भारतीय ज्ञान – परम्परा एक

वर्तमान समय में यदि ज्ञान परम्परा की चर्चा की जाय तो स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि यह धीरे धीरे तिरोहित होती जा रही है। ठीक वैसे ही जैसे दार्शनिक परम्परा तिरोहित हो रही है। स्वाभाविक भी है कि जब ज्ञान परम्परा तिरोहित होगी तो, दार्शनिक परम्परा भी तिरोहित होगी और जब दार्शनिक परम्परा तिरोहित होगी, तो ज्ञान परम्परा भी तिरोहित होगी। क्योंकि यह दोनों आपस में अन्योन्याश्रित हैं, इसमें पहले कौन और बाद में कौन! यह चर्चा का विषय नहीं हो सकता। इन दोनों पर जब हम चर्चा करते हैं तो हमें चिन्तन परम्परा की भी चर्चा करनी पड़ती है। जब चिन्तन परम्परा की बात करते हैं तब तो, यह और भी सुनिश्चित हो जाता है की ज्ञान परम्परा और दार्शनिक परम्परा निश्चित रूप से तिरोहित होने की प्रक्रिया में है। यहाँ तीन बातें हो गईं- ज्ञान परम्परा, दार्शनिक परम्परा, चिन्तन परम्परा। क्योंकि जब तक मौलिक चिन्तन परम्परा निरन्तरता में या सजीव या जीवन्त नहीं रहेगी! तब तक ज्ञान दार्शनिक और चिन्तन परम्परा अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं रह सकती हैं। वर्तमान समय में चाहे वह भारतीय ज्ञान परम्परा हो या अभारतीय ज्ञान परम्परा हो; चाहे वह भारतीय दार्शनिक परम्परा हो या अभारतीय दार्शनिक परम्परा हो, इसकी मौलिकता को छोड़कर हम चिन्तन परम्परा के विषय में कोई विचार नहीं कर सकते, करना भी नहीं चाहिये।

इन सबके सम्बन्ध में मौलिकता अनिवार्य एवं अपरिहार्य शर्त है। एक बात ध्यान में रखनी या जाननी चाहिये कि हमें भारत की विद्या परम्परा, विज्ञान परम्परा और ज्ञान परम्परा तथा इन तीनों के युग्म का हेतु प्रज्ञा परम्परा की कितनी समझ है! ठीक ऐसे ही जब हम विद्वानों की चर्चा करते हैं तो, हमें विवेकवान और बुद्धिवान की कितनी समझ है! उसके लिये हमें चर्चा करनी पड़ती है और करनी चाहिये। विद्वान वास्तव में विवेकवान और बुद्धिवान का एक ऐसा युग्म है, जो प्रज्ञा विद्या विज्ञान ज्ञान के चतुष्टय की ठीक ठीक समझ रखता है। इनकी समझ रखने का आशय यह नहीं है कि इसकी समझ रखने वाला स्वयं प्रज्ञावान विद्यावान विज्ञानवान और ज्ञानवान हो जाता है या है। इस अर्थ में हमें जब भारतीय ज्ञान परम्परा और भारतीय दर्शनिक परम्परा का अध्ययन करना हो तो हमें सबसे पहले प्रज्ञावान विद्यावान विज्ञानवान और ज्ञानवान के विषय में ठीक- ठीक समझ विकसित करनी चाहिये। तब हमें विवेक और बुद्धि पूर्वक चर्चा करते हुए विद्वान होने की सीमा क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिये। एक बहुत सामान्य उदाहरण से इस बात को यदि हम स्पष्ट करें तो कहना चाहिये कि श्रीनिवास रामानुजन और उनके कक्षा साथियों को उनके शिक्षक यह बता रहे थे कि किसी भी संख्या में यदि उसी संख्या से भाग दिया जाय तो भागफल सदैव एक (1) आता है। अध्यापक के इस पाठ पर श्रीनिवास रामानुजन (उनके शेष कक्षा साथियों का नहीं) का प्रश्न? गुरुदेव! यदि हम 0 में 0 का भाग दें, तो भी क्या उत्तर एक (1) ही आयेगा? यह श्रीनिवास रामानुजन का सहज और सामान्य प्रश्न नहीं है और ऐसे प्रश्न सभी प्रकार के मस्तिष्क में उपजते भी नहीं हैं। ऐसे प्रश्न सभी जगह सभी के द्वारा सही समय पर पूछे भी नहीं जाते हैं और ऐसे प्रश्नों का उत्तर सबके पास होता भी नहीं है। इस आलोक में हम जब विचार करते हैं तो हमें पता चलता है कि जो व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष इस तरह के प्रश्न पूछ सकता है, वही विद्यावान कहलाता है अर्थात अंग्रेजी में विजडम उसी के पास होता है। जो इस तरह के प्रश्नों के उत्तर ढूंढ सकता है, मतलब ढूंढने की प्रक्रिया कर सकता है; उस प्रक्रिया को सम्पादित करने वाला विज्ञानवान कहलाता है और जो इस तरह के प्रश्नों का उत्तर ढूंढकर सूत्रवत उत्तर बता सकता है, उसे ज्ञानवान कहा जाता है और कहा जाना चाहिये। इनको आप क्या- क्या कहेंगे? इसको समझना भारत की ज्ञान परम्परा और दार्शनिक परम्परा को समझना है। ऐसे ही प्रश्न कर्ता को या विद्यावान, जिस मष्तिष्क में विद्या जन्म लेती है; उसका प्रकटीकरण सदैव सहज एवं स्वाभाविक प्रक्रिया की देन होता है। जो स्त्री या पुरुष या दोनों इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर तलाश करते हैं, चाहे वह स्वयं प्रश्नकर्ता ही क्यों न हो! क्योंकि प्रश्न कर्ता द्वारा यदि यह तलाश किया जाता है या तलाश करने की प्रक्रिया में वह शामिल होता है तभी वह विद्यावान कहलाने का अधिकारी है। तलाश करने के बाद जो उत्तर आता है वह उत्तर ही ज्ञान कहलाता है। प्रश्न के उत्तर के तलाश की प्रक्रिया का नाम विज्ञान है। जिस व्यक्ति में विद्या, विज्ञान और ज्ञान का यह त्रिक एक साथ उपलब्ध होता है; उसी व्यक्ति को प्रज्ञावान कहलाने का अधिकार है। वही प्रज्ञावान होता है।

इसी कारण प्रश्न ईश्वर रूप या अलौकिक या पारलौकिक रूप होता है; प्रश्न का उत्तर भी इसी के सापेक्ष महत्व रखता है। यह ब्रम्ह से सृष्टिमय होने या बनाने का कारक है। उनमें विद्यमान नियमों की खोज और उन नियमों के लौकिक उपयोग का हेतु है। इसको एक और उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं। जेम्सवाट के मन में यदि यह प्रश्न आया कि केतली का ढक्कन बार-बार क्यों उठता और गिरता है? वह इस प्रश्न को लेकर जिस कौतूहल और व्यग्रता से बार-बार परीक्षण में लगता है और अन्त में यह कहने की स्थिति में आता है कि, भाप में शक्ति होती है। वह जब प्रश्न करता है कि केतली का ढक्कन क्यों उठ गिर रहा है? वह प्रश्न उसके विद्या भाव को प्रकट करता है। उस प्रश्न का उसका परीक्षण उसके विज्ञान भाव का प्रकटीकरण करता है और जब वह एक सूत्र वाक्य प्रकट करता है कि- ‘भाप में शक्ति होती है।’ तो वह उसके ज्ञान भाव का प्रकटीकरण कहलाता है। इसलिये जब हम ज्ञान परम्परा की चर्चा करते हैं तो, हमको ध्यान रखना चाहिये कि हम कोरी पुस्तकों का उद्धरण देकर और पुस्तकों के लेखकों का उद्धरण देकर, उन पुस्तकों में दिये गये पुस्तकों के सन्दर्भों का उद्धरण देकर, उनके लेखकों का उद्धरण देकर, न तो हम ज्ञान परम्परा की चर्चा कर सकते हैं और न हम ज्ञान परम्परा के वाहक बन सकते हैं। हम केवल क्रमशः सूचनाओं के वाहक मात्र हो सकते हैं, जो विद्वानों की चाकरी करने से भी बहुत नीचे की बात है। ज्ञान परम्परा का वाहक होने के लिये विद्या और विज्ञान परम्परा का वाहक होना अनिवार्य शर्त है और जब तक हम इन शर्तों को पूरा नहीं करते तब तक हम ज्ञान परम्परा को नहीं समझ सकते हैं और न ही भारत की दार्शनिक परम्परा को समझ सकते हैं। वास्तव में हुआ यह कि, भारतीय ज्ञान परम्परा और दार्शनिक परम्परा के आलोक में या दिखावे में हम अभारतीय ज्ञान परम्परा और अभारतीय दार्शनिक परम्परा को समझ जाने का स्वांग करने लगे और अपने आप को विद्वान कहलाने की व्यग्रता में फंस गये। औपनिवेशिकता कि मृगमरीचिका ने भारत को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के मार्ग पर न चलने दिया और न तो हम चल पा रहे हैं। क्योंकि हम कोई भी प्रश्न और मौलिक प्रश्न पूछ पाने की स्वाभाविक योग्यता न तो स्वाभाविक रूप से धारण कर रहे हैं और न ही धारण करने की योग्यता ही विकसित करना चाहते हैं। इसे आप चाहें तो अंग्रेजी में कोलोनियल हैंगओवर कह सकते हैं। हम कुछ पुस्तकों और विशेषकर अंग्रेजी में लिखित पुस्तकों में दिये गये बातों और सूचनाओं के आलोक में ज्ञानी और विद्वान कहलाकर अपनी इतिश्री कर लेना चाहते हैं। वास्तव में यह भारतीय ज्ञान परम्परा के साथ खिलवाड़ है।

मौलिक प्रश्न खड़े ही हम तब कर पाते हैं; जब हम मौलिक चिन्तन के धरातल पर जाते हैं और मौलिक चिन्तन के धरातल पर हम तब जाते हैं, जब हम दृष्टिगत तत्वों, पदार्थों, घटनाओं के विषय में चिन्तन करना आरम्भ करते हैं और वह चिन्तन हमें अपरिमित या इनफिनिट दिशा में ले जाता है। अगले चरण में हमारा वह चिन्तन हमें केवल सृष्टि के तत्वों पदार्थों और घटनाओं के स्थूल रूप तक सीमित नहीं रहने देता; बल्कि हमें उनके नियन्त्रक संचालक और निर्माता के विषय में भी चिन्तन मनन और विचार करने के लिये प्रेरित एवं बाध्य करता है। जब वह प्रेरित और बाध्य करता है, तब हमें पता चलता है कि वह नियन्त्रक संचालक और निर्माता कोई अलौकिक दिव्य या पारलौकिक सत्ता या शक्ति है। उसे ही कोई ब्रह्म कहता है, उसे ही कोई आदि कहता है, उसे ही कोई अनन्त कहता है और उसे ही कोई जगत का हेतु कहता है। यदि हम इन सारे तन्तुओं को समझने की चेष्टा करते हैं, तब उस चेष्टा के साथ हमारा चिन्तन आरम्भ होता है। तब हमारे अन्दर विद्या और ज्ञान जनित प्रश्न जन्म लेते हैं। जिन मौलिक प्रश्नों को लेकर महर्षि वेदव्यास, महर्षि बाल्मीकि, चरक, सुश्रुत, जैमिनी, कणाद, कपिल, आद्यशंकर, श्रीनिवास रामानुजन आदि जैसे लोग भारत की दार्शनिक और ज्ञान परम्परा के आधार और वाहक बने। इसको और व्यवस्थित समझने के लिये भारत की भक्त, साधु, सन्त, महात्मा, मुनि, ऋषि, महर्षि परम्परा को भी समझना पड़ेगा। ये केवल शब्द और शब्द प्रयोग के समानार्थी भेद मात्र नहीं हैं। ये सभी अपने अन्दर विराट अर्थ समुच्चय धारण किये हुये हैं। इसीलिये शब्द, ब्रम्ह रूप भी है; क्योंकि हम जो उच्चारण करते हैं, वह ध्वनियों में व्यक्त होता है। ध्वनियाँ व्यक्त होते समय नाद करती हैं; नाद सदैव ऊँकारमय होता और जो भी ऊँकारमय होता है और ब्रम्हमय होता ही है। यह हम इसके व्याकरणिक भेद में नहीं जायेंगे; उसकी कभी अलग से चर्चा करेंगे।

जब भी हम किसी तत्व जीव पदार्थ और घटना के विषय में चिन्तन मनन करते हैं तो हमें उसके उत्पत्ति, उसके उत्पत्ति के कारण, उसके उत्पत्ति के हेतु और उसके उत्पत्ति कर्ता के विषय में स्वाभाविक रूप से उन्नमुख होते चले जाते हैं। इसलिये इस चिन्तन प्रक्रिया में ही हम स्थूल से सूक्ष्म, लौकिक से अलौकिक या पारलौकिक, दृश्य से अदृश्य, एवं साकार से निराकार की स्थिति को भी समझने का प्रयत्न करने लगते हैं। क्योंकि प्रकृति में विद्यमान तत्व जीव पदार्थ बहुत से ऐसे हैं, जिनकी हम सहजता से उत्पत्ति, उत्पत्ति के कारण और संरचना आदि को समझ नहीं पाते हैं। तब यह मानना अवश्यसम्भावी हो जाता है कि इनको उत्पन्न करने वाली कोई न कोई ऐसी शक्ति अवश्य है; जिसने न केवल इनको उत्पन्न किया है, बल्कि इनका नियामक नियन्त्रक और संचालक भी है। उदाहरण के लिये सूर्य, सौर्यमण्डल, पृथ्वी; पृथ्वी पर विद्यमान जल, स्थल और वायुमण्डल; स्थलमण्डल पर विद्यमान पर्वत, पठार और मैदान और यहाँ तक कि विभिन्न प्रकार के महासागर और पर्वतों आदि का निर्माण कब कैसे और किसके द्वारा किया गया?! इसका विचार करते-करते हम उत्सुकतावश उस अलौकिक पारलौकिक अदृश्य या निराकार सत्ता की समझ की तरफ जाते हैं; जो समझ हमें सृष्टिगत चीजों की समझ दे देता है। वास्तव में सृष्टि के तत्व दो प्रकार के होते हैं। एक- दृष्टिगत होता है और दूसरा- अदृष्टिगत होता है। एक दृश्यमान और दूसरा अदृश्यमान होता है। एक वस्तु ऐसी होती है जिसको देखकर हम विश्वास करते हैं और दूसरी ऐसी वस्तु होती है जिस पर विश्वास करके हम देख पाते हैं। उदाहरण के लिये कोई पेड़ या इस जैसी कोई दृष्टिगत वस्तु है, इसको देखकर हम इस पर विश्वास करते हैं। लेकिन भावावेश, प्रेम, दया, करुणा आदि ऐसे तत्व हैं, जिनको हम विश्वास करके देख पाते हैं या समझ पाते हैं। इस दृश्य और अदृश्य को समझ पाने अर्थात इसके भेद को जान पाने की प्रक्रिया ही वह प्रक्रिया है जो सृष्टि के उस पार हमारी चिन्तन धारा को ले जाती है। वही चिन्तन धारा हमें सृष्टि के आधार तत्व या नियामक नियन्त्रक तत्व या अलौकिकसत्ता या पारलौकिक सत्ता या ब्रह्म को समझने की शक्ति देती है।

इसको समझने के लिये हमको साधना की आवश्यकता होती है। साधना के बहुत सारे अंग एवं उपांग उसमें सहायक होते हैं। अब कोई यदि यह कहता है की सृष्टि के परे या सृष्टि के ऊपर और कुछ नहीं है या उसका अस्तित्व नहीं है या वह दृश्यमान नहीं है। इसलिये उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता, तो उसे आप कुछ समझा नहीं सकते; बल्कि उसके सामने ऐसे प्रश्नों की झड़ी लगा सकते हैं, जिन प्रश्नों के उत्तर खोजते खोजते उसको विवश हो जाना पड़ता है कि वह उस अलौकिक सत्ता को मानने स्वीकार करने और उसके अस्तित्व को आत्मसात करने के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है। इसलिये वैदिक दर्शन में सृष्टि के विविध तत्वों को दैवी तत्व मानने का विधान है। ये दैवी तत्व दृश्य और अदृश्य दैवी तत्व हैं, जिनको स्वीकार कर हम इनके अदृश्य अधिष्ठाता देव और देवियों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करते हैं। उदाहरण के लिये वर्तमान समय में संसाधन कहे जाने वाले सभी तत्व वेदों के देवता हैं और उनका अधिष्ठाता देव सूर्य और और अधिष्ठात्री देवी माता गायत्री हैं। ठीक इसी प्रकार पौराणिक दर्शन में दृश्य एवं अदृश्य तत्वों को दैवी तत्व मानकर या मूर्ति तत्व मानकर स्वीकार करने और काल की सीमा से परे अलौकिक तत्व ब्रह्मा विष्णु महेश या महालक्ष्मी महासरस्वती महाकाली को मानकर व्यवहार करने का विधान है। इनको स्वीकार करना सृष्टि और जगत को ही स्वीकार करना नहीं है; बल्कि विज्ञान कहे जाने वाले विषय को भी स्वीकार करने जैसा है। क्योंकि किसी भी तत्व की यदि किसी भी रूप में कहीं भी उपस्थिति है, तो वह किसी कार्य का परिणाम है और यदि कोई कार्य या क्रिया हुई है तो उस क्रिया को करने वाला कोई कर्ता भी है। वह कर्ता कौन है? कैसा है? उसका क्या मूल्य है? इस उसके द्वारा बनाये गये नियम क्या हैं? उनका संज्ञान लेना या पता करना समुच्ययिक दार्शनिक परम्परा या भारतीय दार्शनिक परम्परा का हेतु है। इसलिये हम जब इसका विस्तृत विचार करते हैं तो पाते हैं कि भारत की ज्ञान परम्परा वास्तव में भारत की दार्शनिक परम्परा ही है। वर्तमान में जिसको हम भारतीय ज्ञान परम्परा कहकर इसको तिरोहण की दिशा में ले जा रहे हैं; वास्तव में वह सूचना संग्रहण और सूचना प्रस्तुति परम्परा है। सूचना संग्रहण, सूचना प्रस्तुति; सूचना पुनःसंग्रहण, सूचना पुनःप्रस्तुति; मूल बात को क्रमशः भटकाती जाती है और एक समय ऐसा आता है कि, मूल बात अपना अस्तित्व ही खो देती है। यह क्रिया न तो ज्ञान परम्परा का संवर्धन करती है, न संरक्षण और न वहन। सूचना परम्परा, ज्ञान परम्परा का अनियोजित और अनियन्त्रित प्रचार मात्र हो सकती है, वाहक नहीं। भारतीय ज्ञान परम्परा को जीवन्त बनाने अर्थात आधार को मजबूत करने के लिये मूलमौलिक, मौलिक बातों के सहारे आगे बढ़ना पड़ेगा; हाँ यदि चाहें तो हम भाष्य और पुनःभाष्य द्वारा इसके वाहक बन सकते हैं। भारतीय ज्ञान या दार्शनिक परम्परा के लिये अनिवार्य है कि आपने नया क्या किया या बताया या जोड़ा।

इसलिये इन सब बातों पर विचार करते समय हमारे सामने भारतीय ज्ञान परम्परा के चार सोपान उभरते हैं। पहला- मूल मौलिक ज्ञान परम्परा, दूसरा- मौलिक ज्ञान परम्परा, तीसरा- आरोपित ज्ञान परम्परा और चौथी- संकलित ज्ञान परम्परा (भाष्य और पुनःभाष्य परम्परा)। इनमें से पहली और दूसरी ही वास्तविक ज्ञान परम्परा है। जिनमें मौलिक प्रश्न पूछना अर्थात सृष्टि और सृष्टि के नियामक सत्ता के बारे में आरम्भिक मौलिक प्रश्न पूछना। इस प्रश्न का उत्तर पाना और उत्तर पाकर उसका प्रकटीकरण करना शामिल है। अर्थात सृष्टि और सृष्टि के निर्माता एवं नियन्ता के द्वारा निर्मित नियमों की खोज और उन नियमों का अलौकिक या लौकिक उपयोग। दूसरे, मौलिक ज्ञान परम्परा में वही प्रश्न जगत में कहीं अन्यत्र भी पश्चात पूछा गया, पूछकर उसका उत्तर पाने की प्रक्रिया की गयी और उत्तर प्रस्तुत किया गया, वह मौलिक ज्ञान परम्परा का हिस्सा है। अर्थात पहली बार सृष्टि के दृश्य और अदृश्य तत्व एवं सृष्टि की नियामक सत्ता के विषय में प्रश्न पूछना या प्रश्न का कारक बनना मूल मौलिक ज्ञान परम्परा बनेगी। वही प्रश्न अनजाने में या बिना यह जाने कि यह पूर्व में प्रश्न किया जा चुका है, पुनः प्रश्न करना उस प्रश्न का समाधान करना और समाधान का उत्तर प्रस्तुत करना मौलिक ज्ञान परम्परा है। तीसरे प्रकार की आरोपित ज्ञान परम्परा में हम प्रश्न पूछने की प्रक्रिया में या प्रश्न उत्पन्न करने की प्रक्रिया में शामिल नहीं होते; बल्कि प्रश्न कर्ता का आश्रय पाकर प्रश्न का उत्तर ढूंढने की प्रक्रिया का हिस्सा होकर उत्तर पाने में सहयोग करते हैं। अर्थात हम विद्या का कारक ना होकर विज्ञान और ज्ञान का कारक बनते हैं लेकिन आश्रय विद्या का ही होता है। इस तीसरे सोपान में हम प्रज्ञावान होने से वंचित हो जाते हैं। प्रज्ञावान हम पहले और दूसरे सोपान में ही कहलाने के अधिकारी बनते हैं; क्योंकि प्रज्ञावान वही हो सकता है, जो विद्या विज्ञान और ज्ञान तीनों प्रक्रियाओं से क्रमशः गुजर चुका हो। चौथे सोपान में हम पहले दूसरे और तीसरे द्वारा किये गये कार्यों को सीखने जानने समझने की नहीं और उनके पुनःप्रस्तुति में, उनकी व्याख्या विवेचन विश्लेषण में, उसके भाष्य करने में अपनी योग्यता का परिचय देते हैं। इसी कारण हम विवेकवान और बुद्धिवान की श्रेणी में आते हैं। ऐसे में ही वे विद्वान भी कहे जा सकते हैं। किन्तु जो मूलमौलिक, मौलिक, आरोपित और संकलित से परे हैं, उनको विद्वान कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। जिन्होंने पुस्तकों का सन्दर्भ और आश्रय लेकर पुस्तकों का सृजन किया, उन पुस्तकों को पढ़कर जिन्होंने उद्धरण दिया! वे किसी भी रूप में विद्वत्ता की कोटि में नहीं आते और यदि आते हैं या उनको आया हुआ माना जाता है तो इसका आशय है कि वे ज्ञानरहित परम्परा के पोषक हैं, औपनिवेशिक मानसिकता में जी रहे हैं। वे न तो ज्ञान परम्परा के वाहक हैं और न संरक्षक और संवर्धक। इस कारण भारतीय ज्ञान परम्परा और भारतीय दार्शनिक परम्परा के तिरोहित होने की प्रक्रिया वे कारक जरूर हैं।

डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र