स्थान और समय के अपने- अपने गुण और दोष होते हैं। सृष्टि सौर्यमण्डल में और पृथ्वी पर विद्यमान सभी स्थान की अलग- अलग अवस्थिति और उस अवस्थिति के अनुसार समय से उसके सम्बन्ध के अनुक्रम में उस स्थान की विशेषताएँ समझी जा सकती हैं। एक स्थान की दूसरे स्थान से तुलना करके उसी जैसा हो जाने की इच्छा हास्यास्पद है। एक स्थान को देश या राष्ट्र भी आप मान सकते हैं और हो सकता है। उदाहरण के लिये भारत न तो अमेरिका हो सकता है और न अमेरिका भारत! न तो एक जैसा समझना चाहिये और न एक जैसा बनाने की कोशिश करनी चाहिये। सर्वाधिक गुणवाचक स्थान और समय वह है, जो प्रकृति के रहस्यों नियमों के अनुसार अधिकतम अनुरूप अनुरक्त हो और अधिकतम उसके अनुरूप व्यवहार करता हो। क्योंकि प्रकृति या सृष्टि ही ज्ञान के, विज्ञान के, विद्या के, चिति के और प्रज्ञा के हेतु हैं और इसी प्रकृति या सृष्टि के रहस्यों और नियमों की खोज में इनका सहज और स्वाभाविक उपयोग किया जाता है। वर्तमान समय में यदि ज्ञान परम्परा की चर्चा किया जाय तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह धीरे धीरे तिरोहित होता जा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे दार्शनिक परम्परा तिरोहित हो रही है। स्वाभाविक भी है कि जब ज्ञान परम्परा तिरोहित होगी तो, दार्शनिक परम्परा भी तिरोहित होगी और जब दार्शनिक परम्परा तिरोहित होगी, तो ज्ञान परम्परा भी तिरोहित होगी। यह दोनों आपस में अन्योन्याश्रित रूप से जुड़े हुए हैं; इसमें पहले कौन और बाद में कौन? यह चर्चा का विषय नहीं हो सकता। इन दोनों पर जब हम चर्चा करते हैं तो हमें चिन्तन परम्परा की भी चर्चा करनी पड़ती है। जब चिन्तन परम्परा की बात करते हैं तब तो, यह और भी सुनिश्चित हो जाता है कि ज्ञान परम्परा और दार्शनिक परम्परा निश्चित रूप से तिरोहित होने की प्रक्रिया में हैं। यहाँ तीन बातें हो गयीं- ज्ञान परम्परा, दार्शनिक परम्परा, चिन्तन परम्परा। क्योंकि जब तक मौलिक चिन्तन परम्परा निरन्तरता में या सजीव या जीवन्त नहीं रहेगी! तब तक ज्ञान दार्शनिक और चिन्तन परम्परा अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं रह सकती हैं। वर्तमान समय में चाहे वह भारतीय ज्ञान परम्परा हो या अभारतीय ज्ञान परम्परा हो; चाहे वह भारतीय दार्शनिक परम्परा हो या अभारतीय दार्शनिक परम्परा हो, इसकी मौलिकता को छोड़कर हम चिन्तन परम्परा के विषय में कोई विचार नहीं कर सकते, करना भी नहीं चाहिये। जैसा ऊपर कहा गया है, इसमें स्थान और समय सबसे महत्वपूर्ण पक्ष हैं।
दुर्भाग्य है कि आज मात्र सूचनाओं तथ्यों और सन्दर्भ प्रस्तुति को ज्ञान, माना और समझा जा रहा है। दूसरा, आज विज्ञान को, प्रज्ञा से चिति से विद्या से और ज्ञान से अलग मानकर व्यवहार करने की अज्ञानता और अदूरदर्शिता की जा रही है। यह समझ नहीं है कि- प्रज्ञा रूपी वृक्ष का चिति, आधारभूत जड़ है; विद्या उस वृक्ष का आधारभूत तना; विज्ञान और ज्ञान उस तने की प्रारम्भिक शाखाएँ तथा विवेक बुद्धि द्वितीयक; तथ्य सूचना तृतीयक शाखाएँ और परिशोधन परिमार्जन परिवर्तन उसकी चतुर्थक शाखाएँ हैं। इसीलिये एकता में अनेकता होती है। एकता में अनेकता की बात ज्ञान और अनेकता में एकता की बात को अज्ञान कहा गया है। इनका यहाँ विशद विवेचन तो सम्भव नहीं है; फिर कभी! लेकिन यदि आप विज्ञान और ज्ञान को अर्थात प्राथमिक शाखा को उसके पूर्व पक्ष तथा उत्तर पक्ष से अर्थात उसके स्रोत और परिणाम से काट देंगे तो, आप जो वृद्धि विकास प्रगति उन्नति करेंगे, वह आपको विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों में ले जायेगा। उससे केवल ध्वनि वायु जल मृदा और आकाशीय प्रदूषण ही नहीं; उससे सांस्कृतिक सामाजिक और आर्थिक प्रदूषण भी फैलता है और उस प्रदूषण का प्रभाव राजनीति और सत्ता पर भी स्वाभाविक रूप से पड़ता है; परिणामस्वरूप शिक्षा तन्त्र भी अपमार्गी हो जाता है। वृद्धि विकास प्रगति और उन्नति आदि सब कुछ, यदि प्रकृति के अनुरूप नहीं है तो वह औचित्यहीन है, जीव और मानवता के हित में नहीं है। प्रकृति के नियमों के अनुरूप वृद्धि विकास प्रगति उन्नति की परिभाषा तथा व्यवहार नहीं होगा तो समस्या आयेगी ही। यह भ्रम पालना कि विज्ञान एक स्वतन्त्र विधान है और सब कुछ उसी पर निर्भर है, उस अन्धेरे कूप में ले जाने का तरीका है, जो केवल धड़ाम से कूप में गिराता मात्र नहीं है; बल्की अन्धकूप से लौटने या निकलने का मार्ग भी बन्द कर देता है। क्योंकि विज्ञान और कुछ नहीं, केवल प्रकृति के असंख्य या अनन्त नियमों में से कुछ नियमों की खोज मात्र है और उस नियम को जानकार उसका मानवता के हित में विवेकपूर्ण उपयोग करना होता है। उदाहरण के लिये पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति होती है! इसका आशय यह नहीं हुआ कि किसी वैज्ञानिक ने विज्ञान की प्रक्रिया के द्वारा पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति पैदा किया; बल्कि पृथ्वी में स्वाभाविक रूप से विद्यमान गुरुत्वाकर्षण के नियम का पता लगाकर सबको बताया और इस नियम को जान लेने के बाद इसके अनुसार कोई उपकरण बनाकर उसका मानव या लोक कल्याण हेतु उपयोग करना विवेकवान होने का लक्षण है। इसको इसी लेख में आगे विस्तार से समझते हैं।
इन सबके सम्बन्ध में मौलिकता अनिवार्य एवं अपरिहार्य शर्त है। एक प्रश्न ध्यान में रखना चाहिये कि हमें भारत की विद्या परम्परा, विज्ञान परम्परा और ज्ञान परम्परा तथा इन तीनों के युग्म प्रज्ञा परम्परा की कितनी समझ है? ठीक ऐसे ही जब हम विद्वानों की चर्चा करते हैं तो, हमें विवेकवान और बुद्धिवान की कितनी समझ है! उसके लिये हमें चर्चा करनी पड़ती है और करनी चाहिये। विद्वान वास्तव में विवेकवान और बुद्धिवान का एक ऐसा युग्म है, जो प्रज्ञा विद्या विज्ञान ज्ञान के चतुष्टय की ठीक ठीक समझ रखता है। इनकी समझ रखने का आशय यह नहीं है कि इसकी समझ रखने वाला स्वयं प्रज्ञावान विद्यावान विज्ञानवान और ज्ञानवान हो जाता है या है। इस अर्थ में हमें जब भारतीय ज्ञान परम्परा और भारतीय दर्शनिक परम्परा का अध्ययन करना हो तो हमें सबसे पहले प्रज्ञावान विद्यावान विज्ञानवान और ज्ञानवान के विषय में ठीक- ठीक समझ विकसित करनी चाहिये। तब हमें विवेक और बुद्धि युक्त होकर विद्वान होने के सीमा क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिये। एक बहुत सामान्य उदाहरण से इस बात को यदि हम स्पष्ट करें तो कहना चाहिये कि श्रीनिवास रामानुजन और उनके कक्षा साथियों को उनके शिक्षक यह बता रहे थे कि किसी भी संख्या में यदि उसी संख्या से भाग दिया जाय तो भागफल सदैव एक (1) आता है। अध्यापक के इस पाठ पर श्रीनिवास रामानुजन (उनके शेष कक्षा साथियों का नहीं) का प्रश्न? गुरुदेव! यदि हम 0 में 0 का भाग दें, तो भी क्या उत्तर एक (1) ही आयेगा? यह श्रीनिवास रामानुजन का सहज और सामान्य प्रश्न नहीं है और ऐसे प्रश्न सभी प्रकार के मस्तिष्क में उपजते भी नहीं हैं। ऐसे प्रश्न सभी जगह सभी के द्वारा सही समय पर पूछे भी नहीं जाते हैं और ऐसे प्रश्नों का उत्तर सबके पास होता भी नहीं है। इस आलोक में हम जब विचार करते हैं तो हमें पता चलता है कि जो व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष इस तरह के प्रश्न पूछ सकता है, वही विद्यावान है अर्थात अंग्रेजी में विजडम उसी के पास होता है। जो इस तरह के प्रश्नों के उत्तर ढूंढ सकता है, मतलब ढूंढने की प्रक्रिया कर सकता है; उस प्रक्रिया को सम्पादित करने वाला विज्ञानवान कहलाता है और जो इस तरह के प्रश्नों का उत्तर ढूंढकर सूत्रवत उत्तर बता सकता है, उसे ज्ञानवान कहा जाता है और कहा जाना चाहिये। इसको समझना भारत की ज्ञान परम्परा और दार्शनिक परम्परा को समझना है। ऐसे ही प्रश्न कर्ता को विद्यावान, जिस मष्तिष्क में विद्या जन्म लेती है; उसका प्रकटीकरण सदैव सहज एवं स्वाभाविक प्रक्रिया की देन होता है। इसी सहजता और स्वाभाविकता को मौलिकता कहते हैं। जो स्त्री या पुरुष इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर तलाश करते हैं, चाहे वह स्वयं प्रश्नकर्ता ही क्यों न हो! क्योंकि प्रश्न कर्ता द्वारा यदि यह तलाश किया जाता है या तलाश करने की प्रक्रिया में वह शामिल होता है तभी वह विद्यावान कहलाने का अधिकारी है। तलाश करने के बाद जो उत्तर आता है वह उत्तर ही ज्ञान कहलाता है। प्रश्न के उत्तर की तलाश की प्रक्रिया का नाम विज्ञान है। जिस व्यक्ति में विद्या, विज्ञान और ज्ञान का यह त्रिक एक साथ उपलब्ध होता है; उसी व्यक्ति प्रज्ञावान है। विद्या, विज्ञान, ज्ञान के युग्म से विद्वान शब्द की निष्पत्ति होती है। विद्वान नामक गुणक का प्रज्ञा से सम्बन्ध बनाने वाली अन्तर्निहित सूत्र या शक्ति को चिति कहते हैं।
इसी कारण प्रश्न, ईश्वर रूप या अलौकिक या पारलौकिक रूप होता है; प्रश्न का उत्तर भी इसी के सापेक्ष महत्व रखता है। यह ब्रम्ह से सृष्टिमय होने या बनाने का कारक है। उनमें विद्यमान नियमों की खोज और उन नियमों के लौकिक उपयोग का हेतु है। इसको एक और उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं। जेम्सवाट के मन में यदि यह प्रश्न आया कि केतली का ढक्कन बार-बार क्यों उठता और गिरता है? वह इस प्रश्न को लेकर जिस कौतूहल और व्यग्रता से बार-बार परीक्षण में लगता है और अन्त में यह कहने की स्थिति में आता है कि, भाप में शक्ति होती है। वह जब प्रश्न करता है कि केतली का ढक्कन क्यों उठ गिर रहा है? वह प्रश्न उसके विद्यावान को प्रकट करता है। उस प्रश्न का परीक्षण या उत्तर ढूँढने की प्रक्रिया, उसके विज्ञानवान होने का प्रकटीकरण करता है और जब वह एक सूत्र वाक्य प्रकट करता है कि- ‘भाप में शक्ति होती है’, तो वह उसके ज्ञानवान स्वरूप का प्रकटीकरण होता है। इसलिये जब हम ज्ञान परम्परा की चर्चा करते हैं तो, हमको ध्यान रखना चाहिये कि हम कोरी पुस्तकों का उद्धरण देकर और पुस्तकों के लेखकों का उद्धरण देकर, उन पुस्तकों में दिये गये पुस्तकों के सन्दर्भों का उद्धरण देकर, न तो हम ज्ञान परम्परा की चर्चा कर सकते हैं और न हम ज्ञान परम्परा के वाहक बन सकते हैं। हम केवल उपरोक्त प्रदूषण फैला सकते हैं। यह प्रदूषण फैलाना ही अभारतीय या औपनिवेशिक मानसिकता है। भारतीय मानसिकता विशुद्ध मौलिकता की माँग करती है। यदि हम केवल क्रमशः सूचनाओं के वाहक मात्र हो सकते हैं, तो वह विद्वानों की चाकरी करने से भी बहुत नीचे की बात है। ज्ञान परम्परा का वाहक होने के लिये विद्या और विज्ञान परम्परा का वाहक होना अनिवार्य शर्त है और जब तक हम इन शर्तों को पूरा नहीं करते तब तक हम ज्ञान परम्परा या भारत की दार्शनिक परम्परा को नहीं समझ सकते हैं। वास्तव में हुआ यह कि, भारतीय ज्ञान परम्परा और दार्शनिक परम्परा के आलोक में या दिखावे में हम अभारतीय ज्ञान परम्परा और अभारतीय दार्शनिक परम्परा को समझ जाने का स्वांग करने लगे और अपने आप को विद्वान कहलाने की व्यग्रता में फंस गये। आज येसे तथाकथित विद्वानों की शिक्षा क्षेत्र में भेड़चाल है। औपनिवेशिकता कि मृगमरीचिका ने भारत को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के मार्ग पर न चलने दिया और न तो हम चल पा रहे हैं। क्योंकि हम कोई भी प्रश्न और मौलिक प्रश्न पूछ पाने की स्वाभाविक योग्यता न तो स्वाभाविक रूप से धारण कर रहे हैं और न ही धारण करने की योग्यता ही विकसित करना चाहते हैं। इसे आप चाहें तो अंग्रेजी में कोलोनियल हैंगओवर कह सकते हैं। हम कुछ पुस्तकों और विशेषकर अंग्रेजी में लिखित पुस्तकों में दिये गये बातों और सूचनाओं के आलोक में ज्ञानी और विद्वान कहलाकर अपनी इतिश्री कर लेना चाहते हैं। वास्तव में यह भारतीय ज्ञान परम्परा के साथ खिलवाड़ है। यही बात विज्ञान को, प्रज्ञा चिति विद्या ज्ञान से काटकर अलग कर देती है और हम ज्ञान को समग्रता में न समझ पाने की गलती करते जा रहे हैं।
मौलिक प्रश्न खड़े ही हम तब कर पाते हैं; जब हम मौलिक चिन्तन के धरातल पर जाते हैं और मौलिक चिन्तन के धरातल पर हम तब जाते हैं, जब हम दृष्टिगत तत्वों, पदार्थों, घटनाओं के विषय में स्वाभाविक चिन्तन करना आरम्भ करते हैं और वह चिन्तन हमें अपरिमित या इनफिनिट दिशा में ले जाता है; दृश्य से अदृश्य तक, मूर्त से अमूर्त तक और स्थूल से सूक्ष्म तक देख पाने की दिशा में ले जाता है। यह देखकर विश्वास करने जैसा नहीं; बल्कि विश्वास करके देखने का रहस्य है। जब हम केवल विज्ञान की बात करते हैं तो हम लौकिक चीजों को देखकर विश्वास करते हैं और अलौकिक चीजों पर अविश्वास करते हैं। लेकिन जब हम समेकित ज्ञान परम्परा (प्रज्ञा चिति विद्या विज्ञान ज्ञान) की बात करते हैं तो उसमें, देखकर विश्वास करने और विश्वास करके देख पाने जैसी दोनों बातें एक साथ शामिल होती हैं। अगले चरण में हमारा वह चिन्तन हमें केवल सृष्टि के तत्वों पदार्थों और घटनाओं के स्थूल रूप तक ही सीमित नहीं रहने देता; बल्कि हमें उनके नियन्त्रक संचालक और निर्माता अर्थात सृष्टि के स्रष्टा के विषय में भी चिन्तन मनन और विचार करने के लिये प्रेरित एवं बाध्य करता है। वह केवल नियमों के खोजने वाले तक ही नहीं; नियमों के सर्जक तक पहुँचने को प्रेरित और बाध्य करता है, तब हमें पता चलता है कि वह नियन्त्रक संचालक और निर्माता कोई अलौकिक दिव्य या पारलौकिक सत्ता या शक्ति है। अर्थात सृष्टि या प्रकृति के नियम, सृष्टि और स्रष्टा सबको जानना ही समग्र ज्ञान है तथा उसी स्रष्टा को कोई ब्रह्म कहता है, उसे ही कोई आदि कहता है, उसे ही कोई अनन्त कहता है और उसे ही कोई जगत का हेतु कहता है और उसे ही विश्वास करके, देखा समझा जाना जा सकता है; वह देखकर विश्वास करने की चीज नहीं है। आज जिसको केवल विज्ञान की मृग मरीचिका के कारण श्रेष्ठता का भ्रम है; वही इसमें बड़ी गलती करके विज्ञान को अभिशाप बना रहा है और विज्ञान इस हेतु से केवल शिक्षा परम्परा को ही नहीं सम्यक मूल्य को प्रदूषित कर रहा है। यदि हम इन सारे तन्तुओं को समझने की चेष्टा करते हैं, तब उस चेष्टा के साथ हमारा चिन्तन आरम्भ होता है। तब हमारे अन्दर विद्या और ज्ञान जनित प्रश्न जन्म लेते हैं। जिन मौलिक प्रश्नों को लेकर महर्षि वेदव्यास, महर्षि बाल्मीकि, चरक, सुश्रुत, जैमिनी, कणाद, कपिल, आद्यशंकर, श्रीनिवास रामानुजन आदि जैसे लोग भारत की दार्शनिक और ज्ञान परम्परा के आधार और वाहक बने। इसको और व्यवस्थित समझने के लिये भारत की भक्त, साधु, सन्त, महात्मा, मुनि, ऋषि, महर्षि परम्परा को भी समझना पड़ेगा। ये केवल शब्द और शब्द प्रयोग के समानार्थी भेद मात्र नहीं हैं। ये सभी अपने अन्दर विराट अर्थ समुच्चय धारण किये हुये हैं। इसीलिये शब्द, ब्रम्ह रूप होता है; क्योंकि हम जो उच्चारण करते हैं, वह ध्वनियों में व्यक्त होता है। ध्वनियाँ व्यक्त होते समय नाद करती हैं; नाद सदैव ऊँकारमय होता है और जो भी ऊँकारमय होता है, वह ब्रम्हमय होता ही है। इसीलिये दिखता नहीं; लेकिन अस्तित्व में होता। जैसे आप जब किसी शब्द का उच्चारण करते हैं तो वह दिखायी तो नहीं देता; किन्तु अस्तित्ववान तो होता है। यह अमूर्त से मूर्त रूप का स्थापित सत्य है। यहाँ हम इसके व्याकरणिक भेद में नहीं जायेंगे; उसकी कभी अलग से चर्चा करेंगे।
जब भी हम किसी तत्व जीव पदार्थ और घटना के विषय में चिन्तन मनन करते हैं तो हम उसके उत्पत्ति, उसके उत्पत्ति के कारण, उसके उत्पत्ति के हेतु और उसके उत्पत्ति कर्ता के विषय में स्वाभाविक रूप से उन्न्मुख होते चले जाते हैं। इसलिये इस चिन्तन प्रक्रिया में ही हम स्थूल से सूक्ष्म, लौकिक से अलौकिक या पारलौकिक, दृश्य से अदृश्य, एवं साकार से निराकार की स्थिति को भी समझने का प्रयत्न करने लगते हैं। क्योंकि प्रकृति में विद्यमान तत्व जीव पदार्थ बहुत से ऐसे हैं, जिनकी हम सहजता से उत्पत्ति, उत्पत्ति के कारण और संरचना आदि को समझ नहीं पाते हैं। तब यह मानना अवश्यसम्भावी हो जाता है कि इनको उत्पन्न करने वाली कोई न कोई ऐसी शक्ति अवश्य है; जिसने न केवल इनको उत्पन्न किया है, बल्कि इनका नियामक नियन्त्रक और संचालक भी है। उदाहरण के लिये सूर्य, सौर्यमण्डल, पृथ्वी; पृथ्वी पर विद्यमान जल, स्थल और वायुमण्डल; स्थलमण्डल पर विद्यमान पर्वत, पठार और मैदान और यहाँ तक कि विभिन्न प्रकार के महासागर और पर्वतों आदि का निर्माण कब कैसे और किसके द्वारा किया गया?! इसका विचार करते-करते हम उत्सुकतावश उस अलौकिक पारलौकिक अदृश्य या निराकार सत्ता अर्थात स्रष्टा की समझ की दिशा में जाते हैं; जो समझ हमें सृष्टिगत चीजों की समझ दे देता है। वास्तव में सृष्टि के तत्व दो प्रकार के होते हैं। एक- दृष्टिगत और दूसरा- अदृष्टिगत होता है। एक दृश्यमान और दूसरा अदृश्यमान होता है। एक वस्तु ऐसी होती है जिसको देखकर हम विश्वास करते हैं और दूसरी ऐसी वस्तु होती है जिस पर विश्वास करके हम देख पाते हैं। अर्थात लौकिक चीजों में भी यह रहस्य विद्यमान है और इसी कारण इस दार्शनिक पक्ष की हम दूसरे प्रकार की व्याख्या इस उदाहरण से करते हैं- जैसे कि कोई व्यक्ति या इस जैसी कोई दृष्टिगत तत्व है, इसको देखकर हम इस पर विश्वास करते हैं। लेकिन भावावेश, प्रेम, दया, करुणा आदि ऐसे तत्व हैं, जिनको हम विश्वास करके देख पाते हैं या समझ पाते हैं। इस दृश्य और अदृश्य को समझ पाने अर्थात इसके भेद को जान पाने की प्रक्रिया ही वह प्रक्रिया है जो सृष्टि के उस पार हमारी चिन्तन धारा को ले जाती है। वही चिन्तन धारा हमें सृष्टि के आधार तत्व या नियामक नियन्त्रक तत्व या अलौकिक सत्ता या पारलौकिक सत्ता या ब्रह्म को समझने की शक्ति देती है। बिना इसको समझे और स्वीकार किये, ज्ञान और शिक्षा क्षेत्र भ्रमित और अभिशप्त रहेगा।
इसको समझने के लिये हमको साधना की आवश्यकता होती है। साधना के बहुत सारे अंग एवं उपांग उसमें सहायक होते हैं। अब कोई यदि यह कहता है की सृष्टि के परे या सृष्टि के ऊपर और कुछ नहीं है या उसका अस्तित्व नहीं है या वह दृश्यमान नहीं है, इसलिये उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता! तो उसे आप कुछ समझा नहीं सकते; बल्कि उसके सामने ऐसे प्रश्नों की झड़ी लगा सकते हैं, जिन प्रश्नों के उत्तर खोजते खोजते उसको विवश हो जाना पड़ता है कि वह उस स्रष्टा को मानने स्वीकार करने और उसके अस्तित्व को आत्मसात करने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं हो। इसलिये वैदिक दर्शन में सृष्टि के विविध तत्वों को दैवी तत्व मानने का विधान है। ये दैवी तत्व दृश्य और अदृश्य दैवी तत्व हैं, जिनको स्वीकार कर हम इनके अदृश्य अधिष्ठाता देव और देवियों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करते हैं। उदाहरण के लिये वर्तमान समय में संसाधन कहे जाने वाले सभी तत्व वेदों के देवता हैं और उनका अधिष्ठाता देव सूर्य और अधिष्ठात्री देवी माता गायत्री हैं। ठीक इसी प्रकार पौराणिक दर्शन में दृश्य एवं अदृश्य तत्वों को दैवी तत्व मानकर या मूर्ति तत्व मानकर स्वीकार करने और काल की सीमा से परे अलौकिक तत्व ब्रह्मा विष्णु महेश या महालक्ष्मी महासरस्वती महाकाली को मानकर व्यवहार करने का विधान है। इनको स्वीकार करना सृष्टि और जगत को ही स्वीकार करना नहीं है; बल्कि विज्ञान कहे जाने वाले विषय को भी सामुच्चायिक रूप में स्वीकार करने जैसा है। क्योंकि किसी भी तत्व की यदि किसी भी रूप में कहीं भी उपस्थिति है, तो वह किसी कार्य का परिणाम है और यदि कोई कार्य या क्रिया हुई है तो उस क्रिया को करने वाला कोई कर्ता भी है। वह कर्ता कौन है? कैसा है? उसका क्या मूल्य है? उसके द्वारा बनाये गये नियम क्या हैं? उनका संज्ञान लेना या पता करना सामुच्ययिक दार्शनिक परम्परा या भारतीय दार्शनिक परम्परा का हेतु है। इसलिये हम जब इसका विस्तृत विचार करते हैं तो पाते हैं कि भारत की ज्ञान परम्परा वास्तव में भारत की दार्शनिक परम्परा ही है। वर्तमान में जिसको हम भारतीय ज्ञान परम्परा कहकर इसको तिरोहण की दिशा में ले जा रहे हैं; वास्तव में वह सूचना संग्रहण और सूचना एवं सन्दर्भ प्रस्तुति परम्परा मात्र है। सूचना संग्रहण, सूचना प्रस्तुति; सूचना पुनःसंग्रहण, सूचना पुनःप्रस्तुति; मूल बात को भटकाती जाती है और एक समय ऐसा आता है कि, मूल बात अपना अस्तित्व खो देती है। यह क्रिया न तो ज्ञान परम्परा का सम्वर्धन करती है, न संरक्षण और न वहन। भारतीय ज्ञान परम्परा को जीवन्त बनाने अर्थात आधार को मजबूत करने के लिये मूलमौलिक, मौलिक बातों के सहारे आगे बढ़ना पड़ेगा; हाँ यदि चाहें तो हम भाष्य और पुनःभाष्य द्वारा इसके वाहक बन सकते हैं। भारतीय ज्ञान या दार्शनिक परम्परा के लिये अनिवार्य है कि आपने नया क्या किया या बताया या जोड़ा? स्पष्ट हो। अब तक जो (प्रकृति के रहस्य या नियम) नहीं जाना गया है, उसको जानना मौलिक ज्ञान है; जो कहीं (स्थान/ समय) जाना जा चुका है, लेकिन हम नहीं जानते, इसलिये नये तरीके से जानना, यथार्थ ज्ञान है; जो जाना जा चुका है और हम भी जानते हैं, उसी में कुछ और जानना परिशोधित ज्ञान है; जाने हुए को किंचित संशोधन के साथ या भाष्य करके जानना, परिमार्जित ज्ञान है तथा जाने हुए को नये कलेवर में प्रस्तुत करना परिवर्तित ज्ञान है। लेकिन इनमें वास्तविक ज्ञान मौलिक और यथार्थ ज्ञान ही है और वही सम्यक या समग्र ज्ञान है।
इसलिये इन सब बातों पर विचार करते समय हमारे सामने भारतीय ज्ञान परम्परा के केवल चार सोपान उभरते हैं। पहला- मौलिक ज्ञान परम्परा, दूसरा- यथार्थ ज्ञान परम्परा, तीसरा- आरोपित या परिशोधित ज्ञान परम्परा और चौथी- संकलित या परिमार्जित ज्ञान परम्परा (भाष्य और पुनःभाष्य परम्परा)। इनमें से पहली और दूसरी ही वास्तविक ज्ञान परम्परा है। जिनमें मौलिक प्रश्न पूछना अर्थात सृष्टि और सृष्टि के नियामक सत्ता के बारे में आरम्भिक मौलिक प्रश्न पूछना; इस प्रश्न का उत्तर पाना और उत्तर पाकर उसका प्रकटीकरण करना शामिल है। अर्थात सृष्टि और सृष्टि के निर्माता एवं नियन्ता के द्वारा निर्मित नियमों की खोज और उन नियमों का अलौकिक या लौकिक उपयोग। दूसरे, मौलिक ज्ञान परम्परा में वही प्रश्न जगत में कहीं अन्यत्र भी पश्चात पूछा गया, पूछकर उसका उत्तर पाने की प्रक्रिया की गयी और उत्तर प्रस्तुत किया गया, वह मौलिक ज्ञान परम्परा का हिस्सा है। अर्थात पहली बार सृष्टि के दृश्य और अदृश्य तत्व एवं सृष्टि की नियामक सत्ता के विषय में प्रश्न पूछना या प्रश्न का कारक बनना मौलिक ज्ञान परम्परा बनेगी। वही प्रश्न अनजाने में या बिना यह जाने कि यह पूर्व में प्रश्न किया जा चुका है, पुनः प्रश्न करना उस प्रश्न का समाधान करना और समाधान का उत्तर प्रस्तुत करना यथार्थ ज्ञान परम्परा है। तीसरे प्रकार की आरोपित ज्ञान परम्परा में हम प्रश्न पूछने की प्रक्रिया में या प्रश्न उत्पन्न करने की प्रक्रिया में शामिल नहीं होते; बल्कि प्रश्न कर्ता का आश्रय पाकर प्रश्न का उत्तर ढूंढने की प्रक्रिया का हिस्सा होकर उत्तर पाने में सहयोग करते हैं। अर्थात हम विद्या का कारक ना होकर विज्ञान और ज्ञान का कारक मात्र बनते हैं लेकिन आश्रय विद्या का ही होता है। इस तीसरे सोपान में हम प्रज्ञावान होने से वंचित हो जाते हैं। प्रज्ञावान हम पहले और दूसरे सोपान में ही कहलाने के अधिकारी बनते हैं; क्योंकि प्रज्ञावान वही हो सकता है, जो विद्या विज्ञान और ज्ञान तीनों प्रक्रियाओं से क्रमशः गुजर चुका हो। चौथे सोपान में हम पहले दूसरे और तीसरे द्वारा किये गये कार्यों को सीखने जानने समझने की नहीं; बल्कि उनके पुनःप्रस्तुति में, उनकी व्याख्या विवेचन विश्लेषण में, उसके भाष्य करने में अपनी योग्यता का परिचय देते हैं। जिन्होंने पुस्तकों का सन्दर्भ और आश्रय लेकर पुस्तकों का सृजन किया, उन पुस्तकों को पढ़कर जिन्होंने उद्धरण दिया! वे किसी भी रूप में विद्वत्ता की कोटि में नहीं आते और यदि आते हैं या उनको आया हुआ माना जाता है तो इसका आशय है कि वे ज्ञानरहित परम्परा के पोषक हैं, औपनिवेशिक मानसिकता में जी रहे हैं। वे न तो ज्ञान परम्परा के वाहक हैं और न संरक्षक और सम्वर्धक। लेकिन इसी कारण ये पाँचवें प्रकार के लोग भारतीय ज्ञान परम्परा और भारतीय दार्शनिक परम्परा के तिरोहित होने की प्रक्रिया कारक जरूर हैं। इसलिये हमें सन्दर्भ प्रस्तुत कर, लेखकों और उनकी पुस्तकों का उद्धरण मात्र लेकर विद्वान कहलाने और इस आधार पर वृद्धि विकास प्रगति उन्नति की इकाई लिखने और शिक्षा तन्त्र को नष्ट करने से बचना होगा। सारी समस्या की जड़, विज्ञान को ही सब कुछ समझना और विज्ञान को समग्र ज्ञान से काटकर देखने और व्यवहार करने के कारण है।
कौस्तुभ नारायण मिश्र
चिति, कर्णावती में अक्टूबर 2023 में प्रकाशित।
