भारतीय ज्ञान परम्परा (क्रमशः तीन) : विश्वास परमात्मा तथा कर्म का फलन

कुछ अभारतीय और अभारतीय मानसिकता के लोगों ने अनेक अवसरों पर भारतीय ज्ञान परम्परा और भारतीय दर्शन बोध को निराशावादी कहा है। निराशावादी उस सिद्धान्त को कहते हैं जो सृष्टि और विश्व को विषादमय चित्रित करता है। निराशावाद के अनुसार संसार में आशा नहीं है अर्थात लौकिकता एवं अलौकिकता दोनों पर अविश्वास है। इस अर्थ में अभारतीय चिन्तक विचारक आशा और विश्वास का अर्थ नहीं समझते हैं; क्योंकि भारत में आशावादिता और विश्वास, दुनिया में कहीं से भी अधिक है। आशा और विश्वास सदैव लौकिक बातों पर होता है और लौकिकता का अस्तित्व बिना अलौकिकता के सम्भव नहीं है। इसलिये अभारतीय लोगों द्वारा, भारतीय ज्ञान परम्परा और भारतीय दर्शन बोध को निराशावादी कहना आधारहीन और बोधहीनता का द्योतक है। विश्व अन्धकारमय एवं दु:खात्मक है, यह सत्य नहीं है। निराशावाद का प्रतिकूल सिद्धान्त ’आशावाद’ है। इसका तात्पर्य यह कि अभारतीय लोग अपनी निराशावादिता को छिपाने के लिये भारत के विषय में ऐसा कहते हैं। आशा मन की एक प्रवृत्ति है, जो विश्व को सुखात्मक समझती और महसूस करती है। हम यहाँ इसका स्पष्ट परीक्षण करेंगे कि यूरोपीय विद्वानों का यह मत कि भारतीय दर्शन निराशावाद से ओतप्रोत है, यह दोषारोपण मात्र है अथवा इसका कोई आधार भी है! प्रारम्भिक तौर पर यह कहना अनुचित न होगा कि भारतीय दर्शन को निराशावादी कहना भ्रम फैलाने जैसा है। भारतीय दर्शन का सिंहावलोकन यह प्रमाणित करता है कि भारतीय विचारधारा में निराशावाद का खण्डन और आशावाद का मण्डन हुआ है। भारतीय ज्ञान परम्परा के इस तृतीय सोपान में हम इन्हीं बिन्दुओं के विविध पक्षों की विस्तृत चर्चा करेंगे। भारत के सभी मौलिक विचारक दार्शनिक अर्थात ज्ञान परम्परा के वाहक विश्व को दु:खमय मानते हैं, ऐसा अभारतीय मानसिकता अनेक बार पर्याप्त आधार और कारण बताकर करती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। लेकिन यदि ऐसा है भी तो वे विश्व के दु:खों को देखकर मौन नहीं हो जाते, बल्कि वे दु:खों का कारण जानने का प्रयास करते हैं और भारतीय दर्शन परम्परा का प्रत्येक अनुभाग यह आश्वासन देता है कि मानव अपने दु:खों का निरोध या शमन कर सकता है। 

 

दुःखों के शमन करने या तिरोहित करने के उपक्रम को ही भारत में मोक्ष कहा जाता है। मोक्ष का मार्ग या विचार अभारतीय चिन्तन या ज्ञान परम्परा के हेतु में नहीं है। चार्वाक को छोड़कर यहाँ का प्रत्येक दार्शनिक मोक्ष को ही जीवन का परम लक्ष्य मानता है और भारतीय ज्ञान परम्परा इसको स्वीकार करती है। सच पूछा जाय तो भारत में मोक्ष को पाने के लिये ही आशा और विश्वासपूर्ण दर्शनधारा का विकास हुआ है। इसीलिये भारतीय चिन्तन परम्परा, दार्शनिक परम्परा एवं ज्ञान परम्परा की दृष्टि से मोक्ष ऐसी अवस्था है; जहाँ दु:खों का पूर्णतया अभाव होता है। इसको आनन्दमय अवस्था कहा है। भारतीय दृष्टि में केवल मोक्ष के स्वरूप का वर्णन करके चुप हो जाने मात्र का विधान नहीं है; बल्कि मोक्ष पाने कि लिये प्रयास एवं प्रयत्न या उपाय एवं उपक्रम करने का भी विधान बताया गया है। सभी में सबके लिये मोक्ष को पाने के लिये संयत और सुगम मार्ग का निर्देश किया गया है। बुद्ध के कथानानुसार मानव! मोक्ष को ‘अष्टांगिक’ मार्ग जैसे- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक आजीविका, सम्यक कर्मान्त, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि के द्वारा प्राप्त कर सकता है। जैन दर्शन में मोक्ष को पाने के लिये सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र नामक त्रिमार्ग का निर्देश किया गया है। सांख्य दर्शन और शंकराचार्य जी के दर्शन के अनुसार मानव, ज्ञान के द्वारा अर्थात वस्तुओं के यथार्थ अर्थात लौकिक स्वरूप को जानकर और सकारात्मक मूल्याँकन करके मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मीमांसा दर्शन के अनुसार मानव कर्म के द्वारा मोक्ष की अवस्था को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार भारतीय दर्शन में मोक्ष और मोक्ष के मार्ग की अत्यधिक चर्चा है; जिसके कारण भारतीय दर्शन को निराशावादी कहना भूल है। चूँकि भारत के सभी दर्शन दु:खों को दूर करने के लिये अपनी योग्यता प्रदर्शित करते और मार्ग निर्देश करते हैं; इसलिये उन्हें साधारण एवं विशेष दोनों अर्थों में निराशावादी कहना भ्रामक है। निराशावाद का अर्थ है ‘कर्म का परित्याग कर देना’! उसी दार्शनिक परम्परा को निराशावादी कहा जा सकता है, जिसमें कर्म से पलायन का मार्ग निर्देश किया गया हो। कर्म करने से आशा का संचार होता है। कर्म के आधार पर ही मानव अपने भविष्य में जीवन का सुनहरा स्वप्न देखता है। यदि निराशावाद का इसका विपर्य अर्थ है, तब भारतीय विचारधारा को निराशावादी कहना गलत होगा। इसके पुष्ट प्रमाण हैं कि यहाँ का प्रत्येक दार्शनिक कर्म करने का आदेश देता है। जीवन के कर्मों से भागने की तनिक भी प्रवृत्ति भारतीय विचारकों को मान्य नहीं है। शंकराचार्य का समूचा जीवन, जिनकी मृत्यु अल्पावस्था में हुई, कर्म का अनोखा उदाहरण उपस्थित एवं प्रकट करता है। महात्मा बुद्ध का जीवन भी कर्ममय और अन्ततः मोक्ष पाने का रहा है। भारतीय दर्शन को निराशावादी इसलिये भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि यह अध्यात्मवाद से ओतप्रोत है। अध्यात्मवाद उसे कहते हैं जो जगत में शाश्वत नैतिक व्यवस्था मानता है, जो अलौकिकता के मूल्य को समझता और मानता है और जिससे प्रचुर आशा का संचार होता है।

 

भारतीय दर्शन निराशावादी नहीं है, इसकी अभिव्यक्ति भारत का साहित्य भी करता है। भारत के समस्त समसामयिक नाटक सुखान्त हैं। जब भारतीय साहित्य भी आशावाद का संकेत करते हैं, जिसका लोक से सीधा या प्रत्यक्ष साहचर्य रहता है तो फिर भारतीय दर्शन को निराशावादी कैसे कहा जा सकता है? आखिर भारतीय दर्शन को निराशावादी किस पूर्वाग्रह के कारण कहा जाता है? उनका विचार है कि- क्योंकि भारत का दार्शनिक या भारतीय मनीषा शेष विश्व की वस्तुस्थिति या व्यवस्था अर्थात संस्कार सभ्यता और संस्कृति को देखकर विकल हो जाता है; क्योंकि अभारतीय स्थिति स्थायी और दूरदर्शी मानवीय मूल्यों वाली नहीं प्रतीत होती है। इस अर्थ में वह निराशावादी है; परन्तु वास्तव में वह निराश होता नहीं, बल्कि विचार के समाधान के उद्वेग में निमग्न हो जाता है, जिससे अभारतीय लोगों को ऐसा प्रतीत होने लगता है। इससे प्रमाणित होता है कि निराशावाद भारतीय दर्शन का आरम्भ अर्थात कर्म में प्रवृत्त होने का आरम्भ बिन्दु है, अन्त नहीं। भारतीय दर्शन का आरम्भ निराशा में दिखायी पड़ता है, होता नहीं। उसका अन्त या निष्कर्ष आशा में होता है। वास्तव में भारतीय चिन्तन और दार्शनिक परम्परा वहाँ तक निराशावादी है; जहाँ तक वह विश्व व्यवस्था को अशुभ और मिथ्या मानते हैं। परन्तु जहाँ तक इन विषयों से छुटकारा पाने अर्थात कोई सम्बन्ध न रखने का सम्बन्ध है, वे आशावादी हैं। यहाँ यह विषय महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारतीय चिन्तन सदैव से ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणात्मक व्यवहार पर विश्वास करती है; इसलिये सम्बन्ध न रखे, यह सम्भव नहीं और सम्बन्ध न रखना मानवीय भी नहीं है। इसी कारण विश्व या जगत के विषय में स्वाभाविक विचार यहाँ के लोग या यहाँ की मनीषा करती है। जब हम भारतीय मनीषा कहते हैं तो इसमें- प्रज्ञा, विद्या, विज्ञान, ज्ञान, विवेक, बुद्धि सब एक साथ सन्निहित मानना चाहिये। इस प्रकार हम देखते हैं कि निराशावाद भारतीय दर्शन का प्रस्थान बिन्दु है, निष्कर्ष नहीं। आशय यह है कि भारतीय दर्शन का आरम्भ दुःख से होता है; परन्तु यहाँ के दार्शनिकों को दुःख से छुटकारा पाने पर पूर्ण विश्वास है। यह अपने आप में सबसे बड़ा आशावाद है। भारतीय दर्शन या भारतीय मनीषा आरम्भ में भी निराशावादी केवल इसलिये दिखायी पड़ती है; क्योंकि निराशावाद के अभाव में आशावाद का अनुभव मूल्याँकन और परिभाषित नहीं किया जा सकता। कोई चीज सफेद इसलिये है; क्योंकि कोई चीज काली है। कहना चाहिये कि, मैं आशावाद में विश्वास करता हूँ; लेकिन साथ ही यह भी कहता हूँ कि कोई भी आशावाद तब तक सार्थक नहीं है, जब तक उसमें आरम्भिक निराशावाद का पुट न समाया हुआ हो। इसी कारण आशावाद के आगोश में जाने या रहने के लिये यह आवश्यक है कि आप निराशावाद का अनुभव कीजिये, उसकी सराहना कीजिये। क्योंकि ‘आशावाद हमें नैराश्यवाद से मुक्त करता है तो, निराशावाद हमें विपत्तियों से सावधान कर देता है। दूसरी तरफ आशावाद झूठी निश्चिन्तताओं को प्रश्रय देता है और हमें आश्रित बनने की ओर ले जाता है; इस कारण निराशा एवं आशा का सामंजस्य ही यशस्वी आशा का मार्ग प्रशस्त करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय दर्शन का आरम्भ निराशावाद में होना प्रमाण पुष्ट है; क्योंकि वह आशावाद को सार्थक और सर्जनात्मक बनाता है, कर्म को और पुष्ट करता है। अतः अभारतीय विद्वानों का यह मत कि भारतीय दर्शन पूर्णतया निराशावादी है, भ्रान्तिमूलक और असत्य है।

 

भारतीय दृष्टि से एक दूसरा महत्वपूर्ण विषय है कि यहाँ, चार्वाक को छोड़कर प्रत्येक चिन्तक और दार्शनिक आत्मा की सत्ता में विश्वास करता है। उपनिषद से लेकर वेदान्त तक आत्मा की खोज पर जोर दिया गया है और उसके अस्तित्व को स्वीकारा गया है। यहाँ के ऋषियों का मूलमन्त्र है ‘आत्मानं विद्धि’ अर्थात अपने आपको जानो। इसलिये जब तक आप आत्मा में विश्वास नहीं करते हैं, तब तक आप स्वयं को नहीं जान सकते। इस अर्थ में भारतीय चिन्तन एवं दर्शन धारा लौकिक के साथ-साथ अलौकिक और पारलौकिक अस्तित्व को न केवल मानती है; बल्कि उसके मूल्य को भी स्वीकार करती है। इसी कारण भारतीय दर्शन अध्यात्मवाद का प्रतिनिधित्व करता है; क्योंकि यहाँ स्थूल के साथ-साथ सूक्ष्म को समझने पर भी बल दिया गया है। वास्तव में सूक्ष्म क्या है? इसको इस रूप में आसानी से समझ सकते हैं। मौलिक प्रश्न करना विद्या का अधिष्ठान है, जैसे जेम्सव्हाट ने प्रश्न किया कि- केतली का ढक्कन अंगीठी पर रखने पर बार-बार क्यों उठता गिरता है? फिर वह परीक्षण करते हैं और वैज्ञानिक मार्ग से उत्तर प्राप्त करते हैं कि, केतली का ढक्कन इसलिये उठता-गिरता है; क्योंकि भाप में शक्ति होती है। एक पंक्ति का यह वाक्य ‘भाप में शक्ति होती है’ ही ज्ञान है; जो विद्या रूपी प्रश्न एवं विज्ञान रूपी परीक्षण के कारण सामने आता है। लेकिन फिर यहाँ इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि, जेम्सव्हाट ने यह बताया अर्थात सृष्टि के एक नियम को खोज निकाला कि ‘भाप में शक्ति होती है’; लेकिन उन्होंने भाप में शक्ति पैदा नहीं किया। उसका अस्तित्व तो था ही, केवल उसको उन्होंने सार्वजनिक किया। फिर सवाल यह है कि, भाप में शक्ति क्यों है? किसके कारण होती है? किसने इस नियम या व्यवस्था का सृजन किया? वह सर्जक कौन है? इसी का उत्तर है कि वह सर्जक एक अलौकिक सत्ता है। उसी सत्ता को आप ईश्वर या परमात्मा या परम आत्मा कहते हैं; यह काल वाह्य है, अनन्त अपरिमित, अनादि है। क्योंकि कुछ भी जो लौकिक रूप में जगत में है, वह किसी क्रिया का परिणाम है और यदि क्रिया हुई है तो उसका कोई कर्ता है! तो फिर वह कर्ता कौन है और उसका काल क्या है? यही आपकी आत्मा से जुड़कर आपके अस्तित्व और अस्मिता को आधार प्रदान करती है। आत्मा, शरीर के साथ मिलकर अर्थात सूक्ष्म तत्व, स्थूल तत्व के साथ मिलकर ईश्वर के भाव को व्यक्त करता है; तात्पर्य यह कि आत्मा का माया जगत में प्रवेश का हेतु ही उसके ईश्वर भाव को व्यक्त करता है अर्थात वह आत्मा और उसका केन्द्र परमात्मा ही ब्रम्ह का रूप और स्वरूप है। कुल का यहाँ अर्थ यह हुआ कि जितना शरीर एवं शरीर की भाव तथा क्रिया को समझना जरूरी है, उतना ही उसके सूक्ष्म अर्थात आत्म भाव एवं क्रिया को समझना जरूरी होता है। बिना इसके आप जगत की पूर्णता की कल्पना नहीं कर सकते। बिना इसके आप जगत की गत्यात्मकता को नहीं समझ सकते। आत्मा सूक्ष्म है, अलौकिक है, परमात्मा का रूप है; इसलिये वह अजर और अमर है। आत्मा का शरीर या सूक्ष्म का स्थूल से संयुग्म ही जीवन और आत्मा का शरीर से अलगाव ही मृत्यु है। जीवन और मृत्यु के बीच का भाव और क्रिया ही जगत है। आत्मा और शरीर में यह मुख्य अन्तर है कि- आत्मा अविनाशी है, जिसके कारण जीवन की अस्मिता और अस्तित्व का उदय होता है। जबकि शरीर का विनाश होता है, जिसके कारण जीवन की अस्मिता और अस्तित्व शून्य हो जाती है अर्थात मृत्यु को वरण कर लेती है। इसलिये जगत की अस्मिता एवं अस्तित्व के लिये आत्मा और शरीर एक दूसरे का पर्याय या आवश्यकता बनकर उपस्थित होते हैं।

 

चैतन्य विशिष्ट या चेतना युक्त देह या शरीर ही जीवन है। जीवन के लिये आत्मा शरीर से पृथक नहीं है। यहाँ इसके दो पक्ष उभड़ते हैं और इसलिये लोग दो प्रश्न पूछते हैं, एक- आत्मा का वह स्वरूप जब वह शरीर से युक्त रहती है और दूसरा- जब आत्मा शरीर से मुक्त हो जाती है। शरीर से मुक्त आत्मा का रूप फिर कहाँ विद्यमान रहता है? इसका उत्तर स्पष्ट है और आगे इसकी सविस्तार चर्चा की गयी है। जब आत्मा शरीर से मुक्त होती है तो वह या तो दूसरी शरीर धारण कर लेती है अथवा परमात्मा में विलीन हो जाती है। परमात्म तत्व इसीलिये अलौकिक और पारलौकिक है कि वह आत्मा को असंख्य रूपों में प्रकट कर सकती है अर्थात एक परमात्मा से असंख्य आत्म तत्व प्रकट होते हैं। इसी को एकता में अनेकता या एको अहम बहुष्याम कहा जाता है। सृष्टि या प्रकृति की आवश्यकता के अनुसार पुनः परमात्मा में विलीन हो जाती है, इसको अनेकता में एकता कहते हैं। लेकिन एकता से अनेकता का भाव ही मूलभूत या आद्य भाव है; जबकि अनेकता में एकता उसका फलक या परिणाम मात्र है। शरीर से आत्मा के मुक्त होने को ही कभी कोई, शरीर की तरह आत्मा को भी विनाशी कह सकता है; क्योंकि आत्मा वस्तुतः शरीर ही है और उसी रूप में प्रकट होती है; परन्तु ऐसा कहना नहीं चाहिये। ऐसा कहना अज्ञानता है; फिर भी ऐसा कहने को ही ‘स्थूलवाद’ कहते हैं। ऐसा कहना अज्ञानता इसलिये है; क्योंकि आत्मा प्रकट रूप में दिखायी दे या न दे; उसकी अस्मिता एवं अस्तित्व सदैव कायम रहती है और इसीलिये वह पुनः दूसरी शरीर धारण करती है। इस भाव को हमें ‘सूक्ष्मवाद’ कहना चाहिये; क्योंकि यही यथार्थ है। चार्वाक की दृष्टि में इसको ‘देहात्मवाद’ और ‘अदेहात्मवाद’ कहा जाता है। ‘वेदान्त–सार’ में चार्वाक द्वारा प्रमाणित आत्मा के सम्बन्ध में चार विभिन्न मतों का उल्लेख किया गया है। कुछ चार्वाकों ने आत्मा को शरीर कहा है; कुछ चार्वाकों ने आत्मा को ज्ञानेन्द्रिय के रूप में माना है; कुछ चार्वाकों ने कर्मेन्द्रिय को आत्मा कहा है; कुछ चार्वाकों ने मनस को आत्मा कहा है। चार्वाकों ने आत्मा के अमरत्व का निषेध कर भारतीय विचारधारा में निरूपित आत्मा के विचार का खण्डन किया है; यह खण्डन निरर्थक और आधारहीन है। चार्वाक के आत्मा सम्बन्धी विचार को भौतिकवादी मत कहा जाता है। बुद्ध ने क्षणिक आत्मा की सत्ता को स्वीकार किया है। उनके अनुसार आत्मा चेतन का प्रवाह है। गौतम बुद्ध ने वास्तविक आत्मा (रीयल सेल्फ) को भ्रम कहकर व्यवहारवादी या अनुभववादी आत्मा (इम्पीरिकल सेल्फ) को माना जो निरन्तर परिवर्तनशील रहती है। बुद्ध के आत्मा सम्बन्धी विचार को अनुभववादी मत कहा जाता है। जैनों ने जीवों को चैतन्ययुक्त कहा है। उपरोक्त के आलोक पुनः पुनः सवाल होगा कि, भाप में शक्ति का होना क्या है? वह सूक्ष्म रूप में तो दिखायी नहीं पड़ती! स्थूल रूप में जब अंगीठी पर रखी जाती है तो वह स्थूल रूप में प्रकट होती है। तात्पर्य यह कि स्थूल रूप में किसी चीज के दिखायी न देने से क्या उसके अस्मिता और अस्तित्व पर आप प्रश्न खड़ा कर सकते हैं? कदापि नहीं। ठीक वैसे ही आत्मा शरीर में हो तो भी उसका अस्तित्व है और नहीं है तो भी उसका अस्तित्व है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि, अस्मिता उसका सूक्ष्म पक्ष है और अस्तित्व उसका स्थूल पक्ष है। आशय यह है कि आत्मा के होने और न होने तथा दिखायी पड़ने एवं दिखायी न पड़ने पर सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता। चेतना आत्मा में निरन्तर विद्यमान रहती है; चाहे वह शरीर से युक्त हो अथवा शरीर से शरीर से मुक्त हो!

 

आत्मा में चैतन्य और विस्तार दोनों समाविष्ट है। आत्मा ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। आत्मा की शक्ति अनन्त है। उसमें पाँच प्रकार की पूर्णता सदैव विद्यमान रहती है- अनन्त चिन्तन, अनन्त वीर्य, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द। आत्मा के सम्बन्ध में न्याय और वैशेषिक ने जो मत दिया है उसे यथार्थवादी कहा जाता है। इसके अनुसार आत्मा को स्वभावतः अचेतन माना जाता है। आत्मा में चेतना का संचार तभी होता है, जब आत्मा का सम्पर्क मन, शरीर और इन्द्रियों से होता है। इस प्रकार इन दर्शनों में चेतना को इनमें प्रकट होने वाला आत्मा का आगुन्तक गुण (ऐक्सीडेंटल प्रॉपर्टी) कहा गया है। मोक्षावस्था में आत्मा चैतन्य गुण से रहित होता है। मीमांसा में भी न्याय और वैशेषिक की तरह चेतना को आत्मा का आगुन्तक धर्म माना गया है; साथ ही इसमें आत्मा को नित्य एवं विभु माना गया है। सांख्य दर्शन ने आत्मा को चैतन्य स्वरूप माना है। चेतना आत्मा का मूल गुण या लक्षण (एसेंशियल प्रॉपर्टी) है। चैतन्य के अभाव में आत्मा की कल्पना भी असम्भव है। इसीलिये उसके शरीर से युक्त होते ही शरीर जीवन्त या चेतन हो उठती है। आत्मा अनवरत या लगातार क्रम में ज्ञाता रहता है। वह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता। सांख्य ने आत्मा को अकर्ता कहा है। आत्मा का लौकिक आनन्द से अर्थात माया से कोई सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि आनन्द, गुण का फल है और आत्मा त्रिगुणातीत है।

शंकराचार्य ने भी चेतना को आत्मा का मूल स्वरूपगत लक्षण माना है। उन्होंने आत्मा को ‘सच्चिदानन्द’ (सत+चित+आनन्द) कहा है। इसलिये आत्मा न ज्ञाता है और न ज्ञान का विषय है। जहाँ तक आत्मा की संख्या का सम्बन्ध है; शंकर को छोड़कर सभी दार्शनिकों ने आत्मा को अनेक माना है। शंकर एक ही आत्मा को सत्य मानते हैं। जबकि न्याय और वैशेषिक दो प्रकार की आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं- जीवात्मा, परमात्मा। जीवात्मा अर्थात आत्मा अनेक है; परन्तु परमात्मा एक है। सत्य यह है कि आत्मा की अस्मिता और अस्तित्व दोनों परमात्मा में निहित है; यही परमात्मा, एक से अनेक और पुनः अनेक से एक का हेतु या कारण है। आत्मा या जीवात्मा सृष्टि में उतनी संख्या में हैं या रहेंगी या परमात्मा उनको उतनी संख्या में प्रकट करेगी; जितनी संख्या में जीवात्मा को अस्मिता एवं अस्तित्व की आवश्यकता होगी। यदि किसी शरीर में आत्मा है तो, वह आत्मा की एक संख्या हो गयी; दूसरे में दूसरी और तीसरे शरीर में तीसरी और इसी प्रकार क्रमशः आत्मा की संख्या प्रकट होगी। यह निर्धारित सत्य है।

 

यहाँ तीन बातों को चिन्हित करना आवश्यक है, पहला- भारतीय दर्शनों में दार्शनिक साम्यता की दृष्टि से अनेक बिन्दुओं पर साम्य है; दूसरा- अनेक बातों को लेकर असाम्य भाव है; तीसरा- चिन्तन, दर्शन एवं ज्ञान परम्परा की दृष्टि से सत्य एवं यथार्थ का भेद भी है। इन तीनों को समझना आवश्यक है। जहाँ तक साम्यता का प्रश्न है- ’कर्म सिद्धान्त’ में विश्वास तीसरी विशिष्ट साम्यता है। चार्वाक को छोड़कर भारत के सभी दर्शन चाहे वह वेद विरोधी हों अथवा वेदानुकूल हों, कर्म के नियम को मान्यता प्रदान करते हैं। इस प्रकार कर्म सिद्धान्त को छः आस्तिक दर्शनों ने एवं दो नास्तिक दर्शनों ने सहजता से अंगीकार किया है। ‘कर्म सिद्धान्त’ में विश्वास करना भारतीय विचारधारा के अध्यात्मवाद का सबूत है। ‘कर्म सिद्धान्त’ का अर्थ है, जैसा हम बोयेंगे; वैसा ही हम काटेंगे। इस नियम के अनुकूल शुभ कर्मों का फल शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल अशुभ होता है। इसके अनुसार किये हुए कर्मों का फल नष्ट नहीं होता है तथा बिना किये हुए कर्मों के फल भी नहीं प्राप्त होते हैं, हमें सदा कर्मों के फल प्राप्त होते हैं। सुख और दुःख क्रमशः शुभ और अशुभ कर्मों के अनिवार्य फल माने गये हैं। इस प्रकार ‘कर्म सिद्धान्त’ एक प्रकार से, ’कारण नियम’ है, जो नैतिकता के क्षेत्र में काम करता है। जिस प्रकार भौतिक क्षेत्र में निहित व्यवस्था की व्याख्या ‘कर्म सिद्धान्त’ करता है; यही व्याख्या विश्व में निहित व्यवस्था की दार्शनिक व्याख्या कहलाती है। इसके अनुसार, हमारा वर्तमान जीवन, अतीत जीवन के कर्मों का फल तथा भविष्य जीवन, वर्तमान जीवन के कर्मों का फल होगा। इस प्रकार अतीत, वर्तमान और भविष्य के जीवन के कालिक सोपान कारण–कार्य समीकरण में स्वाभाविक रूप से बँध जाते हैं। यदि हम दुःखी हैं तो इसका कारण हमारे पूर्व जीवन के कर्मों का फल है; यदि हम दूसरे जीवन को सुखमय बनाना चाहते हैं तो हमारे लिये अपने वर्तमान जीवन में उसके लिये प्रयत्नशील रहना होगा। अतः प्रत्येक मनुष्य अपने भाग्य का ही नहीं, भविष्य का भी निर्माता स्वयं है। वैदिक काल के ऋषियों को नैतिक व्यवस्था के प्रति श्रद्धा रहती थी; वे नैतिक व्यवस्था को ‘ऋत’ कहते थे, जिसका अर्थ होता है ‘जगत की व्यवस्था’; जिसके अन्दर नैतिक व्यवस्था स्वतः और स्वाभाविक रूप से समाविष्ट रहती है। यह ऋत का विचार उपनिषदिक दर्शन में कर्मवाद का रूप ग्रहण करता है या कर्मवाद कहा जाता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन में कर्म सिद्धान्त को ‘अदृष्ट’ कहा जाता है; क्योंकि यह दृष्टिगोचर नहीं होता, जिसमें अदृष्ट का संचालन ईश्वर के अधीन और अचेतन है। विश्व की समस्त वस्तुएँ, यहाँ तक की परमाणु भी इस नियम से प्रभावित होते हैं। मीमांसा दर्शन में कर्म के सिद्धान्त को ‘अपूर्व’ कहा गया है। मीमांसा का यह विचार न्याय और वैशेषिक के विचार का विरोध करता है। क्योंकि मीमांसा के अनुसार कर्म का सिद्धान्त स्वचालित है, इसके संचालन हेतु ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है। भारत में कर्म के सिद्धान्त का क्षेत्र तुलनात्मक रूप से सीमित माना गया है। यह उन्हीं कर्मों पर लागू होता है जो राग, द्वेष एवं वासना के द्वारा संचालित होते हैं। दूसरे शब्दों में वैसे कर्म जो किसी उद्देश्य की भावना से किये जाते हैं; कर्म के सिद्धान्त के दायरे में आते हैं। इसके विपरीत वैसे कर्म जो निष्काम किये जाते हैं; कर्म के सिद्धान्त द्वारा शासित नहीं होते हैं।

 

साधारणत: कर्म शब्द का प्रयोग कर्म के सिद्धान्त के रूप में होता है। इसका एक दूसरा भी प्रयोग है, कभी–कभी शक्ति रूप में प्रयुक्त होता है; जिसके फलस्वरूप फल की उत्पत्ति होती है। इस दृष्टिकोण से कर्म तीन प्रकार के होते हैं- संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म, संचीयमान कर्म। संचित कर्म, अतीत के कर्मों से उत्पन्न होता है; परन्तु जिसका फल मिलना अभी शुरू नहीं हुआ है। प्रारब्ध कर्म वह कर्म है जिसका फल मिलना अभी शुरू हो गया है; इसका सम्बन्ध भी अतीत के जीवन से है। वर्तमान जीवन के कर्मों को, जिनका फल भविष्य में मिलेगा, संचीयमान कर्म कहा जाता है। कर्म के सिद्धान्त के अनुसार कहा जाता है कि यह यह ईश्वरवाद (थीइजम) का खण्डन करता है। ईश्वरवाद के अनुसार ईश्वर विश्व का स्रष्टा है। ईश्वर ने मानव को सुखी एवं दुःखी बनाया है। परन्तु कर्म का सिद्धान्त मनुष्य के सुख और दुःख का करण स्वयं मनुष्य को बताकर ईश्वरवाद का विरोध करता है। ईश्वर को सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ , दयालु, इत्यादि कहा जाता है; परन्तु इस सिद्धान्त के लागू होने के कारण ईश्वर चाहने पर भी मनुष्य को उसके कर्मों के फल से वंचित नहीं कर सकता। वह व्यक्ति जो अशुभ कर्म करता है, किसी प्रकार भी ईश्वर की दया से लाभान्वित नहीं हो सकता। कर्म–सिद्धान्त के विरुद्ध तीसरा आक्षेप यह है कि यह सामाजिक सेवा में शिथिलता उत्पन्न करता है। किसी असहाय या पीड़ित की सेवा करना बेकार है, क्योंकि वह तो अपने पूर्ववर्ती जीवन के कर्मों का फल भोगता है। इस आक्षेप के विरुद्ध कहा जा सकता है कि यह आक्षेप उन्हीं व्यक्तियों के द्वारा पेश किया जाता है जो अपने कर्तव्य से भागना चाहते हैं। कर्म–सिद्धान्त के विरुद्ध चौथा आक्षेप यह किया जाता है कि कर्मवाद, भाग्यवाद (फटलिज्म) को मान्यता देता है। कर्म–सिद्धान्त, जहाँ तक वर्तमान जीवन का सम्बन्ध है, भाग्यवाद को प्रश्रय देता है; क्योंकि वर्तमान जीवन अतीत जीवन के कर्मों का फल है। परन्तु जहाँ तक भविष्य के जीवन का सम्बन्ध है, यह मनुष्य को वर्तमान शुभ कर्मों के आधार पर भविष्य जीवन का निर्माण करने का अधिकार प्रदान करता है। इस प्रकार कर्म का सिद्धान्त भाग्यवाद का खण्डन करता है। इन आलोचनाओं के बावजूद इसका भारतीय विचारधारा में अत्यधिक महत्व है। यह विश्व के विभिन्न व्यक्तियों के जीवन में जो विषमता है, उसका कारण बतलाता है। सभी व्यक्ति समान परिस्थिति में साधारणतया जन्म लेते हैं; फिर भी उनके भाग्य में अन्तर होता है। कोई व्यक्ति धनवान है, तो कोई व्यक्ति निर्धन है। कोई विद्वान है, तो कोई मूर्ख है। आखिर इस विषमता का क्या करण है? इस विषमता का करण हमें कर्म–सिद्धान्त बतलाता है। जो व्यक्ति इस संसार में सुखी है, वह अतीत जीवन के शुभ कर्मों का फल पा रहा है। इस के विपरीत जो व्यक्ति दुःखी है, वह भी अपने पूर्व जीवन के कर्मों का फल भोग रहा है। कर्म सिद्धान्त के अनुसार मानव के शुभ या अशुभ सभी कर्मों पर निर्णय दिया जाता है। यह सोचकर कि अशुभ कर्म का फल अनिवार्यतः अशुभ होता है; जिससे मानव बुरा कर्म करने में अनुत्साहित हो जाता है, उसका अन्तःकरण उसे रोकता है। इस प्रकार कर्म–सिद्धान्त व्यक्तियों को कुकर्मों से बचाता है। यह हमारी कमियों के लिये हमें सान्त्वना प्रदान करता है। यह सोचकर कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्व जीवन के कर्मों का फल पा रहा है, हम अपनी कमियों के लिये किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं कोसते; बल्कि स्वयं अपने को उत्तरदायी समझते हैं। यह मानव में आशा का संचार करता है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। वर्तमान जीवन के शुभ कर्मों के द्वारा मानव भविष्य के जीवन को सुनहरा बना सकता है।

 

डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र