कांग्रेस और कांग्रेसी रहनुमाओं का भविष्य

भारत की कांग्रेस या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी अपने स्थापना काल से लेकर अब तक समय के सन्दर्भ में दो भागों में अपने घोषित और अघोषित उद्देश्यों के साथ कार्य करती आ रही है। पहले भाग में स्वतन्त्रता अर्थात 1947 से पहले तीन उद्देश्य थे- औपनिवेशिकता का संरक्षण; शासन सत्ता में कांग्रेस की भागीदारी; राजनीति एवं सत्ता में भागीदारी के लिये परिवारवाद जातिवाद तुष्टिकरण और मतान्तरण को प्रश्रय देना। दूसरे भाग में स्वतन्त्रता के बाद अर्थात 1947 के बाद अब तक के तीन उद्देश्य थे- औपनिवेशिक मानसिकता का संरक्षण; सत्ता में कांग्रेसी परिवार और कुछ खास लोगों का वर्चस्व; राजनीति एवं सत्ता के लिये परिवारवाद जातिवाद तुष्टिकरण मतान्तरण और नक्सलवाद आदि को प्रश्रय देना। वैसे तो दोनों भागों में तीनों उद्देश्य कमोवेश एक ही रहे हैं; लेकिन तीसरा उद्देश्य तो सौ प्रतिशत यथावत था और अब भी बना हुआ है। कांग्रेस ने अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये भारत के तीन सीमावर्ती भागों पश्चिमोत्तर में जम्मू- कश्मीर; पूर्वोत्तर में बंगाल और पूर्वोत्तर के शेष राज्य तथा दक्षिण में केरल सहित भारत के त्रिकोण को आधार बनाया और भारत को उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये जहाँ और जितनी आवश्यकता पड़ी, कमजोर भी किया। इसके अन्तर्गत सत्ता के लिये अभारतीय विचार (क्योंकि भारतीय विचार से उपरोक्त उद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकते थे) को केन्द्राभिसरित बल (सेंट्रीपीटल फोर्स) के द्वारा उक्त तीन केन्द्रों से पूरे देश में नीचे तक ले जाने की अघोषित योजना रही है। इसके लिये कांग्रेस ने अभारतीय वैचारिक आश्रय को भी साथ लिया और उन्होंने इस आशय का गठबन्धन किया कि- सत्ता हेतु आप हमारा साथ दीजिये और वैचारिक आधार हेतु हम आपका सहयोग करेंगे और यही हुआ भी। इस प्रकार भारत में धर्मनिरपेक्षता एवं उसके विभिन्न स्वरूपों का तथा वामपन्थ एवं उसके विभिन्न स्वरूपों का एक गठजोड़ आरम्भ से ही हुआ। यह गठजोड़ स्वतन्त्रता के पूर्व एवं स्वतन्त्रता के बाद के दोनों भागों के संयोजक जवाहर लाल नेहरू के समूचे व्यक्तित्व को न केवल सूट किया; बल्कि उसका व्यवस्थित प्रकटीकरण था।

लेकिन काल एवं नियति के गति को कोई भी पकड़कर नहीं रख सकता; चाहे वह कितना ही बड़ा राजनीतिक कूटनीतिक रणनीतिकार हो या कितना भी अधिक शक्तिशाली व्यक्तित्व या संगठन हो। परिणामस्वरूप आज की गति यह है कि कांग्रेस पार्टी के साथ- साथ उसके कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गाँधी जी का शारीरिक स्वास्थ्य एवं उनके सुपुत्र पूर्व अध्यक्ष का मानसिक स्वास्थ्य ज्ञात हुआ है कि ठीक नहीं चल रहा है। वैसे भारत के नागरिक होने और लोकतन्त्र की मर्यादा के कारण कोई भी सहज रूप से तीनों, चाहे व्यक्ति हो या संगठन, लोकतन्त्र एवं नैतिक मर्यादा के कारण स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना ईश्वर से करेगा ही और इसी कारण मैं भी इनके अच्छे स्वास्थ्य की ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ। लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि, न तो कांग्रेस अध्यक्ष स्वस्थ होना चाहती हैं, न ही कांग्रेस और न ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और न तो कांग्रेस के अन्य नेतागण और उनके नीति एवं नियम। ऐसी दशा में खुद के बनाये मकड़जाल में खुद ही फँसना पड़ता है। यह फँसना दूसरे को फँसाने जैसा दिखता तो जरूर है, लेकिन वास्तव में होता नहीं है। जैसा कि सबको विदित है कि पूरे विश्व में कोविड के कारण अभी पर्यटन, घूमने-फिरने, छुट्टी मनाने और सैर सपाटे आदि के लिये आवाजाही मना है और ठीक इसी तर्ज पर यूरोपीय देश इटली में भी आना मना है। लेकिन उन लोगों को 21 दिसम्बर से 06 जनवरी तक इटली आने की अनुमति है जो- वहाँ नौकरी करते हैं, इसलिये उनके पास वर्क परमिट/वर्क वीज़ा है; किसी बीमारी के इलाज या फिर अपनी पढ़ाई के लिये वहाँ जा रहे हैं; अत्यधिक इमरजेंसी के कारण तुरन्त वहाँ जाने की मजबूरी है; स्वास्थ्यकर्मी, एयरलाइन आदि के कर्मचारी, दूतावासों के कर्मचारी आदि हैं; वहाँ के नागरिक हैं, स्थायी निवासी हैं या इतालवी मूल के हैं और अपने घर लौट रहे हैं। क्या कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष इटली जाने की उपरोक्त में से किसी श्रेणी में आते हैं? यदि आते हैं तो क्या उनकी भारतीयता, नागरिकता, राजनीतिक विवेक बुद्धि कौशल एवं देशप्रेम पर प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा होता है? क्या यह खुद के द्वारा बनाया गया मकड़जाल नहीं है?

विश्वस्त सूचना है तथा यह खबर चौंकाने वाली थी और है कि, कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष अपनी पार्टी का स्थापना दिवस और दिल्ली सीमा पर ठण्ड में ठिठुरते आन्दोलनरत किसानों की चिन्ता छोड़कर अचानक इटली चले गये। वे किस इमरजेंसी में इस परिस्थिति में वहाँ जाने पर मजबूर हुये? जबकि उनकी पार्टी के 23 बड़े नेता बगावती; किन्तु पार्टी हित में जिम्मेदारी पूर्ण कदम उठा रहे हैं और वह कदम नेहरू गाँधी परिवार ही नहीं, राहुल गाँधी जी के स्पष्ट रूप से विरुद्ध है। ऐसे में क्या कोई भारतीय नागरिक या गैरकांग्रेसी व्यक्ति या पार्टी इन बातों पर सवाल नहीं खड़ी करेगी? क्या उन्हें सवाल नहीं खड़ा करना चाहिये? क्या यह सामाजिक राजनीतिक राष्ट्रीय विचारणीय विषय नहीं है? यदि विचारणीय नहीं है तो क्या कांग्रेस और उसके नेताओं को अप्रासंगिक एवं गैरजिम्मेदार मान लिया जाय? क्योंकि देश के प्रति उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य किसी सत्ता सरकार या सत्ताधारी राजनीतिक दल/दलों का ही मात्र नहीं होता! बल्कि प्रत्येक राजनीतिक दल, संगठन, व्यक्ति और नागरिक का भी होता है। इस स्थिति में भाजपा जो सवाल खड़ा कर रही है, वह भाजपा का अपना राजनीतिक विषय हो सकता है; लेकिन केवल भाजपा वाले प्रश्न ही पर्याप्त नहीं हैं। प्रश्न और भी खड़े हो रहे हैं और बहुत से अन्य लोगों दलों और संगठनों द्वारा भी पूछे जा रहे हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष की इस यात्रा से और भी अनेक सवाल जैसे- उनके पास कहाँ- कहाँ की नागरिकता है? देश के सामान्य नागरिकों के मन में कांग्रेस पार्टी, राहुल गाँधी और उनके परिवार को लेकर खड़े हो रहे हैं? इसमें कांग्रेस पार्टी कोई भी सफाई दे, कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ- साथ देश के सामान्य नागरिकों के भी गले उतरने वाला नहीं है। भारतीय राजनीति कोई साहित्यिक या वैज्ञानिक गल्प नहीं है और न ही राजनीति अल्पकालिक (पार्ट टाइम) कार्य है। राजनीति और सार्वजनिक जीवन में जो भी व्यक्ति है, उसका कोई निजी जीवन भी नहीं रह जाता है और न ही रहना चाहिये। आपके सार्वजनिक जीवन जैसा ही आपका व्यक्तिगत जीवन भी लोक या जनता की दृष्टि में पारदर्शी और सूचितापूर्ण होना चाहिये। यदि नहीं है तो आप लम्बे समय तक इसमें अपना भविष्य और जीवन बनाकर नहीं रख सकते।

सार्वजनिक जीवन का यह बड़ा प्रश्न है कि आखिर कोई व्यक्तिगत या निजी जीवन का हवाला देकर कोई बात क्यों छिपाना चाहता है? इसीलिये कि उसके निजी जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जो देखने लायक नहीं है या जिसे समाज काल परिस्थिति, अशोभनीय और निन्दनीय मानती है। छिपाने का इसके अलावा क्या और कोई कारण हो सकता है? इसका स्पष्ट उत्तर है, नहीं! कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष के इटली दौरे के सम्बन्ध में मीडिया को और सार्वजनिक रूप से बताया था कि राहुल निजी यात्रा पर विदेश रवाना हो गये हैं। यद्यपि कि, उन्होंने जगह का नाम नहीं बताया था; लेकिन दूसरे कांग्रेसी नेता वेणुगोपाल के बयान के बाद अब साफ हो गया है कि राहुल इटली गये थे या गये हैं। केरल के वायनाड से सांसद राहुल गाँधी पर, उनके विदेश रवाना होने की खबर के बाद सोशल मीडिया, पार्टी के अन्दर और पार्टी के बाहर भी सवालों की बौछार होने लगी है और वायनाड की जनता उन्हें गम्भीर नेता नहीं मान रही है। शायद उनको अपना मत देकर और 2019 में सांसद बनाकर भी प्रायश्चित कर रही हो। कांग्रेस में स्थायी अध्यक्ष नहीं है; अन्तरिम अध्यक्ष की जिम्मेदारी सोनिया जी निभा रही हैं। उनके विदेश जाने तथा अन्तरिम अध्यक्ष के भी न आने के कारण ए के एंटनी को पार्टी का झण्डा पार्टी के वार्षिक कार्यक्रम में फहराना पड़ा। इस बात को किस चीज का संकेत माना जाय? क्या यह कांग्रेस से नेहरू- गाँधी परिवार के शून्य होते भविष्य का संकेत है? या भारतीय राजनीति से कांग्रेस के शून्य हो जाने की ओर संकेत है? अथवा परिवार एवं पार्टी दोनों के भारतीय राजनीति एवं सत्ता की राजनीति से शून्य होने का संकेत है? इसका वास्तविक उत्तर तो समय ही देगा; लेकिन काल और परिस्थिति के क्रम में प्रतीत ऐसा ही हो रहा है। जैसा कि पार्टी की कार्यशैली को लेकर 23 एवं फिर 30 वरिष्ठ नेताओं (जी-23, जी-30) नेताओं के समूह ने अन्तरिम अध्यक्ष को चिट्ठी लिखा था; जिसके बाद पार्टी में तेज हलचल आ गयी थी और अभी भी हलचल कायम है। कुछ दिन पहले कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने उन सभी नेताओं से बात की और उनकी राय सुनी थीं। तदक्रम में कांग्रेस पार्टी की बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दिल्ली में हुई।

कांग्रेस पार्टी के ही नहीं तठस्थ भाव में राजनीतिक समझ विचार और चिन्तन करने वाले कुछ नेताओं और लीगों का कहना है कि गाँधी परिवार से बाहर का कोई सदस्य कांग्रेस पार्टी का स्थायी अध्यक्ष बनना चाहिये। किसी बाहरी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की माँग को उस समय और अधिक बल मिला जब पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा ने भी इस बात के समर्थन में परोक्ष ही सही, बयान जारी किया था। बिहार चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद से कांग्रेस में घमासान और तेज है। यह बात तो अब साबित है कि कांग्रेस में गाँधी परिवार ही एक मात्र सत्ता है और उसके खिलाफ कोई भी नहीं बोल सकता; क्योंकि चाहे जो हो नेहरू- गाँधी परिवार के बाहर किसी के द्वारा कांग्रेस के नेतृत्व की कल्पना नहीं की जा सकती और न ही ऐसा कोई व्यक्तित्व सहज रूप में दिखाई पड़ रहा है। इसलिये उपरोक्त माँग भले की जा रही है, किन्तु वह माँग विकल्प के अभाव में औचित्यहीन और आधारहीन है। जब से राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने गाँधी परिवार को पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिये जिम्मेदार ठहराया है तब से सोनिया गाँधी की छत्रछाया में पल रहे छोटे- छोटे नेता और परिवार के पिछलग्गू उन पर टूट पड़े हैं। सच्चाई यह है कि इस समय कांग्रेस और सोनिया जी दोनों के पास कुल चार-चार संकट हैं और इनमें दो-दो संकट दोनों में कॉमन हैं। कांग्रेस के चार संकटों में- 1. कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का राहुल और उनके पारिवारिक नेतृत्व से भरोसा उठ चुका है। 2. कांग्रेस के पास नेहरू- गाँधी परिवार के अलावा कोई और सर्वमान्य नेता नहीं है। 3. कांग्रेस के पास दूसरी पंक्ति का कोई नेतृत्व नहीं है और है तो उसको पार्टी के जिर्णोध्वर का कोई भरोसा नहीं है। 4. भारत के नागरिकों और मतदाताओं को देशहित में कांग्रेस की कोई भूमिका योगदान और भविष्य की कोई सकारात्मक सम्भावना नहीं दिखाई दे रही है। इसी प्रकार सोनिया जी के चार संकटों में- एक, उनके बेटा और बेटी की योग्यता एक ही प्रकार की है और दोनों में गहरा मतभेद है तथा दोनों एक दूसरे से अपने को योग्य जानते मानते एवं समझते हैं। दूसरा, बेटा अपने निजी जीवन और विदेशी प्रवास से परेशान है तो बेटी अपनी छवि नेहरू- गाँधी परिवार से जोड़कर प्रदर्शित न हो पाने से परेशान है, जनता उनको ससुराल से ही जोड़कर देखना चाहती है। तीसरा, सोनिया जी पर वैश्विक दबाव है कि पूर्व वर्णित उद्देश्यों के अनुसार ही पार्टी को चलाना है और वर्तमान स्थिति उन उद्देश्यों के विरुद्ध बनती जा रही है। चौथा, सोनिया जी को भारत में आये तिरपन वर्ष हो गये, लेकिन न हो यहाँ की कोई बोली भाषा सीख पायीं और न संस्कार एवं संस्कृति और न ही देश के सामान्य नागरिक समुदाय ने ही उन्हें स्वीकार किया।

उपरोक्त बातों और परिस्थियों के बावजूद अभी भी कांग्रेस में कुछ आधारहीन नेता हैं, जो अब भी परिवार का लगातार गुणगान कर रहे हैं। सोनिया जी उपरोक्त उद्देश्यगत राजनीति की एक अलग संस्करण हैं। यह संस्करण कांग्रेस के पूर्ववर्ती राजनीतिक संस्करणों जैसा ही उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहा है अर्थात उसी जैसी विषयवस्तु इस संस्करण की भी रही है; लेकिन अन्य संस्करणों की तुलना में विधितन्त्र थोड़ा अलग या भिन्न रहा है। इसी कारण पार्टी और नेतृत्व पर अनेक प्रकार के ग्रहण अनवरत लगते जा रहे हैं। इस प्रकार की राजनीति द्वारा कांग्रेस में अखण्ड राज्यसत्ता का भोग करने का जो अनुष्ठान साधा था और कांग्रेस के लोग कांग्रेस के न अस्त होने वाले सूर्य की कल्पना कर रहे थे; उसी आगोश में कांग्रेस निरन्तर समाती चली जा रही है और सूर्यदेव अपना प्रकाश पृथ्वी की गति के क्रम में निरन्तर कांग्रेस से विमुख करते जा रहे हैं। इसे गैरकांग्रेसी सोच समझ वाले लोगों द्वारा कांग्रेस की नियति कहना समीचीन होगा; लेकिन कांग्रेसी या कांग्रेस एवं उस परिवार के प्रति सहानुभूति एवं श्रद्धा रखने वाले लोगों के लिये यह कबीरदास जी के दोहे जैसा है- जाका गुरु है आँधरा चेला है जाचन्द; अन्धे अन्धा ठेलिया दोनों कूप परन्त। सर्वविदित है कि चुनावों में पिछले कुछ सालों से कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है। स्थानीय निकाय चुनावों में भी प्रदर्शन बहुत खराब हैं। यह खराब प्रदर्शन ही किसी राजनीतिक दल और उसके नेताओं का बहुआयामी मूल्याँकन करता है और इसी आधार पर उनके भविष्य का अनुमान किया जाता है। कांग्रेस के पास एक और; किन्तु इससे सरल एक संकट आया था, जब सीताराम केशरी जी पार्टी के अध्यक्ष बने थे। किन्तु आज की परिस्थिति की उससे तुलना करके कांग्रेस के पुनःउध्वार की कल्पना एवं आशा नहीं की जा सकती है। तात्पर्य यह है कि अब कांग्रेसी जिर्णोध्वर की सहज आशा एवं विश्वास का दौर समाप्त हो चुका है। अब कोई करिश्मा या करिश्माई व्यक्तित्व या भारतीय मानसिकता या भाजपा की कोई गलती ही, कांग्रेस के जिर्णोध्वार का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

जिस समय 2019 में कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुये राहुल गाँधी को अपनी और अपने पिता जी एवं परिवार की परम्परागत सीट अमेठी छोड़कर जिस केरल में जाना पड़ा; अब उसी केरल में कांग्रेस में पलीता लगाना शुरू हो गया है। अर्थात जिस भरोसे पर वे जहाँ गये, वहाँ भी भविष्य की सम्भावनाओं के विषय में कहने के लिये कुछ बचा नहीं है। कांग्रेस में अब सभी दबे स्वर में यह स्वीकार करते हैं कि इन सबके लिये राहुल गाँधी जी की राजनीतिक अपरिपक्वता और उनकी माता जी की अभारतीय सोच ही जिम्मेदार है। कपिल सिब्बल जैसे कुछ वरिष्ठ नेताओं (जी-23, जी-30) की ओर से सोनिया जी और राहुल जी की आलोचना पर कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेताओं ने कहा कि- कुछ नेता जब चुनाव हार जाते हैं तो वे सोनिया और राहुल गाँधी को दोषी करार देने लगते हैं। खड़गे ने शीर्ष नेतृत्व का बचाव करते हुये स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि- \’आन्तरिक कलह ने पार्टी को हिलाकर रख दिया है। हम कभी आगे नहीं बढ़ सकेंगे, यदि हम लोग ही अन्दरूनी स्तर पर पार्टी को कमजोर करते रहेंगे और पार्टी की यही स्थिति रही तो हम कभी उबर नहीं पायेंगे।\’ खड़गे जी को खुद सोचना चाहिये कि उनका राजनीतिक भविष्य स्वयं सोनिया एवं राहुल की कृपा पर है, उनकी योग्यता और छमता पर नहीं! तारिक अनवर ने एक बयान में कहा कि- केरल में हाल ही में हुये निकाय चुनावों के बाद यह देखा जा रहा है कि कुछ कांग्रेसी चुनाव के नतीजों के लिये राज्य कांग्रेस के नेतृत्व की सार्वजनिक रूप से आलोचना कर रहे हैं। यही स्थिति कश्मीर में भी हुई और अरूणांचल प्रदेश सहित पूर्वोत्तर में भी हो रही है। अनवर ने, कांग्रेस नेताओं से सार्वजनिक रूप से आलोचना न करने और अपने मतभेदों को सार्वजनिक रूप से हवा न देने का आग्रह किया। उन्होंने पार्टी फोरम पर अपनी शिकायतों को उठाने को कहा। किन्तु उपरोक्त के क्रम में यदि कांग्रेस ने आमूलचूल और ढाँचागत परिवर्तन अपनी पार्टी संगठन में, नेतृत्व में, दृष्टिकोण में, उद्देश्य में नहीं किया तो कांग्रेस एवं उसके पारिवारिक रहनुमाओं के पुनर्जीवित होने की कोई सम्भावना नहीं है। इस समय कांग्रेस की आत्मा के पास भी इस बात का कोई समाधान या उत्तर नहीं है कि- \’नेहरू- गाँधी या मायनो- बाड्रा परिवार में या इससे बाहर पार्टी में कौन है? जो सर्वमान्य नेतृत्व सम्भाल सके और कांग्रेस को पटरी पर ला सके? अथवा उक्त परिवार के अतिरिक्त कांग्रेस में कौन या कौन- कौन हैं, जो संगठन एवं सत्ता की दृष्टि से कांग्रेस को पटरी पर ला सके?\’ यह सवाल तब तक जस का तस बना रहेगा, जब तक कांग्रेस को पुनर्जीवन नहीं मिल जाता या कांग्रेस और
\’नेहरू- गाँधी या मायनो- बाड्रा परिवार राजनीतिक शून्यता की पूर्ण स्थिति में नहीं पहुँच जाता! लेकिन चाहे जो हो कांग्रेस और उक्त परिवार के पास अब समय नहीं है।

(\’न्यूज टाइम पोस्ट\’ लखनऊ के 16-31 जनवरी 2021 के अंक में प्रकाशित।)

डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र