तथ्य और प्रमाण इस बात के साक्षी हैं कि भारत में बीते लगभग डेढ़ सौ वर्ष से तुष्टिकरण की नीति का पालन एक वर्ग विशेष को ऊंचा बताने और दूसरे को नीचा दिखाने के लिये किया जाता रहा है। तुष्टिकरण की भारत में नींव का मुख्य कारण था कि जब उपनिवेशवादी 1857 में यह समझ गये कि उन्हें देर सबेर भारत छोड़ना पड़ेगा तो उन्होंने तीन कार्य किया। पहला, मूल भारत वंशियों में जातिगत वैमनस्य फैलाया और इसके लिये भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों को जिम्मेदार बताकर लोगों के मन – मस्तिष्क में यह बैठा दिया कि जातिगत संघर्ष होता रहे। दूसरा, भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के माध्यम से ऐसा नेतृत्व खड़ा कर दिया, जो सही अर्थों में तो उपनिवेशवादियों के हितों की रक्षा करे, लेकिन दिखाई यह पड़े कि वह भारत एवं भारतीयों के हितों की रक्षा कर रहा है; जिससे भारतीय लोग उनके पीछे घूमते तथा उनका अनुसरण करते रहें। यह अलग बात है कि कुछ सच्चे देशभक्त स्वतन्त्रता सेनानी इसमें छिपी बात को 1902 के बाद या देर से समझ सके। तीसरा, देश को पंथ एवं मजहब के नाम पर विभाजित करने की योजना बनाया और उसमें तुष्टिकरण का तड़का लगा दिया। अपने निजी हित साधन में कुछ नेता इस अलगाव को स्वीकार करने हेतु आगे भी बड़े और उनके मोंहपास में फंसकर कुछ नेताओं ने निजी हित का छिपकर साथ दिया और दिखाया कि वे विभाजन से बहुत दुखी हैं और इसी कारण विभाजन को लेकर कभी आमरण अनशन या सत्याग्रह पर नहीं गये; बल्कि विभाजन के नाम पर अलग बन रहे देश को मूल भारत से न केवल काफी धन दिलवाया; बल्कि उनके हितों के लिये नोवाखली, पेशावर, लाहौर आदि के नरसंहार होने दिया। कटे जलाये और अपमानित किये शव भारत भेजे जाते रहे। जिससे उनको लोग उदारमना, सहिष्णु आदि कहते रहें। भारत में विगत तीन सौ वर्ष से शब्दों की गलत परिभाषा करके तिकड़म या जबरदस्ती उस परिभाषा को स्थापित करने का प्रयास किया जाता रहा है। धर्मनिरपेक्षता (जो वास्तव में पंथनिरपेक्षता है) और इसकी परिधि पर सहिष्णुता एवं तुष्टिकरण जैसे शब्दों को येसे भौड़े तरीके से परिभाषित करके स्थापित किया गया कि गन्दे प्रवृत्ति के लोगों को लगता है कि वे इन शब्दों के माध्यम से जन्नत की सैर करने जा रहे हों।
भारत में 1857 के तत्काल बाद ही तुष्टिकरण और सहिष्णुता की रद्दी परिभाषा गढ़कर, भारत को भारत न रहने देने के लिए, उस गन्दी परिभाषा को स्थापित करने का पूरा प्रयास हुआ और वह प्रयास उपनिवेशवादी मानसिकता के भारतीयों द्वारा 1885, 1915, 1931, 1947 के बाद भी स्थापित करने के सभी हथकंडे अपनाये गये। यह सब उपनिवेशवादियों का प्रिय बने रहने के लिए; सहिष्णुता के बहाने तुष्टिकरण के द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए; वास्तविक भारतीय जनता को गुमराह एवं दिग्भ्रमित करने के लिए तथा देश और राष्ट्र का पिता, चाचा, कायदे आजम आदि बने रहने के लिए प्रायोजित तरीके से किया गया। तुष्टिकरण का सीधा अर्थ यह है कि सौ रुपए मूल्य की चीज को गटर में फेंक दो और दस रुपए के चीज को सीने से लगाकर अच्छे पैकिंग के साथ राजनीतिक बाजारवाद के द्वारा अपना उल्लू सीधा करते रहो। एक सवाल यह है कि जिस परिवार का आठ पीढ़ियों का इतिहास प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात है; उस परिवार ने कोई वाणिज्य व्यवसाय नौकरी खेती आदि नहीं किया तो उनके पास देश एवं दुनिया में हजारों करोड़ की सम्पत्ति कैसे आई? और उन्होंने बिना किसी आधिकारिक आमदनी के उच्चतम भोग एवं विलासिता की चीजें कैसे प्राप्त किया? सत्ता का इतना बड़ा सुख कैसे मिलता रहा, धरातल एवं गरीबी को जाने बिना, बिना किसी लोकप्रियता के चुनाव जीतकर मलाई कैसे खाते – चाटते रहे? उस परिवार और उस परिवार में वैभवहीनता के बाद वैभव कहां से आया? यह सब इसी तुष्टिकरण के कारण, द्विराष्ट्रवाद को स्थापित करने के कारण, फूट डालो राज करो में सहभागी होने के कारण प्राप्त हुआ। बहुसंख्यक की कीमत पर अपल्पसंख्यक के ऊपर सब कुछ न्यौछावर करना; भारतीयता को गाली देने पर पुरस्कृत करने और अभारतीयता की प्रसंशा पर पुरस्कृत करने की नीति को तुष्टिकरण कहते हैं। आप वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, गीता, महाभारत, दुर्गा जी, शंकर जी, राम जी, हनुमान जी आदि को गाली दीजिये, अपमानित कीजिए और पुरस्कृत होइए, सहिष्णू तथा पंथनिरपेक्ष कहलाइए; लेकिन यदि किसी ने पैगम्बर मुहम्मद को, कुरान, हदीश को कुछ कहा तो खैर नहीं? इसी का नाम सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता और कांग्रेसवाद, राष्ट्रपितावाद, चाचावाद कहते हैं।
भारत को इस कुत्सित वाद के प्रत्येक दशा में बाहर आना होगा और बाहर आने की यह छटपटाहट1990 के आसपास से प्रत्यक्ष रूप से शुरू हुई है; 2014 के बाद बाहर आने का रास्ता दिखने तथा बाहर आने की प्रक्रिया शुरू हुई है। इसी कारण वर्षों से उपरोक्त मानसिकता के लोग जो भोग करते आए हैं, उनकी बेचैनी एवं परेशानी बड़ रही है। भारतीय जनता पार्टी के अधिकृत प्रवक्ता द्वारा टी वी चैनल पर पार्टी की नीति एवं निर्देशों के बाहर नहीं बोला जाना चाहिए। भाजपा सर्वपंथ समभाव को मानती है। किसी भी पंथ के लिए हमें उस पंथ को मानने वालों को दुःख देने वाली भाषा, सत्य हो तो भी नहीं बोलना है, ऐसा भारतीय जनता पार्टी के संस्कारों में दिखायी पड़ता है। नूपुर ने इसका उल्लंघन किया, उचित किया या अनुचित? यहां इसका निर्णय नहीं किया जा सकता; लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने अपने संसदीय एवं मर्यादित विवेक के अनुसार उन्हें अधिकतम दण्ड दिया, जिसको उचित एवं नैतिक कहा जा सकता है। किन्तु उसके बाद जो टी वी या समाज एवं सार्वजनिक स्थानों पर देखा गया कि कुछ उग्र प्रदर्शनकारी नूपुर का फोटो अपने जूतों से कुचल रहे हैं एवं उसे गालियाँ दे रहे हैं। नूपुर के खिलाफ कई जगह गैरकानूनी तरीके से कई जगह एफआइआर भी दर्ज हुई है। नूपुर दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ की अध्यक्ष रही हैं एवं उनका सार्वजनिक राजनीतिक जीवन का रिकार्ड काफी अच्छा रहा है। वह इन एफआइआर का सामना भारतीय कानून के माध्यम से कर लेंगी; लेकिन उनके सिर पर एक करोड़ का इनाम रखना, चारों और से उनको मार देने की धमकियाँ, उसके विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों के द्वारा अपने पाँवों के जूतों से उसके फोटो को रोंदना यह हमारी संस्कृति एवं सभ्यता के विरुद्ध है। उन कुत्सित लोगों को बताना चाहिए कि यह कौन सी सहिष्णुता, पंथनिरपेक्षता और तुष्टिकरण है? तुष्टिकरण का पक्षपाती रूप बहुत ही घिनौना एवं विकृत होता है। वह उस कुंठा के कारण उपजता एवं संचालित होता है, जो ईर्ष्या जलन हिंसा जैसे वीभत्स मनोविकारों द्वारा संचालित होता है। सच्चे अर्थों में तुष्टिकरण तब होगा, जब हिन्दू मुस्लिम सब मिलके इस तरह की बेहूदा एवं शर्मनाक हरकतों की निन्दा करें और नूपुर के साथ खड़े हों तथा तभी यह साबित होगा की सांप्रदायिक सद्भाव के लिए हम सब ईमानदार हैं।
वैश्विक स्तर पर इसको लेकर जो कुछ भी हो रहा है, वह भारत की प्रतिक्रिया की दृष्टि से कम, वैश्विक अमेरिकी राजनीति के कारण तथा अमेरिका में ही रिपब्लिकन तथा डेमोक्रेटिक की खींचतान के कारण अधिक है। क्योंकि पत्थर फेंकना, हिंसा फैलाना, आतंकी गतिविधि चलाना, मुहाजिरवाद चलाना, अलगाववादी गतिविधि फैलाना आदि किस तुष्टिकरण, सहिष्णुता, पंथनिरपेक्षता का लक्षण है? इस विषय पर जो भी हायतोबा हो रहा है और नूपुर को लक्ष्य किया जा रहा है; वह अमानवीय, असामाजिक, अराजनीतिक और अराजक स्थिति है। यह उस अभारतीय मानसिकता का द्योतक है, जिसको 1857 से पूर्व; 1857 से 1885 तक; 1885 से 1931 तक; 1931 से 1947 तक और उसके बाद भी नए संस्करण के उपनिवेशवादियों ने पाला पोसा और संचालित किया है। इसको प्रत्येक दशा में देश से शून्य करना जरूरी है। इस दिशा में सरकारी एवं गैरसरकारी दोनों स्तरों पर ठीक से चल रहा है और इसके यशस्वी होने की पूरी सम्भावना है।
डा कौस्तुभ नारायण मिश्र
यह लेख युगवार्ता, नई दिल्ली के 16 से 30 जून 2022 के अंक में प्रकाशित है।
