नरेन्द्र से सुभाष तक

 

भारत शौर्य शक्ति साहस का देश है तो त्याग तप साधना का भी देश है। भारत सनातन पुरातन चिरन्तन देश है तो भारत संस्कार सभ्यता संस्कृति का भी देश है। भारत सत्य न्याय अहिंसा का देश है तो ज्ञान विज्ञान विद्या का भी देश है। भारत लौकिक भी है और अलौकिक भी है। भारत नित नूतन भी है और चिर पुरातन भी है। भारत आचार व्यवहार विचारशीलता का देश है तो भारत सदाचार शिष्टाचार विनयशीलता का भी देश है। भारत सज्जनशक्ति के सामने झुकना जानता है तो दुर्जनशक्ति का मर्दन करना भी जानता है। यह सारे गुण एक साथ किसी अलौकिक जीवन्त इकाई में पाये जा सकते हैं, खोजे जा सकते हैं तो आपको भारत और भारत के महापुरुषों की ओर ध्यान करना पड़ेगा। इसीलिये दीनदयाल उपाध्याय जी भारत को एक जीवन्त इकाई कहते हैं और इसीलिये यहां एसे अलौकिक पुरुषों या महापुरुषों की एक लम्बी श्रृंखला है। इस दृष्टि से यदि राम, भारत के मर्यादा पुरुष है; तो श्रीकृष्ण, भारत के आदर्श पुरुष हैं; बुद्ध, भारत के चेतना पुरुष हैं और नरेन्द्र, भारत के गौरव पुरुष हैं। आप यदि केवल इन चार को यदि आप समझ गये तो भारत को समझ जायेंगे और भारत को समझ गये तो पृथ्वी और सृष्टि के रहस्यों को समझने का आपका मार्ग निश्चित ही सुगम हो जायेगा।

नरेन्द्र अर्थात स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 और अवसान 4 जुलाई 1902 को हुआ था। वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली विद्वान थे। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के द्वारा पहुँचा। उन्हें उस सभा में 3 मिनट का समय दिया गया था; किन्तु उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण का आरम्भ ‘मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों’ के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके सम्बोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना किया, जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे।
कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली कायस्थ परिवार में जन्मे विवेकानन्द आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे, जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवों मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व है; इसलिये मानव जाति, जो मनुष्य दूसरे जरूरतमंदों की सहायता और सेवा करता है, वह अपनी उस सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा करता है। उनके गौरवपूर्ण व्यक्तित्व के बारे में अनेक यथार्थपरक कहानियां प्रचलित हैं। जैसे, कुत्ते की कहानी, विदेशी महिला के शादी के प्रस्ताव आदि की कहानियां। जिसके विस्तार में जाने का यहां अवकाश नहीं है।

उनके बचपन का घर का नाम वीरेश्वर रखा गया, किन्तु उनका औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील थे। नरेन्द्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत व्यवहार ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में सहायता किया। गौड़ मोहन मुखर्जी स्ट्रीट कोलकाता स्थित स्वामी विवेकानन्द का मूल जन्मस्थान, जिसका पुनरुद्धार करके अब सांस्कृतिक केन्द्र का रूप दे दिया गया है। वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित विषयों के एक उत्साही विद्यार्थी थे। इनकी वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। नरेन्द्र को भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया गया था, और वे नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम व खेलों में भी भाग लिया करते थे। इन्होंने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का भी व्यापक अध्ययन एवं अभ्यास किया था। रामकृष्ण परमहंस जी के प्रभाव से ईसाई से हिन्दू धर्म में परिवर्तित केशव चन्द्र सेन की नव विधान में भी 1880 में नरेन्द्र शामिल हुए। सन 1881-1884 के दौरान वे सेन्स बैण्ड ऑफ होप में भी सक्रिय रहे, जो धूम्रपान और शराब पीने से युवाओं को हतोत्साहित करता था। नरेन्द्र, अपने परिवेश के कारण पश्चिमी आध्यात्मिकता के साथ भी परिचित हो गये थे। उनके प्रारम्भिक विश्वासों को ब्रह्म समाज ने जो एक निराकार ईश्वर में विश्वास और मूर्ति पूजा का प्रतिवाद करता था, प्रभावित किया और सुव्यवस्थित, युक्तिसंगत, अद्वैतवादी अवधारणाओं, धर्मशास्त्र, वेदान्त और उपनिषदों के चयनात्मक ढंग से अध्ययन को प्रोत्साहित किया।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, अमेरिका की अन्तर्राष्ट्रीय धर्म सभा में बोलते हुए विवेकानन्द ने कहा था – ‘आपने जिस सम्मान सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा भारत की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि- कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ। मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय यह बताया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं! मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत, दोनों की ही शिक्षा दिया है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते; बल्कि समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार भी करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बताते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था; जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण लिया था, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दिया और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर मतांधता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त नकारात्मकता का नाश करेगी और आने वाली पीढ़ियां उसका अनुशरण करेंगी।’

जिस भारत की हम ऊपर चर्चा कर रहे थे और जिस भारत के सम्बन्ध में विवेकानन्द की अमेरिका की धर्म सभा में 1893 में बोल रहे थे तथा अपने जीवन एवं कर्तव्य में उतार रहे थे; उस भारत के सच को, उसकी उत्कृष्टता को बनाये रखने के लिये भारत में 23 जनवरी को 1897 को एक और नक्षत्र का सुभाष चन्द्र बोस के रूप में उदय होता है। वे भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिये उन्होंने जापान के सहयोग से आजाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया ‘जय हिन्द’ का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया। ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा भी उनका था, जो उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। भारतवासी उन्हें नेता जी के नाम से सम्बोधित करते हैं। नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए ‘दिल्ली चलो!’ का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया। सन 1943, 21 अक्टूबर को बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में भारत की अस्थायी सरकार बनाया; जिसे जर्मनी, जापान, फ़िलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैण्ड सहित 11 देशों की सरकारों ने मान्यता दिया था। जापान ने अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह को इस अस्थायी सरकार को दे दिया। सुभाष उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। आजाद हिन्द सरकार के 75 वर्ष पूर्ण होने पर इतिहास में पहली बार वर्ष 2018 में भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने लाल किले पर तिरंगा फहराया और 23 जनवरी 2021 को नेताजी की 125वीं जयंती को, भारत सरकार के निर्णय के तहत पराक्रम दिवस के रूप में मनाया गया तथा 8 सितम्बर 2022 को नई दिल्ली में राजपथ, जिसका नामकरण कर्तव्यपथ किया गया है, पर नेताजी की विशाल प्रतिमा का अनावरण किया गया ।

पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घण्टे का समय यह सोचने के लिये माँगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अन्तिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाये। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें प्रवेश मिल गया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो बहाना था असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था। सो उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर लिया। एसे भारत को जानना, मानना, देखना, समझना, इसे बनाये रखना, सदा जीवन्त रखने के लिये जिन मूल्यों मान्यताओं संस्कारों सरोकारों कर्तव्यों के साथ – साथ जिस त्याग तप बलिदान की आवश्यकता है; उनमें से कीर्ति स्तम्भ स्वरूप इस जनवरी मास में स्वामी विवेकानन्द जी एवं नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जी को स्मरण करना, उनके जीवन को अपने जीवन में उतारने का मार्ग प्रशस्त करता है और इसीलिये भरोसा और विश्वास है कि उस नरेन्द्र के और उस सुभाष के भी अधूरे कार्य तथा स्वप्न को इस नरेन्द्र द्वारा अवश्य पूर्ण किया जायेगा।

युगवार्ता, नई दिल्ली के 16 से 31 जनवरी के अंक में प्रकाशित लेख।

डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
प्रोफेसर एवं स्तंभकार