रामचरितमानस विवाद पर बिहार के मुख्यमन्त्री ने अपने मन्त्री को नसीहत देते हुए उनके वक्तव्य को ठीक नहीं माना है। वहाँ के शिक्षामन्त्री के रामचरितमानस को लेकर टिप्पणी पर विवाद के बाद मुख्यमन्त्री ने सार्वजनिक तौर पर उक्त प्रतिक्रिया दिया। उन्होंने कहा कि किसी भी धर्म पर टिप्पणी करना गलत है। इसमें एक तरफ राजद ने अपने मन्त्री के बयान का समर्थन किया है, तो वहीं जदयू, मन्त्री से माफी की माँग को लेकर जिद पर अड़ा है। मुख्यमन्त्री ने कहा है कि ‘धर्म के मामले में किसी को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। सब अपने तरीके से धर्म का पालन करते हैं। किसी भी धर्म का पालन करने वालों को इज्जत मिलनी चाहिये। जिसको जिनकी पूजा करनी है, करें।’ धर्म को लेकर मुख्यमन्त्री से इससे अधिक अर्थ की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिये; उनके द्वारा इतना अर्थ करना पर्याप्त है। सम्बन्धित मन्त्री ने नालन्दा खुला विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में छात्रों को सम्बोधित करते हुए रामचरितमानस और मनुस्मृति को समाज को बाँटने वाली पुस्तक बताया था? इसी बीच बिहार के मुख्यमन्त्री द्वारा शिक्षामन्त्री को बयान वापस लेने के लिये कहा जा चुका है। मुख्यमन्त्री से जब यह पूछा गया कि क्या उनको उम्मीद है कि प्रोफेसर चन्द्रशेखर अपने विवादित बयान वापस लेंगे? इसपर मुख्यमन्त्री ने कहा कि मैंने उनसे इस मुद्दे पर बात किया है! शास्त्र सम्मत और समाज प्रेरक ग्रन्थों पर इस प्रकार की टिप्पणी बहुत पहले से की जा रही है और की जाती रहेगी। इस प्रकार की टिप्पणी औपनिवेशिक प्रेरित पूर्वाग्रहपूर्ण तथा दुर्भावनाग्रस्त मानसिकता की देन है। इस प्रकार की टिप्पणी करने वाले कुलद्रोही, समाजद्रोही, देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही सब हैं। इन्होंने न कभी अध्ययन किया है और न ही किसी ग्रन्थ का मन्तव्य जानते समझते हैं। इनका किसी चीज का अर्थ करने का तरीका भी अमृत को नशीली दवा समझने जैसा है और किसी भी नशेबाज से इससे अधिक समझ की उम्मीद भी नहीं करना चाहिये।
इस सियासी संग्राम के बीच पटना महावीर मन्दिर द्वारा सकारात्मक पहल की जा रही है, जिसकी बहुत चर्चा हो रही है। यह पहल रामचरितमानस विवाद के बाद भ्रान्तियों को दूर करने के लिये किया जा रहा है। महावीर मन्दिर द्वारा इस विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। इसमें रामचरितमानस के समर्थन में हो या विरोध में, तर्क के आधार पर बड़ी बहस की योजना बनायी जा रही है। रामचरितमानस को लेकर राजनीतिक दलों के नेताओं की ओर से भी अपने- अपने तर्क दिये जा रहे हैं। मानस में क्या सही है और क्या गलत? को लेकर राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर वाद-विवाद चल रहे हैं। उसकी कुछ पंक्तियों को लेकर भ्रान्तियों को दूर करने के लिये महावीर मन्दिर द्वारा देश भर के विद्वानों की गोष्ठी बुलायी गयी। लेकिन येसे विषयों पर कोई भ्रान्ति नहीं होती है। यदि भ्रान्ति हो तो आप दूर कर सकते हैं; लेकिन पूर्वाग्रह और दुर्भावना को दूर नहीं किया जा सकता। पटना हनुमान मन्दिर के आचार्य ने बताया कि ‘गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस सामाजिक सद्भाव का प्रेरक महाकाव्य है, जो लोगों की श्रद्धा और आस्था की दृष्टि से बड़ा महत्व रखता है।’ लोकभाषा में इसकी रचना गोस्वामी जी ने इसीलिये किया; जिससे धार्मिक तथा सामाजिक स्तर पर सभी वर्ग के लोगों को एक साथ जोड़ते हुए समाज और राष्ट्र को मजबूत किया जा सके। उनके पवित्र उद्देश्य पर टिप्पणी करना, किसी अक्षम तैराक द्वारा अथाह सागर में छलांग लगाने जैसा है। इस तरह की टिप्पणी करने वाले भी जानते हैं कि वे खुद नासमझ हैं; लेकिन त्वरित राजनीतिक लाभ लेने और चर्चा में बने रहने के लोभ के कारण वे ऐसा करते हैं।
वे यह नहीं जानते हैं कि बहुतायत समाज समझदार और जागरूक हो चुका है; फूट डालो, राज करो वाली जातिवादी राजनीति अब नहीं चल सकती है। अब सब लोग समझ चुके हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी (ब्राह्मण होकर भी), छत्रिय वंश कुलभूषण मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की महिमा का गान, उनकी जाति के आधार पर नहीं, उनके कर्म के आधार पर करते हैं। अब सब लोग समझ चुके हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी (ब्राह्मण होकर भी), शबरी के जूठे बेर ही मर्यादा पुरुषोत्तम को खिलाने का वर्णन नहीं करते, बल्कि भीलनी के श्रेष्ठ कर्मों का गान भी करते हैं और उस श्रेष्ठ कर्म के कारण ही छत्रिय कुमार जूठे बेर खाते हैं। अब सब लोग समझ चुके हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी (ब्राह्मण होकर भी), गिद्ध जाति में जन्में जटायु की महिमा का अर्थात श्रेष्ठ कर्मों का वर्णन करते हैं और अयोध्याधिपति के उनके प्रियपात्र होने का गुणगान करते हैं। अब सब लोग समझ चुके हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी (ब्राह्मण होकर भी), रीक्षराज जामवन्त जी, सुग्रीव जी, अंगद जी की महिमा का गान करके अपने को कैसे उपकृत और धन्य मानते हैं! गोस्वामी तुलसीदास जी का उद्देश्य था, कि समाज में सम्बन्धों और सम्बन्धों की मर्यादा क्या और कैसी होनी चाहिये? क्यों और कैसे कोई अपने कर्मों के द्वारा अच्छा या बुरा, श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ, बड़ा या छोटा कहलाता है? सभी लोग जानें और व्यवहार करें! येसे में गोस्वामी जी पर और मानस पर प्रश्न खड़ा करने वाले अपने मानसिक दिवालियेपन का परिचय देते हैं। वे यह नहीं सोचते कि कोई एक माता- पिता, क्यों अपने एक पुत्र को राम जैसा पितृभक्त और दूसरे को रावण जैसा दुष्ट कहते हैं? कहने के लिये कुल और जाति तो रावण की बड़ी थी; लेकिन कर्म राम का श्रेष्ठ था; फिर भी राम, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम कहलाये और रावण, को राक्षस कहा गया और इसकी स्थापना कर्म के आधार पर गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया।
जो लोग कहते हैं कि, ‘ब्राह्मण एक जाति है; फिर कहते हैं कि देश और समाज में ब्राह्मणों ने जाति का निर्माण किया।’ येसे लोगों की मानसिक बीमारी और अज्ञानता पर आप केवल दया कर सकते हैं, जैसे किसी पागल पर दया करने का विधान बताया गया है। क्योंकि यदि उक्त वाक्य को सही मानकर आगे चला जाय तो प्रश्न खड़ा होगा कि, तो फिर ब्राह्मण नामक जाति किसने बनाया? यदि जाति ब्राह्मण ने बनाया और ब्राह्मण खुद एक जाति है तो, निश्चित रूप से ब्राह्मण नामक जाति किसी और ने बनाया होगा अथवा समाज में पूर्वकाल में सभी लोग एक ही रहे होंगे, उसमें जो समझदार और दूरदर्शी थे, उन्होंने समाज को चलाने के लिये कार्य के आधार पर पदानुक्रम में सामाजिक संरचना का निर्माण किया। यह समझदारी और दूरदर्शिता जिसमें होती है, वह आगे चलकर पण्डित कहलाया और इसी कारण पण्डित सम्बोधन नामक शब्द ब्राह्मण शब्द का समानार्थी हो गया। समाज में जो भी अगुआ या योग्य था, वह अपने कर्म के आधार पर पण्डित माना और कहा गया। सहज स्वाभाविक रूप से एक प्रकार का कार्य करने और एक प्रकार के समूह में रहने वाले को एक जाति का मान लिया जाता है। आशय यह हुआ कि जो भी समाज में अधिक समझदार थे, वे सभी पण्डित कहलाये। तात्पर्य यह कि जाति का निर्माण किसी वर्ग विशेष द्वारा नहीं, बल्कि व्यक्ति के कार्य व्यवहार स्वभाव के अनुसार स्वाभाविक रूप से हुआ है और इसी कारण व्यक्ति के भिन्न – भिन्न व्यवहार तथा स्वभाव के कारण ही प्रकृति में जीवों में, पशु पक्षियों में, यहाँ तक कि पेड़ – पौधों में भी वही प्रकृति एवं स्वभाव देखने को मिलता है।
जैसे किसी की बोली को कोयल जैसी; किसी के नृत्य को मोर जैसा; किसी के चाल को गज जैसा; किसी की दृष्टि को काग या बाज जैसा; किसी के स्वभाव को हंस जैसा तो किसी के स्वभाव को कुत्ते जैसा; किसी को व्याघ्र जैसा हिंसक तो किसी को गाय जैसा संवेदनशील; किसी की प्रकृति को बबूल या नागफनी जैसा तो किसी की प्रकृति को गुलाब और कमलदल आदि जैसा कहा जाता है। यह कहना विभिन्न भाषाओं और समाजों में कब कैसे और कितना शुरू हुआ? इसका उत्तर कोई नहीं दे सकता; इसका उत्तर केवल यह है कि समय की गति प्रकृति के अनुसार यह सब स्वाभाविक रूप में विकसित होता और चलता रहता है। फिर सवाल है कि- काग के, व्याघ्र के, नागफनी या बबूल आदि के रूपक को नकारात्मक तथा असुन्दर और कोयल, गज, गुलाब आदि के रूपक को सकारात्मक तथा सुन्दर क्यों मान लिया जाता है? क्योंकि इनका समाज में सहज स्वाभाविक विकास हुआ है, इसमें किसी का कोई प्रायोजन न था, न है और न हो सकता है। समाज में गुण – दोष के आधार पर, कार्य विभाजन के आधार पर; पदानुक्रम का, छोटे- बड़े का, अच्छे- बुरे का, ऊँच- नीच का स्वाभाविक विकास हुआ है। इसको येसे समझिये कि, क्यों किसी समाज में भूखे को भोजन कराने वाले को अच्छा श्रेष्ठ बड़ा और भूखे को दुतकारने वाले को छोटा नीच अश्रेष्ठ कहा जाता है। क्योंकि दोनों के कर्म अच्छे श्रेष्ठ बड़े या नीच अश्रेष्ठ छोटे होते हैं। कर्म प्रधान विश्व करि राखा; जो जस करिह सो तस फल चाखा।
युगवार्ता, नयी दिल्ली के 01 – 15 फरवरी 2023 के अङ्क में प्रकाश्य।
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
प्रोफेसर और स्तम्भकार
