भारत तथा यूरोप-अमेरिका में एक विशेष अन्तर है कि भारत में किसी के भी निजी जीवन को लोगों के द्वारा सार्वजनिक करने का रिवाज है और जब निजी जीवन सार्वजनिक हो जाता है तो निजी जीवन का सार्वजनिक जीवन पर भी सद्प्रभाव या प्रभाव या दुष्प्रभाव पड़ता ही है। यह शुचिता के लिये आवश्यक भी है; क्योंकि आपका निजी जीवन जैसा होगा, उसका सार्वजनिक जीवन पर और सार्वजनिक जीवन का स्वाभाविक रूप से निजी जीवन पर प्रभाव पड़ता ही है। चाहे कोई कुछ भी कर ले, यदि जीव है तो इन दोनों का एक दूसरे से अप्रभावित रह पाना असम्भव है। जबकि यूरोप-अमेरिका आदि में ठीक इसके उलट स्थिति होती है किसी के भी निजी जीवन को लोगों के द्वारा सार्वजनिक करने का रिवाज नहीं है और जब निजी जीवन सार्वजनिक हो जाता है तो निजी जीवन का सार्वजनिक जीवन पर सद्प्रभाव या प्रभाव या दुष्प्रभाव लगभग नहीं के बराबर पड़ता है। वहाँ के लोग निजी एवं सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिये सार्वजनीकरण को आवश्यक नहीं मानते हैं; क्योंकि आपका निजी जीवन जैसा होगा, उसका सार्वजनिक जीवन पर और सार्वजनिक जीवन का निजी जीवन पर स्वाभाविक रूप से प्रभाव नहीं पड़ता है, वहाँ इस प्रकार की मानसिकता है। लेकिन यह मानसिकता ठीक नहीं है। चाहे कोई कुछ भी कर ले, यदि जीव है तो एक दूसरे का अप्रभावित रह पाना असम्भव है।
लेकिन ट्रम्फ के साथ वही हुआ है, जो वहाँ का रिवाज है; सार्वजनिक जीवन, निजी जीवन से प्रभावित नहीं हुआ। चाहे कोई कुछ भी कहता रहे; चाहे तो भारत और दुनिया के मुट्ठी भर वामपन्थी या तृण भर कांग्रेसी, ट्रम्फ के नैतिक एवं आर्थिक चरित्र को लेकर कोई भी किस्सा कहानी कहते रहें, वह खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे से अधिक कुछ नहीं है; क्योंकि उनमें चारित्रिक एवं आर्थिक नकारात्मकता यदि है भी तो, भारत अप्रभावित है। ट्रम्फ के और कंजर्वेटिव पार्टी के शेष बातों का भारत के साथ अच्छा साहचर्य सम्बन्ध समन्वय था, है, रहेगा। भारत में भाजपा विरोधियों, चाहे वामपन्थी हों या पाकिस्तानी मानसिकता के हों या कांग्रेसी मानसिकता के हों, ने डोनाल्ड ट्रम्फ की जीत को भाजपा या मोदी की जीत मान लिया है और कमला हैरिस की हार को अपनी हार; यह उनकी राजनीतिक कूटनीतिक नासमझी का परिचायक है। यह कुल मिलाकर अच्छा और शुभ है। वामपन्थियों की एक बड़ी बीमारी होती है कि वे जिससे असहमत होते हैं, उससे घृणा भी खूब करने लगते हैं। अभी तक वे भाजपा और मोदी से घृणा करते थे; लेकिन अब वे डोनाल्ड ट्रम्फ को उनमें जोड़कर, अपने घृणा के भाव को प्रदर्शित कर रहे हैं और करेंगे। लेकिन चाहे जो भी हो ट्रम्फ के जीतने से जहाँ इजरायल एवं चीन पर सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा; वहीं दूसरी ओर रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ-साथ ईरान पर भी इस जीत का प्रभाव पड़ेगा ही।
बांग्लादेश की स्थिति में भी सुधार की सम्भावना दिख रही है; सम्भव है कि वहाँ के वर्तमान शासक मोहम्मद यूनुस की छुट्टी और शेख़ हसीना की वापसी हो। परिस्थितिजन्य कारणों से डीप स्टेट पर इसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ेगा ही। जहाँ तक अपने देश की स्थिति है, भारत के लिये डोनाल्ड ट्रम्फ का या उससे भी आगे बढ़कर कंजर्वेटिव पार्टी का जीतना सुखद है। यदि आप बीते अमेरिकी चुनाव परिणामों से आश्चर्यचकित हो रहे हैं, तो स्मरण रखना चाहिये कि कमला हैरिस को मुख्यधारा की मीडिया, हॉलीवुड फिल्मी ताकतों तथा अभिजात वर्ग, संगीत की बड़ी हस्तियों तथा पूर्व राष्ट्रपतियों का पूरा समर्थन था; बावजूद इसके कमला हैरिस की हिलेरी क्लिंगटन से भी बदतर हार हुई और हिलेरी दुबारा राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की हिम्मत न जुटा सकीं। अब शायद कमला हैरिस भी येसी हिम्मत न जुटा सकें और डेमोक्रेटिक पार्टी के सामने भी भारत के कांग्रेस वाली स्थिति कहीं न आ जाय। कमला हैरिस न केवल चुनाव हार गयीं, बल्कि लोकप्रिय वोट, सीनेट और सम्भवतः सदन की सीट भी गवाँ बैठी हैं। प्रमुख बात यह भी हुई है कि ट्रम्फ के पास सुप्रीम कोर्ट में भी बहुमत है। भारत में और भारत के बाहर रहने वाले भारत प्रेमी भी, ट्रम्फ की जीत से खुश हैं और उन्हें प्रसन्न होने का प्रत्यक्ष कारण भी है। क्योंकि ट्रम्प के पास भारतीयता वाले तत्व कमला हैरिस की तुलना में बहुत अधिक हैं- जैसे कि विवेक रामास्वामी, तुलसी गबार्ड और वाईस प्रेसिडेण्ट जेडी का भारतीयता से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष जुड़ाव और सम्बन्ध।
डोनाल्ड ट्रम्फ की जीत वास्तव में एक दृष्टि से डीप स्टेट की भी जीत है; क्योंकि जितने को लोग डीप स्टेट समझते हैं; वह उतना ही नहीं है, यह कोई एक छोटी सी इकाई मात्र नहीं है। उसके अलग-अलग अनेक भाग या फलक हैं। उन सबको गैर या अलग- अलग जानकार लोग ‘डीप स्टेट’ एक नाम दे देते हैं। चर्च सबसे बड़ा डीप स्टेट है और ट्रम्फ की विजय में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों प्रकार के चर्च एक हो गये; क्योंकि नीग्रो की बेटी और यहूदी की पत्नी को जिताना, चर्च को नापसन्द था; बराक ओबामा की बात अलग थी और इसी अलग के कारण वे आठ वर्ष तक संयुक्त राज्य अमेरिका पर शासन कर सके थे। वास्तविक अमेरिकी क्रिश्चियन लोगों को लग रहा था कि वहाँ के जो मुख्य धारा के लोग हैं, वे राजनीति से बाहर हो रहे हैं एवं अप्रवासी या बाहरी सफल होते जा रहे हैं; इसलिये उन सबने मिलकर ट्रम्फ को जिताया। यह सही है कि ट्रम्फ के जीत का केवल यही कारण नहीं था; लेकिन एक कारण यह भी जरूर था। इसके साथ यदि अप्रवासी भारतीय उनके साथ न खड़े होते, तो भी उनकी राह कठिन हो जाती। संयोग ही है कि दोनों प्रकार के लोगों ने ट्रम्फ पर ही भरोसा जताया। यहाँ डीप स्टेट परोक्ष रूप से ही सही या मजबूरी में ही सही, भारत के साथ उसे खड़ा होना पड़ा। इसे भारत की कूटनीतिक रणनीतिक वैदेशिक नीति की सफलता कहना चाहिये। ट्रम्फ सच्चे ईसाई होने के साथ- साथ या उससे दस कदम आगे बढ़कर वह एक बिजनेसमैन भी हैं, यह भी सबको समझना चाहिये। लेकिन वे आर्थिक भ्रष्टाचार के मामले में जो बाइडेन से पीछे हैं, यह बात भी प्रमाणित हो चुकी है, जब अनेक सीनेटर इस बात को लेकर सप्रमाण बाइडेन पर राष्ट्रपति रहते हुए आरोप लगा चुके हैं।
यह अलग बात है कि ट्रम्फ अपने समर्थक व्यापारिक समूह को आगे बढ़ायेंगे ही। भारत या भाजपा के नेतृत्व को येसे बिजनेस ग्रुप से डील करना आता है और वह उनसे अच्छा डील कर लेंगे, यह भी तय है। राजनीति न तो बच्चों का खेल है और न ही कोई आसान काम है। राजनीति में अनेक बार बहुत कठोर और निर्मम समझौते या लेन- देन करने ही पड़ते हैं और यह समय भी उसी का है। यहाँ नैतिकता के बहुत मानदण्ड नहीं होते। राजनीति बहुत ही कठिन कार्य है। किसी का भी कोई निश्छल मित्र राजनीति में आज के समय में कहीं नहीं है। ट्रम्प लेन- देन के लिये तत्पर और उत्सुक हैं तथा भारत सरकार इसमें निपुण है। इसलिये ट्रम्प की जीत से भारत को लाभ है। यूरोप-अमेरिका में मुट्ठी भर वोक और कम्युनिस्ट कुछ भ्रमित से लोग हैं, भारत में भी इस तरह के लोग हैं। अब यदि, भारतीय मीडिया और वामपन्थी जिस पक्ष की तरफदारी करेंगे; स्वाभाविक रूप से राष्ट्रवादी दूसरे पक्ष की ओर झुकेंगे ही। जहाँ तक ट्रम्फ के जीत के बाद की कहानी की बात है, अमेरिका बड़ी शुष्क जगह है। इस मुल्क में जश्न मनाने का ढंग लोगों को आता नहीं है। ना कहीं ढोल नगाड़े बजे; ना कहीं बड़े-बड़े पोस्टर होर्डिंग लगे और ना कहीं लड्डू आदि ही बाँटे गये हैं। कोई रोड शो भी नहीं हुआ; कोई विजय रैली नहीं निकाली गयी है; कोई पटाखे वगैरह नहीं फोड़े गये; ना विजित नेता के पोस्टर पर फूलमालाएँ ही लादी गयीं हैं। दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव और इतना सूखा- सूखा प्रतिसाद (रिएक्शन); क्या अजीब बात नहीं है। अमेरिका से अधिक तो उत्सव और उमंग तो अपने देश में हो गया। ट्रम्प के मीम बन गये; शुभेच्छा के पोस्टर भी बन गये और बधाई देने वालों का ताँता भी लग गया। कुछ ट्रम्फ और कंजर्वेटिव के भारतीय झुकाव के कारण और कुछ ट्रम्फ के जीत के ग़म में डूबे रबीसी प्रकार के पत्रकारिता की प्रतिक्रिया में भी उमंग उल्लास और उत्सव लोगों ने मना दिया। ट्रम्फ भाई को बधाई।
कौस्तुभ नारायण मिश्र
06/11/2024
