के समान, अनेक बार नारंगी के समान, अनेक बार अण्डे के समान या पृथ्वी के समान अर्थात इसको पृथिव्याकार ही क्यों न मान लें! इसी कारण पृथ्वी नामक ग्रह पर अन्य ग्रहों के प्रभाव और सृष्टि के अनुसार आकृतियों की निर्मित होती है और इसी के अनुसार इन कुम्भ पर्वों के समय का भी निर्धारण होता है। कुम्भ पर्व के दार्शनिक गणितीय और वैज्ञानिक प्रमाण तो सृष्टि की उत्पत्ति के प्रक्रिया के द्वितीय चरण से ही उपलब्ध है; किन्तु इसमें पर्व के महत्त्व से सम्बन्धित प्रथम साहित्यिक और कलात्मक प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसाँग के लेख में मिलता है; जिसमें उसने छठवीं शताब्दी पूर्व में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले भारतीय कुम्भ महोत्सव का प्रसंगवश वर्णन किया है। उसने उल्लेख किया है कि कुम्भ मेले का आयोजन चार जगहों पर प्रत्येक तीन वर्ष में होता है। उक्त चार स्थानों पर प्रत्येक तीन वर्ष बाद कुम्भ आयोजित होता है।
प्रश्न यह है कि किसी एक स्थान पर प्रत्येक 12 वर्ष बाद ही कुम्भ का आयोजन होता है। जैसे प्रयाग में कुम्भ का आयोजन हो रहा है तो उसके बाद अब तीन वर्ष बाद नासिक में, फिर अगले तीन वर्ष बाद उज्जैन और फिर अगले तीन वर्ष बाद हरिद्वार में कुम्भ का आयोजन होगा। सिंहस्थ कुम्भ का सम्बन्ध सिंह राशि से है। सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेघ राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर उज्जैन में कुम्भ का आयोजन होता है। इसके अलावा सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुम्भ पर्व का आयोजन गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। किसी भी महाकुम्भ को उत्सव के रूप में ही क्यों मनाते हैं? क्योंकि यह योग 12 वर्ष बाद ही आता है। इस कुम्भ के कारण ही यह धारणा प्रचलित हो गयी कि मेले का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष में होता है। हरिद्वार के कुम्भ का सम्बन्ध वृश्चिक राशि से है। कुम्भ राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर एवं मेघ राशि में सूर्य के प्रवेश होने पर कुम्भ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है। प्रयाग के कुम्भ का भी विशेष महत्त्व इसलिये है; क्योंकि यह 12 वर्ष के बाद गंगा यमुना एवं सरस्वती के संगम पर आयोजित होता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जब बृहस्पति कुम्भ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है; तब कुम्भ मेले का आयोजन प्रयाग में होता है। दूसरे नियम से मेष राशि के चक्र में बृहस्पति एवं सूर्य और चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुम्भ का पर्व प्रयाग में आयोजन का आरम्भ होता है। बारह वर्ष में एक बार सिंहस्थ कुम्भ पर्व नासिक एवं त्रयम्बकेश्वर में आयोजित होता है। सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुम्भ पर्व गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। अमावस्या के दिन बृहस्पति सूर्य एवं चन्द्र के कर्क राशि में प्रवेश होने पर भी कुम्भ पर्व गोदावरी तट पर आयोजित होता है। उज्जैन का कुम्भ सिंह राशि में बृहस्पतिवार एवं मेष राशि में सूर्य के प्रवेश होने पर यह कुम्भ आयोजित होता है। इसके अलावा कार्तिक की अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र के साथ होने पर एवं बृहस्पति के तुला राशि में प्रवेश होने पर भी मोक्षदायक कुम्भ उज्जैन में आयोजित होता है।
समुद्र मन्थन की कथा में कहा गया है कि कुम्भ पर्व का सीधा सम्बन्ध तारों से है। अमृत कलश को स्वर्गलोक तक ले जाने में जयन्त को 12 दिन लगे थे। देवों का 1 दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। युद्ध के दौरान सूर्य चन्द्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा किया था। इसीलिये इनके युग्म और समीकरण का भी कुम्भ से सम्बन्ध है। अमृत की ये बूँदें चार जगह गिरी थीं। गंगा नदी प्रयागराज एवं हरिद्वार में; गोदावरी नदी, नासिक में और शिप्रा नदी उज्जैन में। सभी नदियों का सम्बन्ध गंगा से है। गोदावरी को गोमती, गंगा के नाम से और क्षिप्रा नदी को भी उत्तरी गंगा के नाम से जाना जाता है। इसी क्रम में यहाँ गंगा गंगेश्वर की आराधना स्कन्ध ब्रह्मा स्कन्धपुराण में स्पष्टता से की गयी। विन्ध्यस्य दक्षिणी गंगा, गौतम ने उत्तरी विन्ध्यस्य भागीरथ को विधियते एवं मुक्तदा गंगा कलया वन संस्था गंगेश्वर कहा जाता है। सनातन पद्धति के अनुसार भारत में मनाये जाने वाला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक पर्व या उत्सव या त्यौहार या कुम्भ मेला होता है।
वर्ष 2019 में प्रयाग में अर्धकुम्भ मेले का आयोजन नैमित्तिक और पारम्परिक दोनों दृष्टियों से हुआ था। खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्राति के दिन से प्रारम्भ होता है। जब सूर्य और चन्द्रमा वृश्चिक राशि में और बृहस्पति मेष राशि में प्रवेश करते हैं तथा सूर्य उत्तरायण होना आरम्भ होते हैं। मकर संक्राति के दिन होने वाले इस योग को कुम्भ स्नान योग कहते हैं। इस दिन को विशेष मांगलिक योग इसलिये माना जाता है; क्योंकि इस दिन पृथ्वी से उच्च योगों के द्वारा अर्थात उत्तरायण का आरम्भ इसी दिन से होता है। इस दिन स्नान करना साक्षात स्वर्ग का दर्शन माना जाता है। अर्ध का अर्थ होता है आधा; इसी कारण 12 वर्षों के अन्तराल में आयोजित होने वाले पूर्ण कुम्भ के बीच अर्धपूर्ण कुम्भ के छह वर्ष बाद अर्द्धकुम्भ आयोजित होता है। हरिद्वार में 26 जनवरी से 14 मई 14 तक पिछला कुम्भ चला था। अर्धकुम्भ मेला उत्तरांचल राज्य के गठन के पश्चात ऐसा प्रथम अवसर था। ज्योतिषी और पौराणिक विश्लेषणों के अनुसार ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पैड़ी स्थान पर गंगा जल औषधि का निर्माण करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है।
सागर मन्थन से जुड़े कुम्भ पर्व के आयोजन को लेकर दो तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं; जिनमें देव दानव द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृतकुम्भ से अमृत की बूँदों के गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वाषा के श्राप के कारण जब इन्द्र और अन्य देवता कमजोर हो गये तब दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया। तत्पश्चात सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गये और उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया। भगवान विष्णु ने उन्हें दैत्यों के साथ मिलकर छीरसागर का मन्थन करके अमृत निकालने की सलाह दिया। भगवान विष्णु का ऐसा कहने पर सभी देवता के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गये। इसी हेतु दैवी और आसुरी लोगों के लिये अप्रकट सृष्टियों अर्थात निर्माण और विध्वंसक शक्तियाँ समुद्र मन्थन में लग गयीं। अमृत कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे पर इन्द्र पुत्र जयन्त, अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लाने के लिये जयन्त का पीछा किया और काफी देर के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ लिया। जैसा कि ऊपर वर्णित है जयन्त को पकड़ने के पश्चात् अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिये देवताओं और दानवों में 12 दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। जिस समय चन्द्र आदि देवताओं तथा अन्य ग्रहों आदि ने कलश की रक्षा किया था, उस समय वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र और सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष जिस राशि पर सूर्य चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष और उसी राशि के योग में जहाँ जहाँ अमृत की बूँद गिरी थी, वहाँ वहाँ कुम्भ पर्व का आयोजन किया जाता है।

डॉ० कौस्तुभ नारायण मिश्र
प्रोफेसर, भूगोल,
बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कुशीनगर
24 Dec 2024