जेएनयू का जातिवाद
जेएनयू में वामपन्थ के नाम पर जातिवादी साजिश करने वालों को गुरु वशिष्ठ, भगवान श्रीराम, गोस्वामी तुलसीदास को एक साथ; सुदामा चरित्र, भगवान श्रीकृष्ण, भक्त सूरदास जी को एक साथ; स्वामी रामानन्द, भगवान रविदास, सन्त नरहर्यानन्द जी को एक साथ; महाराजा श्याजी राव गायकवाड, बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर, सविता बाई अम्बेडकर जी को एक साथ पड़कर समझकर अपनी अज्ञानता मूर्खता और पूर्वाग्रह से मुक्त हो जाना चाहिये। भारत में जन्म आधारित जातिवाद की बात करना एक मनोरोग है। जाति का विकास एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है; जो जन्म पर नहीं, कर्म पर आधारित है। वामपन्थ एवं अभारतीय विचार ने इसे भारत को तोड़ने और बाँटने के उद्देश्य से जन्म पर आधारित बताकर दुष्प्रचारित किया। भारतीय राजनीति, अभारतीय वैचारिक कुण्ठा से निकलकर, भारतीय वैचारिक परिपक्वता के मार्ग पर चल पड़ी है। गुजरात में आम आदमी पार्टी के मुख्यमन्त्री पद के उम्मीदवार का क्या हाल हुआ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने पर राजनीति के छद्म घोषणाओं की कलई खुल जाती है। मुख्यमन्त्री पद के चेहरे इसुदान गढ़वी को खंभालिया सीट से भाजपा उम्मीदवार के हाथों 18,000 से अधिक मतों से हार मिली है। गुजरात में लगभग 11 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं; लेकिन जीत केवल एक प्रत्याशी की हुई है। भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात की 182 में से 156 सीटों पर विजयी हासिल किया है, जबकि कांग्रेस को मात्र 17 और आम आदमी पार्टी को केवल 5 सीटों से संतोष करना पड़ा है। इसके साथ 4 सीटों पर अन्य ने जीत दर्ज किया है। आशय स्पष्ट है, या तो गुजरात और शेष भारत से तुष्टिकरण की राजनीति का अन्त समय आ गया है अथवा भाजपा की कार्य प्रणाली से मुस्लिम आबादी भी देश की मुख्यधारा से जुड़ना चाहती है अथवा गुजरात और शेष भारत की मुस्लिम आबादी समझ चुकी है कि उसकी मूल वंश परम्परा की जड़ें सौ, दो सौ, तीन सौ वर्ष पहले से भारत में ही है और भारत से बाहर हम मुहाजिर या दोयम दर्जे के नागरिक हैं। देश में तुष्टिकरण की दृष्टि से उपरोक्त तीनों बातें अलग – अलग अथवा एक साथ घटित हो रही हैं। गुजरात विधानसभा का चुनाव परिणाम और भारतीय जनता पार्टी की कार्यशैली इस बात को बहुतायत से प्रमाणित कर रही है। भारत में तुष्टिकरण की राजनीति भी उसी उपरोक्त मानसिकता की उपज है; जिस मानसिकता की उपज जन्म आधारित छद्म जातिवादी व्याख्या है। वास्तव में कोई शब्द, अच्छा या बुरा नहीं होता; उसका उपयोग और दुरुपयोग अच्छा या बुरा होता है और यही बात सर जगह लागू होती है।
यह बात आख्यानों और अन्य प्रमाणों से प्रमाणित है कि राजा दशरथ और उनके पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम छत्रिय वर्ण से थे; रघुकुल से आते थे। उनके अन्दर प्रजा वत्सलता के साथ – साथ छात्र धर्म या छात्र कर्तव्य के निर्वहन की अद्भुत शक्ति एवं सामर्थ्य थी। गुणों की येसी लौकिक एवं अलौकिक शक्ति रामचन्द्र जी में थी कि उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम कहा और माना जाता है। प्रश्न यह है कि उनकी महिमा का, उनकी श्रेष्ठता का, उनके श्रेष्ठ कर्तव्य और गुणों का गान या प्रसार अनन्तकाल से किसने किया है; तो आप गुरु वशिष्ठ से लेकर गोस्वामी तुलसीदास जी तक अनेक नाम ले सकते हैं। सवाल है कि, जिन लोगों ने भी राम जी की महिमा का गान किया है, क्या उन लोगों ने उनके जन्म के कारण किया है या कर्म के कारण? इसी प्रकार गिरधर गोपाल नटवरलाल भगवान श्रीकृष्ण जी के सम्बन्ध में भी यह बात आख्यानों और अन्य प्रमाणों से प्रमाणित है कि वसुदेव जी और देवकी जी के पुत्र गोपाल, ग्वाल बाल थे और यदुकुल से आते थे, यादव जाति से आते थे; उनके घर में दूध दही माखन अर्थात गोपालन का कार्य होता था। उनके अन्दर लोक कल्याण और लोक मंगल का भाव कूट कूटकर भरा था। सबसे प्रेम और भाईचारा से रहते थे। उन्होंने रासलीला रचाया तो गोवर्धन पर्वत भी उठाया; लेकिन कहीं भी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया। उनके अन्दर गुणों की येसी लौकिक एवं अलौकिक शक्ति थी कि उन्हें भगवान श्रीकृष्ण कहा और माना गया। प्रश्न यह है कि उनकी महिमा का, उनकी श्रेष्ठता का, उनके श्रेष्ठ कर्तव्य और गुणों का गान या प्रसार अनन्तकाल से किसने किया है; तो गरीब सुदामा से लेकर भक्त सूरदास जी तक अनेक नाम ले सकते हैं। प्रश्न है कि, जिन लोगों ने भी श्रीकृष्ण जी की महिमा का गान किया है, क्या उन लोगों ने उनके जन्म के कारण किया है या कर्म के कारण?
गुरु रविदास अथवा रैदास मध्यकाल के एक भारतीय सन्त थे; जिन्होंने जात-पात के विरोध में कार्य किया और कहा कि- ‘कर्म से व्यक्ति श्रेष्ठ अथवा अश्रेष्ठ होता है, जन्म से नहीं।’ इन्हें सतगुरु अथवा जगतगुरु की उपाधि दी जाती है। इन्होंने रैदासिया अथवा रविदासिया पन्थ की स्थापना किया। इनके रचे गये कुछ भजन सिख लोगों के पवित्र गुरुग्रन्थ साहिब में भी शामिल हैं। रैदास जी के चालीस पद गुरु ग्रन्थ साहब में मिलते हैं जिसका सम्पादन गुरु अर्जुन देव ने १६ वीं शताब्दी में किया था। गुरू रविदास का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को सम्वत 1398 अर्थात ईस्वी सन 1341 को हुआ। उनके पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसां देवी था और धर्मपत्नी पत्नी का नाम लोना देवी था। भगवान रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। वे जूते बनाने का काम करते थे और अपना व्यवसाय पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे तथा समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। सन्त रामानन्द के शिष्य बनकर उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया। सन्त रविदास जी ने स्वामी रामानन्द जी को कबीरदास जी के कहने पर गुरु बनाया था। स्वामी रामानन्द जी के कुल बारह प्रमुख शिष्य थे, जिनको द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इन बारह में कबीरदास और रविदास जी प्रमुख थे। स्मरण रहे कि स्वामी रामानन्द जी का जन्म ईस्वी सन 1299 में प्रयागराज में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और शरीर त्याग काशी में हुआ था। सन्त रविदास जी के जीवन पर स्वामी रामानन्द जी का व्यापक प्रभाव था। प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद इनके माता-पिता जी ने रविदास जी तथा उनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया था। रविदास पड़ोस में ही अपने लिये एक अलग निवास बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के संगति में व्यतीत करते थे।
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिये जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा- ‘गंगा स्नान के लिये मैं अवश्य चलता, किन्तु गंगा स्नान के लिये जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिये अन्त:करण से तैयार हो, वही काम करना उचित है। मन सही है तो इस कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है, गंगा जी हमारे हृदय में बसती हैं। रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर की भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन एवं निरर्थक तथा ईश्वर की शरणागति को सार्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का मार्ग दिखाया। वे स्वयं ईश्वर के प्रति मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। सभी ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है। उन्होंने कहा कि- ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान का भाव त्यागकर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।’ उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी। आज भी सन्त रैदास जी के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म के आधार पर महान नहीं होता है; बल्कि अपने कर्म, विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। यहाँ प्रश्न यह है कि रविदास जी जन्म से शूद्र थे; लेकिन कर्म आचरण व्यवहार से? प्रश्न यह है कि उनकी महिमा का, उनकी श्रेष्ठता का, उनके श्रेष्ठ कर्तव्य और गुणों का गान या प्रसार अनन्तकाल से किसने किया और किसके सानिध्य में उनके अन्दर वे गुण आये? उनके गुरु ब्राह्मण और उनके सैकड़ों शिष्य ब्राह्मण, जिन्होंने उनके उपदेशों का लोक में प्रसार किया। तो क्या कहेंगे आप?
बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जी बहुत योग्य श्रेष्ठ और विद्वान व्यक्ति थे। उन्होंने सनातन संस्कृति का विरोध नहीं, बल्कि उसका ठीक – ठीक सभी सनातनियों का द्वारा बिना भेदभाव के उपयोग करने पर बल दिया। एक प्रश्न है कि क्या महाराज श्याजी राव गायकवाड़, यदि भीमराव अम्बेडकर जी के जीवन में न आते तो भीमराव जी को बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर और संविधान सभा के प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनने, भारत के पहले कानूनमन्त्री बनने का अवसर मिलता? यद्यपि इतिहास में येसे प्रश्न का विशेष अर्थ नहीं होता; लेकिन उपरोक्त छद्म अभारतीय विचारधारा के कारण यह प्रश्न समीचीन जरूर है। इसलिये समाज को तोड़ने वाली शक्तियों के मुँह में उँगली डालकर यह पूछना चाहिये कि वैमनस्य फैलाने से पहले श्याजी जी राव गायकवाड़ और भीमराव अम्बेडकर जी को एक साथ समझो और जानो, तब कोई बात करो। किसी के भी बारे में झूठ और पूर्वाग्रह मत फैलाओ।
नयी दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में विवाद बढ़ा, वामपन्थियों और भारत तेरे टुकड़े होंगे का नारा देने वाले गिरोह की प्रतिक्रिया में हिन्दू रक्षा दल ने भी मेन गेट पर लिखे कम्युनिस्ट भारत छोड़ो के नारे। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इण्टरनेशनल स्टडीज में जातिसूचक टिप्पणी लिखने के बाद हंगामा मचा हुआ है। जिसमें फूहड़ तरीके से मानव चित्र बनाकर एक दो जातियों को देश छोड़ने की बात कही गयी थी। इसकी प्रतिक्रिया में कम्युनिस्टों की तुलना आतंकी संगठन से की गयी है, जो समाज को तोड़ने और समाज में जहर फैलाने का कार्य करते हैं।
जेएनयू की दीवारों पर ब्राह्मण और बनियों के खिलाफ लिये गये विवादित नारों पर लोगों ने कहा है कि, जेएनयू टुकड़े-टुकड़े गैंग चलाने वाले राजनीतिक दलों का अड्डा बनता जा रहा है। इसी टुकड़े-टुकड़े गैंग की सांठगाठ देश में चल रही है और वे देश को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं; लेकिन येसे लोग भारत में अपने उद्देश्य को सफल नहीं कर पायेंगे। वास्तव में कुछ कट्टरपंथी ताकतें भारत को तोड़ने और कमजोर करने की साजिश में लगी है; उन्हीं लोगों के द्वारा बहुसंख्यकों में दरार पैदा करने के लिये इस तरह के नारे जेएनयू की दीवारों पर लिखे गए हैं। वास्तव में बीते 1 दिसम्बर को सोशल मीडिया पर कई तस्वीरें वायरल हुई थीं। तस्वीरों में दीवारों पर लाल रंग से ‘ब्राह्मणों कैम्पस छोड़ो’, ‘ब्राह्मणों-बनियों हम तुम्हारे लिये आ रहे हैं, तुम्हें बख्शा नहीं जायेगा’ और ‘शाखा लौट जाओ’ जैसे नारे लिखे नजर आये थे। विश्वविद्यालय परिसर में जाति विशेष के खिलाफ लिखी गई इन बातों से जेएनयू एक बार फिर विवादों का माहौल बन गया था। विश्वविद्यालय के कई छात्रों और छात्र संगठनों ने जेएनयू परिसर की दीवारों पर लिखे ब्राह्मण और बनिया विरोधी नारों पर अपनी नाराजगी व्यक्त की है। जिससे विभिन्न छात्र संगठनों में आक्रोश है। नाराजगी का कारण है कि समाज को जिसने जोड़ने सौमनस्य स्थापित करने का कार्य किया, उसी के प्रति विद्वेष फैलाओ, जिससे समाज और देश जल्दी टूटे। अच्छा और बुरा व्यक्ति होता है और वह कहीं भी हो सकता है। यदि किसी में तुमको बुराई दिख रही है तो अच्छाई भी देखो; हो सकता है कि अच्छाई की तुलना में बुराई नगण्य हो या हो ही नहीं। दूसरा भारत में जाति का विकास, अपनी नयी पीढ़ी में अपने कार्य को योग्यता के अभाव के बिना आरोपित करने से हुई है। जैसे बेटे में कलम चलाने का कौशल न हो और उसे कलम पकड़ा दीजिये तो वह फिर लिखेगा नहीं; बल्कि फूहड़ चित्रकारी ही करेगा। जिन्होंने महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखित ग्रन्थों की महिमा का गायन करके न केवल इनको महर्षि और ब्रह्मर्षि सिद्ध किया; बल्कि बिना भेदभाव के कर्म आधारित गुणों का गायन करके किस कुल या किस घर में पैदा हुए, इसका ध्यान त्यागकर औरों को ईश्वरीय आसन के पास बताया। स्वयं उस आसन पर बैठने की चेष्टा नहीं किया! हे अभारतीय मानसिकता वाले अज्ञानियों येसे लोगों को गाली देकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा।
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
प्रोफेसर और स्तम्भकार
