पाकिस्तान पर्दा रहित है और बेपर्दा तो पहले ही वैश्विक क्षितिज पर हो चुका है। असली चलचित्र वैश्विक शक्ति असंतुलन का है; पटकथा लेखक तथा निर्देशक हैं, भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री। वर्ष 2014 के बाद से भारतीय प्रधानमन्त्री ने एक-एक करके वैश्विक ताकतों को अपने भारत की सच्चाई एवं ताकत का किसी न किसी रूप में अहसास कराया है। कोविड वैक्सीन के समय भारत ने विश्व को दिखाया कि सेवा और समर्पण की ताकत क्या होती है। पूरी दुनिया को निःशुल्क वैक्सीन देकर अरबों डॉलर की दवा बाजार एवं फर्जीवाड़े को झटका दिया है; यह लोक में मोदी की वास्तविक सच्चाई एवं प्रियता को दिखाता है। पेट्रोलियम जगत में रूस से सस्ते तेल का सौदाकर ऐसा झटका दिया कि ओपेक देशों के लाभांश वाले मोटे पेट में ठीक से मरोड़ शुरू हो गयी। जहां तक अस्त्र-शस्त्र का व्यापार करने वाले जगत का प्रश्न है; केवल तीन घण्टे की सैन्य कार्यवाही में चीन-अमेरिका-नाटो को बता दिया कि अब ‘मेड इन भारत’ का सच जानना पड़ेगा, व्यापार और बाजार का रास्ता भारत से ही होकर जाता है। देश के वर्तमान प्रधानमन्त्री का लक्ष्य शुरू से स्पष्ट था कि भारत को विश्व का निर्णायक बनाना है; अपनी कीमत पर अपने अस्तित्व को रखना और बनाये रखना हो होगा।
भारत के वैज्ञानिक, शोधक, शोध एवं विकास संस्थान आज आत्मनिर्भर भारत के केवल नारे ही नहीं हैं; बल्कि धरातलीय सच्चाई बना चुके हैं। खिलौनों से लेकर टैंक तक, भारत अब केवल विपणन केन्द्र नहीं, मान्य चिन्ह या ब्रॉन्ड बन चुका है। तेल की कीमतें अब खड़ी जगत खुद तय नहीं कर सकता। दवा के क्षेत्र में भारत विश्व का फार्मेसी ध्रुव बन चुका है, इस क्षेत्र में अब अमेरिका भी भारत की सहयोगी भूमिका में है। भारतीय सेना की धमक और स्वदेशी हथियारों की चमक अब नाटो के सिरहाने बैठने की स्थिति में है। तुर्की के ड्रोन व्यापार की चूलें हिल चुकी हैं; यह पाकिस्तान में हाल में ही में प्रमाणित हो चुका है। अमेरिका के राष्ट्रपति को भारत के दरवाजे पर शान्ति का प्रस्ताव लेकर खड़ा होना पड़ा है। चीन भीतर ही भीतर खौल रहा है, लेकिन कुछ बोल नहीं पा रहा है। भारत के प्रधानमन्त्री का सच भिन्न है, मुट्ठी भर विरोधियों या अभारतीय मानसिकता वालों के झुठलाने से उस पर कोई आँच नहीं आने वाली है। जिस व्यक्ति ने बिना युद्ध के, रणनीति, कुशल आन्तरिक एवं वैदेशिक नीति के अपने नेतृत्व द्वारा चीनी एवं अमेरिकी व्यापार युद्ध को ताश के पत्तों की तरह सरकाया है; वह कोई सामान्य नेता नहीं, कुशल रणनीतिक योद्धा ही कर सकता है। वास्तव में दुनिया को देखने की दो दृष्टियाँ है- एक कूप-मण्डूक दृष्टि और दूसरा अथाह सागर दृष्टि; तीसरी या इनके बीच की कोई भी दृष्टि उथल-पुथल और अनियोजित नीति को जन्म देती है, तालाब दृष्टि कह सकते हैं।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने एक सन्देश में कहा है कि वह यूक्रेन के विरुद्ध विशेष सैन्य कार्रवाई करने जा रहे हैं। इस खबर ने न केवल यूरोप; बल्कि पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया। वैसे तो यूरोप ने समय-समय पर युद्ध देखे हैं, दो विश्व-युद्ध भी झेले हैं; लेकिन अगर आज के दौर में दुनिया कोई तीसरा विश्व-युद्ध देखती है, तो उसका परिणाम नहीं, दुष्परिणाम होगा और वह अतिशय भयानक होगा। जिन लोगों ने भी यूक्रेनवासियों से सम्पर्क किया, जो इस सूचना से घबराये हुए तो थे ही, रूस के राष्ट्रपति पर क्रोधित भी थे। वे उन्हें अनेक प्रकार के विशेषणों से विभूषित करते हुए हिटलर जैसा बता रहे थे। यूक्रेन के कई लोग नॉर्वे और अन्य पश्चिमी यूरोपीय देशों में नौकरी कर रहे हैं और उनका इस दुनिया की ओर झुकाव भी समझ में आता है; किन्तु अगर सांस्कृतिक इतिहास देखें, तो यूक्रेन और रूस में ठीक-ठीक अलगाव या तुलना करना आसान नहीं है। निकोलाई गोगोल जैसे कई दार्शनिक एवं साहित्यिक समझ वाले तथा यूक्रेन के धरातल पर पले-बढ़े; आज यह स्थिति है कि उनकी पहचान के लिये भी रूस और यूक्रेन आपस में लड़ रहे हैं। यह लड़ाई नयी है; क्योंकि यह विभाजन और विभाजन का कारण ही नया है। यहां के इन बौद्धिक वर्ग के परचम काल में तो ये देश अलग थे ही नहीं; लेकिन इतिहास में मानचित्रों का बदलना स्वाभाविक होता है और उससे जन्मी अस्मिता की लड़ाई तो उससे भी अधिक स्वाभाविक होती है। लेनिन द्वारा एक साम्यवादी देश की स्थापना के बाद सोवियत रूस का मार्ग एक महाशक्ति बनने की दिशा में रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध में उन्होंने हिटलर जैसे महत्वाकांक्षी शासक पर विजय पाने में मुख्य भूमिका बनाया था। साठ के दशक में वे अमरीका के समकक्ष और कई अन्य मामलों में बेहतर सैन्य-शक्ति के रूप में भी स्थापित हुए। उसके बाद शीत-युद्ध और मिसाइल एवं अन्तरिक्ष स्पर्धाओं का दौर चला; लेकिन साम्यवाद का यह गढ़ बदलती दुनिया के वैश्वीकरण और उदारवाद के समक्ष अलग-थलग पड़ गया; क्योंकि साम्यवाद की नींव कहीं थी ही नहीं; क्योंकि साम्यवाद की कोई नींव होती ही नहीं, तो आधारहीन इमारत आखिर कितने दिन तक चलेगी?
यह बात लगभग दुनिया भर को पता है कि मार्च 1985 में तत्कालीन सोवियत संघ के कम्युनिस्ट नेता मिखाइल गोर्वाच्योब के हाथ में जब सोवियत संघ की सत्ता आयी थी, तो उन्होंने आर्थिक और राजनीतिक सुधार की दिशा में कदम उठाया था। इसे साम्यवादी व्यवस्था के लिये ‘आत्महत्या‘ जैसा कदम भी कहा गया था। गोर्वाच्योब की पहली नीति थी ‘ग्लासनोस्त’ यानी राजनीतिक पारदर्शिता। लोकतान्त्रिक देशों में तो यह आम बात है, कि कोई समाचार माध्यम सरकार की आलोचना करे; राजनीतिक विरोध खुल कर करें, लिखें और बोलें; किन्तु साम्यवादी देशों में इस पर लगाम लगायी जाती रही है। गोर्बाचेव का यह कदम जिसमें समाचार माध्यमों को स्वतन्त्रता दी गयी, प्रायोगिक रूप से साम्यवाद के ताबूत में कील साबित हुआ। उनकी दूसरी नीति थी ‘पेरेस्त्रोइका’ अर्थात, आर्थिक पुनर्गठन जिसमें निजीकरण, विदेशी निवेश और बेहतर श्रमिक परिस्थितियों की बात की गयी थी। लेकिन यह भी लोकतान्त्रिक एवं पूँजीवादी व्यवस्था वाले देशों की पद्धति थी, जिसके खाँचे में सोवियत रूस फिट नहीं बैठ सका और न बैठ सकता था और इस प्रकार 1989 में गोर्वाच्योब के तख्ता पलट के बाद भी साम्यवाद के गिरावट का मार्ग ठीक से चल पड़ा और इसीलिये दुनिया भर के समाचार माध्यमों ने एक स्वर से उसे ‘दुनिया की सर्वाधिक नाकाम बगावत’ की संज्ञा दिया। गोर्वाच्योब ने स्वयं भी कहा था कि, “हमारी नयी व्यवस्था खड़ी हो पाती, उससे पहले ही पुरानी व्यवस्था औंधे मुँह गिर पड़ी।” सबसे पहले तीनों बाल्टिक राज्य- एस्टोनिया, लिथुआनिया और लाटविया अलग हुए; तत्पश्चात बाकी घटकों जिनमें यूक्रेन से लेकर उज़्बेकिस्तान तक शामिल थे, ने स्वयं को सोवियत संघ से अपने को अलग कर लिया। इस प्रकार 25 दिसम्बर 1991 को अन्तिम बार क्रेमलिन पर सोवियत संघ का झण्डा फहराया गया था।
उस अन्तिम दिन गोर्वाच्योब ने कहा था कि, “अब हम नयी दुनिया में रह रहे हैं; शीत-युद्ध का अन्त हो चुका है और हथियारों की प्रतिस्पर्धा खत्म हो चुकी है। देश का अब पागलों की तरह सैन्यीकरण नहीं होगा, जिसने हमारी अर्थव्यवस्था, व्यवहार और हमारे हौसलों को कमजोर कर दिया था।” गोर्वाच्योब के इस कथन से यह स्पष्ट नहीं था कि यह एक विजेता का कथन था अथवा हारे हुए योद्धा का या एक कर्तव्यविमूढ़ राजनेता का? लेकिन इससे पहले ही उन्हें नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका था और इसलिये उनके मानने वाले लोगों को लगा था कि उनके इस कथन से दुनिया को राहत महसूस हुई है और यह लगना ठीक भी था। सोवियत संघ के इस विघटन के कारण यूक्रेन के भाग्य से उसके हिस्से में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा परमाणु भण्डार आ गया था। सर्वविदित है कि यह परमाणु हथियार भी ऐसे हाथी हैं, जिन्हें रखकर मूँछ पर ताव तो दिया जा सकता है; लेकिन उन्हें पालने में जेब ही नहीं दिल और दिमाग ही केवल खाली नहीं हो जाता है; बल्कि मनुष्यता की चूलें भी हिल जाती हैं। वैसे भी उस समय दुनिया में यह निर्णय लिया जा रहा था कि अब परमाणु-प्रतिस्पर्धा कम कर दिया जाय। यूक्रेन 1986 में चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुए रिसाव से एक विभीषिका झेल चुका था; इस कारण भी इसका एक भावनात्मक पक्ष था। मई 1992 में यूक्रेन ने सामरिक शस्त्र न्यूनीकरण सन्धि-एक (START-1) पर हस्ताक्षर किया; जिसके अन्तर्गत वह परमाणु प्रतिस्पर्धा से दूर रहने की प्रतिबद्धता स्पष्ट कर चुका था। दिसम्बर 1994 में बुडापेस्ट मेमोरेंडम पर यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति लियोनिद कुचमा सहित रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन, अमेरिकी राष्ट्रपति बिलियम जेफरसन क्लिंगटन और ब्रिटिश प्रधानमन्त्री जॉन मेजर ने हस्ताक्षर किया था। दो वर्ष के अन्दर यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार रूस को और यूरेनियम कोष अमेरिका को दे दिया; जिसके बदले उसे ठीक-ठाक आर्थिक लाभ उन देशों द्वारा दिया गया। इस अप्रत्याशित कदम के लिये यूक्रेन को एक शान्तिप्रिय देश के रूप में वैश्विक जगत में उदाहरण के रूप में प्रचारित किया गया।
तत्पश्चात लगभग एक दशक तक यूक्रेन में शान्ति बनी रही, आर्थिक प्रगति भी होने लगी और प्रतीत हुआ कि यूक्रेन का यह निर्णय उचित था। शेष यूरोप 1993 में ही यूरोपियन यूनियन संघ बनाकर एक हो चुका था; लेकिन यूक्रेन का मन इस यूनियन और रूस के मध्य डोलने लगा, निर्णय न कर सका। बाहर से भी खींचतान, लोभ-लुभावन चीजें यूक्रेन को लेकर शुरू हुईं। यूक्रेन के पश्चिमी हिस्से पर यूरोप का और पूर्वी हिस्से पर रूस का प्रभाव पड़ने लगा। गोर्वाच्योब द्वारा शीत-युद्ध खत्म होने की भविष्यवाणी पूरी तरह सत्य सिद्ध नहीं हो रही थी। अमेरिका और यूरोप के देशों ने मिलकर जो सैन्य सहयोग संगठन नाटो बनाया था, वह समय के साथ शक्तिशाली होता जा रहा था और नित नये सदस्य उससे जुड़ते जा रहे थे। वहीं रूस, चीन और उत्तरी कोरिया का साम्यवादी गठजोड़ इन खतरों को समय के क्रम में भाँप रहा था। यहां चीन और उत्तरी कोरिया को किनारे रखते हैं; लेकिन रूस के लिये यह महत्वपूर्ण था कि नाटो को अपनी सीमा से वह दूर रखे। यद्यपि कि नॉर्वे, बाल्टिक देश और पोलैंड जैसे नाटो सदस्य देश की सीमा रूस सीमा को स्पर्श करते हैं; किन्तु यूक्रेन जैसे अपेक्षाकृत बड़े देश को रूस अपने प्रभाव में ही रखना चाहता था। रूस इसमें एक सीमा तक सफल भी रहा और यूक्रेन में नियमित रूप से रूस की ओर झुकाव वाले राष्ट्रपति भी आते रहे। वर्ष 2010 में विक्टर यानुकोविच यूक्रेन के राष्ट्रपति चुने गये; उस समय तक पश्चिमी यूक्रेन की बड़ी जनसंख्या यह चाहने एवं मानने लगी थी कि यूक्रेन को यूरोपियन यूनियन की सदस्यता प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये। यानुकोविच ने इस दिशा में कदम भी बढ़ाया; लेकिन रूस उन्हें ऐसा न करने के लिये, प्राकृतिक गैस की सस्ती आपूर्ति का प्रलोभन दिया और इस प्रकार यूक्रेन यूरोपियन यूनियन वाले निर्णय से उस समय दूर हो गया।
लेकिन जनवरी 2013 की एक रात यूक्रेन की राजधानी कीव के मैदान में यूक्रेनी जनता उमड़ पड़ी और राष्ट्रपति से त्यागपत्र माँगने लगी; इस आन्दोलन को समाचार माध्यमों में व्यापक रूप से ‘यूरोमैडन’ नाम दिया। पूरे यूक्रेन में विद्रोह के बिगुल बज गये और लेनिन की मूर्ति तोड़ दी गयी। अन्ततः फरवरी 2014 में राष्ट्रपति यानुकोविच को अपने सहयोगियों के साथ यूक्रेन से भागना पड़ा। इस अशांत दौर में यूक्रेन के दक्षिण में स्थित क्रीमिया एक बार फिर इतिहास के गर्त से बाहर आया और वहाँ रूस के समर्थन में विद्रोह होने लगे। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पूतिन ने बुडापेस्ट समझौते को स्वनिर्धारित नैतिक आधार पर भंग करते हुए क्रीमिया पर आधिपत्य कर लिया तथा साथ ही उन्होंने अपनी सीमा से लगे यूक्रेन के दो समृद्ध प्रान्तों डोनेत्स्क और लुहांस्क या डॉनबास में यूक्रेन के विरुद्ध बगावत करने वाली सेनाओं को हथियार भेजना शुरू कर दिया। इस प्रकार यह एक तरह के गृह-युद्ध का आरम्भ था, जब यूक्रेन के अन्दर रूसी संस्कृति और यूक्रेनियन संस्कृति के टकराव का बीजारोपण कर दिया गया। वर्ष 2014 में आये राष्ट्रपति पेत्रो पोरोशेन्को के लिये इस गृह-युद्ध के साथ-साथ यूरोपीय संघ में विलयन के प्रयास करना कठिन होता गया और इस प्रकार उन्हें पूर्ण सदस्यता तो नहीं मिली; लेकिन 2017 में यूरोपियन संघ के साथ उन्होंने एक साझा मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिया। स्वाभाविक रूप से रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन इस समझौते से प्रसन्न नहीं थे कि, यूक्रेन अब उनके प्रभाव से दूर जा रहा है। फिर इसकी भी सम्भावना बढ़ने लगी थी कि वह नाटो सदस्यता की ओर कदम बढ़ायें।
इसी कालखण्ड में एक विदूषक कलाकार व्लादिमीर जेलेंस्की ‘जनता के सेवक’ नाम से एक लघु टेलीविजन चलचित्र में काम कर रहे थे; जिसमें वे स्वयं यूक्रेन के राष्ट्रपति का अभिनय कर रहे थे। उससे वे इतने लोकप्रिय हुए कि 2018 में उन्होंने इसी नाम से पार्टी बनाया और 2019 में राष्ट्रपति चुनाव जीत गये। उस समय जेलेंस्की ने जनता का अधिक समर्थन पाने के लिये यह घोषणा किया कि वह यूक्रेन को यूरोपीय संघ और नाटो की सदस्यता दिलवाने का प्रयास करेंगे। जून 2021 के ब्रूसेल्स सम्मेलन में नाटो देशों ने यूक्रेन की सदस्यता पर सहमतिपूर्ण विचार किया। उसके अगले जुलाई माह में व्लादिमीर पूतिन ने एक विस्तृत भावनात्मक लेख लिखा; जिसमें उन्होंने रूस और यूक्रेन के एक प्रकार की संस्कृति की दुहाई दिया और कहा कि यह अलगाव होना किसी भी दशा में ठीक नहीं है। उनके अनुसार यूक्रेन, रूसी संस्कृति और अस्मिता का अभिन्न हिस्सा है। लेकिन दूसरी ओर यूक्रेन का राष्ट्रवाद आक्रामक हो रहा था। विशेषकर क्रीमिया पर रूस के अधिपत्य और डॉनबास प्रान्त में विद्रोह के कारण रूस की छवि यूक्रेनी जनता के दिल दिमाग में यूक्रेन के शत्रु की बनती जा रही थी। रूस समर्थक, पूर्वी यूक्रेनी भी अब अपना झुकाव पश्चिमी यूक्रेन जैसा बदलने लगे थे। उस समय यूक्रेन में यूक्रेनियाई भाषा के प्रयोग पर पहले भी बल दिया गया और इसे राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा जाने लगा। उदाहरण के लिये यूक्रेन की राजधानी कीव को पहले आंग्ल भाषा में KEIV लिखा जाता था, जिसे यूक्रेन ने अपने उच्चारण के अनुसार E के स्थान पर Y लिखना शुरू कर दिया।
जेलेंस्की के प्रयास से क्षुब्ध होकर व्लादिमीर पूतिन ने यूक्रेन की नाटो सदस्यता की सम्भावना पर कड़ी आपत्ति जताया और उसके विरुद्ध सैन्य कारवाई की धमकी तक दे डाली। उन्होंने कहा था कि रूस की सीमा पर नाटो की मिसाइलें तनी रहना रूस की शान्ति के लिये ठीक नहीं है। उन्होंने अपनी परमाणु शक्ति का सन्दर्भ देकर कहा कि ऐसी स्थिति में उन्हें कठोर कदम उठाने पड़ सकते हैं। इस प्रकार यूक्रेन की प्रतिक्रिया स्वरूप वर्ष 21 फरवरी 2022 को उन्होंने दोनों डॉनबास प्रान्तों को देश के रूप में स्वीकार कर लिया और उनकी यूक्रेन से अलग स्वतन्त्रता की घोषणा कर दिया। इसके साथ ही उन्होंने यूक्रेन के रूसी-भाषी नागरिकों की सुरक्षा का भी हवाला दिया; इसके तीन दिन बाद ही रूस की सेना यूक्रेन पर मिसाइलें दाग रही थीं। डेढ़ लाख से अधिक रूसी सैनिकों ने यूक्रेन को तीन दिशाओं से घेर लिया और उत्तर में बेलारूस की ओर से कीव पर हमले करने लगे। रूस की ओर से खारकीव और दक्षिण में क्रीमिया से घेराबन्दी हो रही थी। परिणामस्वरूप यूक्रेन की सरकार ने मार्शल लॉ लगा दिया और वहां के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने इसे अपनी अस्मिता की लड़ाई कह कर दुनिया से समर्थन माँगा। नाटो सदस्यता नहीं होने के कारण उन देशों की सेनाएँ यूक्रेन के धरातल पर नहीं उतर सकती थीं; लेकिन बाहर से आर्थिक और अस्त्र-सहयोग दे सकती थीं। अपने अनुभव के कारण जेलेंस्की एक अच्छे मीडिया मैनेजर भी साबित हुए, जिन्होंने बहुत कम समय में अपनी मजबूत छवि विश्व-पटल पर रखने में सफलता प्राप्त किया और यूरोपीय संघ के सामने कहा कि ‘आप सिद्ध करें कि आप यूरोपीय हैं और यूक्रेन का साथ नहीं छोड़ेंगे; इससे मृत्यु पर जीवन की और अन्धकार पर प्रकाश की विजय होगी एवं फलस्वरूप यूक्रेन की विजय होगी।”
इससे पूर्व उन्होंने अमरीका द्वारा देश छोड़ने के सुझाव पर कहा था कि ‘मुझे टैक्सी नहीं, हथियार भेजें।’ कुछ लोगों की दृष्टि में जेलेंस्की की छवि विदूषक से राजनेता बनने की छटपटाहट के रूप में देखा गया, जिसने यूक्रेन को युद्ध में झोंक दिया। वहीं उत्तरी यूरोपीय विचारकों जैसे नार्वे के प्रोफेसर शेल रिंगदाल ने जेलेंस्की की तुलना विंस्टन चर्चिल से किया। वैसे तो सच्चाई और भी है कि, रूस के सामने यूक्रेन एक मामूली देश है; लेकिन उन्होंने इन पंक्तियों के लिखने तक एक हफ्ते की लड़ाई पूरी कर लिया था। उन्होंने यह सिद्ध किया कि कभी भी कोसैक योद्धाओं की यह धरती रूसी सेना का अकेले धरातलीय मुकाबला कर सकती है। कीव को कभी मंगोलों ने नेस्तनाबूद कर दिया था और अब अपनी ही संस्कृति का आक्रमण झेलना पड़ रहा है। इससे यूक्रेन में रूस विरोधी भावनाएँ बढ़ने की व्यापक सम्भावना है। वहीं रूस भी अपना पुराना गौरव स्थापित करने की चाहत में पड़ गया, जो एक विशाल साम्राज्य के रूप में पहले से ही स्थापित था। यह भी कहा जा सकता है कि रूस मात्र अपनी सीमाओं की सुरक्षा चाहता है; जिसके लिये यूक्रेन का रूस समर्थक होना आवश्यक है।
इस आलोक में पाकिस्तान को भिन्न आँख से देखना भी एक जरूरी दृष्टि है। पाकिस्तान आने वाले समय में निश्चित रूप से विभिन्न टुकड़ों में टूटेगा और बंटेगा। इसलिये उसके द्वारा भारत के विरुद्ध षडयंत्र करके अपने देश के लोगों को गुमराह करना जरूरी है और वह यह काम लगातार कर रहा है। किसी भी देश की अधिसंख्य जनता, देश के प्रति अधिकतम भावनाओं से जुड़ी रहती है; लेकिन जिस दिन यह भ्रम टूटता है कि सरकार अपने को केवल बनाये रखने के लिये जनता को भावनात्मक रूप से उपयोग कर रही है, आन्दोलन विद्रोह या बगावत होता ही है, जैसे रूस में साम्यवाद के कारण हुआ और पाकिस्तान में आतंकवाद के कारण बलूचिस्तान के रूप में हो रहा है और आगे सिन्ध पंजाब और अन्य के रूप में होगा ही; क्योंकि पाकिस्तान के पास आर्थिक संकट है और उसके पास देश के लोगों को जोड़े रखने के लिये भारत विरोधी छद्मयुद्ध के अलावा कोई मार्ग नहीं है। यही काम अमेरिका और भारत को लक्ष्य करके चीन करता आया है; यही सीख उसने पाकिस्तान को भी दिया है। चीन भी पाकिस्तान की स्थिति में जायेगा ही; लेकिन थोड़ा समय लगेगा; क्योंकि प्रकृति के एकदम वितरित उसकी समृद्धि लम्बी नहीं चलने वाली है और वहां की जनता पिछली सदी में तीन बार बगावत कर चुकी है। वहां लोकतंत्र नहीं है; जिसमें जनता को समय-समय से भड़ास निकालने का अवसर मिल जाता है। जब जनता का वह भड़ास सामान्य रूप से नहीं निकल पाता है तो विद्रोह और बगावत का स्वरूप लेता है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी उसी तरीके से चल रही है, जैसे गोर्वाच्योब, ‘ग्लासनोस्त’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ को लेकर चल रहे थे; बस जनता को गुमराह करने के लिये दूसरे के विरुद्ध भड़का नहीं सके और ली जिनपिंग जैसी तानाशाही छवि भी नहीं बना सके, इसलिये जल्दी उखड़ गये। चीन भी उखड़ेगा; लेकिन थोड़ा समय लगेगा; क्योंकि प्रवृत्ति ठीक वही है, दिखावा साम्यवाद का है, कर्म पूंजीवादी है, यह चलता नहीं है, चलेगा भी नहीं।
भारत में जो लोग भीषण गर्मी में द्वितीय या तृतीय तल पर ड्यूटी लगते ही कुम्हला या मूर्छित होने लगते हैं; हमको कम से कम इन परिस्थितियों में देश या सेना पर गलत प्रश्नों, कुतर्कों, बहस और आपसी अविश्वास से बचना चाहिये। यदि दोष देना है तो उनसे पूछिये, जिनके घरों के नौनिहाल सीमा पर राजस्थान में 50 डिग्री सेल्सियस से ऊपर और चीन या पाक अधिकृत कश्मीर में ऋण 20-25 डिग्री सेल्सियस पर गश्त लगाते हैं। यदि सूचना के कुछ विश्वसनीय स्रोत आप ढूंढ सकें तो ठीक, अन्यथा तो नकारात्मक ‘मीडिया और सोशल मीडिया’ से भी बचने की आवश्यकता है। इन पर अब सही नियमन और यदि हो सके तो इनको दण्डित करने की भी जरूरत है। अनेक प्रश्न लोगों के मन में आ रहे हैं, स्वाभाविक भी हैं, प्रश्न होने भी चाहिये; क्योंकि सब लोगों के संज्ञान में सब कुछ हो, यह सम्भव नहीं है। कई भूतपूर्व सैनिकों की प्रतिक्रिया भी युद्ध विराम के विपरीत है। इससे लोगों के प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति और भी बलवती दिखायी पड़ती है। उदाहरण के लिये- क्या पहलगाम के आतंकियों की पूरी पहचान या खोज हुई या वे मारे गये? सुरक्षा में इतनी चूक क्या सच में पाक प्रायोजित थी या आन्तरिक विरोधी शक्तियों द्वारा प्रायोजित थी? इतनी जल्दी आतंकी कहां चले गये? क्या आपरेशन सिन्दूर अनिवार्य था या यह सिर्फ चुनाव जीतने के लिये थोप दिया गया? ऐसे भी आधारहीन प्रश्न पूछे गये, जबकि निकट में कोई चुनाव है ही नहीं। मेरे विचार से तो यदि पहलगाम हमला न भी हुआ हो तो, भी भारत की कार्यवाही जरूरी थी। वे आतंकी अभी नहीं, हर समय देश के लिये खतरा हैं। इसमें मसूद अजहर, हाफिज सईद जैसे दुर्दांत आतंकियों या उनके ठिकानों को टारगेट किया गया। धरती से कुछ तो अपराधी कम हुए। आगे भी लोगों ने प्रश्न किया, जैसे- युद्ध में पापियों को कितनी क्षति हुई और हमें जन-धन का कितना नुकसान हुआ? इसका पूरा आकलन तो अभी मुश्किल है; क्योंकि मीडिया और सोशल मीडिया गलत सूचनाओं से पटी पड़ी हैं। युद्ध हुआ है तो नुकसान दोनों का हुआ होगा; लेकिन सच यह है कि युद्ध इतना हुआ ही नहीं जितना पेश किया गया। मीडिया का कार्य था कि पापियों के नुकसान की वास्तविक तस्वीर सामने रखे। अपने यहां के नुकसान और नकारात्मक खबरों से बचे; किन्तु टी आर पी के लिये तो कुछ भी करने का इनका इस समय चलन है। मीडिया का यह स्वरूप यदि स्वाधीनता की लड़ाई के समय होता तो, शायद उस समय की लड़ाई में हमारे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को सफलता न मिलती।
इस समय जो लोग युद्ध-विराम से दुखी या निराश हैं या प्रश्न कर रहे हैं? उसका बहुत बड़ा कारण मीडिया भी है; जिसने लोगों को दिखाया कि हम कराची, लाहौर और अन्य शहरों को बस तुरन्त ही जीतने वाले हैं, बलूचिस्तान भी आजाद होने ही वाला है। क्या माध्यमों ने यह सब देश या देश के नेतृत्व के लिये किया? नहीं, इसमें टी आर पी कहीं अधिक बड़ा कारण रहा है। क्या इस समय युद्ध विराम समयानुकूल या उचित था? यदि हम वास्तव में अच्छी स्थिति में थे तो शायद नहीं; क्योंकि पापी और आतंंकी बेशर्म और बेहया होते हैं, वे बाज नहीं आ सकते। यह सोचना स्वाभाविक है कि, युद्ध हो ही रहा था तो थोड़ा अच्छे से दबा देना आवश्यक था। यद्यपि कि युद्ध विराम के पीछे कई बड़े राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय कारक होंगे, जिनका सामान्य या अकूटनीतिक नागरिक वृन्द अनुमान नहीं लगा सकता। भारत का यह निर्णय कि, यदि आगे पुनः कोई आतंकी हमला होगा तो उसे युद्ध माना जायेगा, सही कदम था। फिर भी, भविष्य में ऐसे हमलों के लिये क्या नीति हो? यह तस्वीर स्पष्ट होनी चाहिये और यह प्रधानमन्त्री की देख-रेख में विदेश एवं रक्षा मंत्रालय में स्पष्ट होगा ही। भारत को बाह्य और आन्तरिक दोनों स्तर पर नीतियों की जरूरत था और बीते एक दशक से हम जरूरत के अनुसार ही नीतियों पर चल रहे हैं या काम कर रहे हैं। इस विषय में हमें सब कुछ के साथ-साथ इजरायल से विशेष रूप से सीखना होगा।
इजरायल की नीति, एक मारोगे तो हम सौ मारेंगे और जहां कहीं होगे, वहीं जाकर मारेंगे। आतंकवाद के सम्बन्ध में जरूरी नीति है। वर्तमान समय में लड़ाइयाँ संख्याबल से नहीं, तकनीकी दक्षता से लड़ी जाती हैं। आश्चर्यजनक है कि हम अपने सैन्य तन्त्र पर गर्व कर रहे हैं, पिछले दस-बारह वर्ष में उसमें बहुत कुछ प्रगति हुई है; फिर भी अभी उसमें बहुत कुछ करना बाकी है। एक छोटे देश इजराइल द्वारा बनाया गया सैन्य और चतुराई भरा ‘मोसाद’ बहुत अच्छा है। भारत का रक्षा विभाग और चतुराई वाली सेवाओं (इंटेलीजेंस सर्विस) को अभी और बहुत मजबूत बनाने की जरूरत है। पहलगाम हमले को रोका भी जा सकता था; चूक कहां हुई, इसकी जॉच जरूरी है। वास्तव में चीन, पाक को सह देकर, भारत में मजहबी उन्माद बढ़ाता रहता है; जबकि दुनिया जानती है कि छः प्रतिशत के आसपास की संख्या वाले मुस्लिम जन समुदाय की जो दुर्दशा चीन में है, वह पूरे विश्व में कहीं नहीं है। ओवैसी जैसे लोगों ने भी चीन-पाकिस्तान दुरभि-सन्धि पर भारत को आगाह किया है। इसके बाद भी चीन से कुछ बातें ग्रहणीय हैं; क्योंकि राष्ट्रधर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं। क्षेत्रफल में भारत का तीन गुना और संसाधनों में कई गुना होने के बावजूद चीन ने 1986 से ही जनसंख्या नियंत्रण नीति अपनाया है, भारत में भी इसकी व्यापक आवश्यकता है। यदि सक्षम बनना है, संसाधन बढ़ाने हैं, भूखमरी, बेरोजगारी, गरीबी, अपराध, वेश्यावृत्ति, आतंकवाद, पर्यावरण का अवनयन आदि रोकना है तो, देश और राष्ट्र हित में जनसंख्या नियन्त्रण नीति लानी और लागू करनी ही होगी। शिनजियांग में अन्य कई उपाय अपनाये गये, जिनमें जनसंख्या विकीर्णन प्रमुख है। कश्मीर में मानवता को ध्यान में रखते हुए, चीन के अनुक्रम में जरूरी नीतियों को लागू किया जाना आवश्यक था और भारत सरकार इस हेतु लगातार जरूरी कदम उठा रही है।
बीते 26/11 के बाद अमेरिका में कोई बड़ा आतंकी हमला हुआ हो, ऐसा नहीं है; जबकि वह सभी आतंकियों और कई आतंकी संगठनों के निशाने पर है। क्योंकि अमेरिका ने अपने स्लीपर-सेल्स और एक्टिव सेल्स को चुन-चुनकर और तड़पा-तड़पाकर समाप्त किया है। भारत के लिये यह पाकिस्तान को जीतने से अधिक जरूरी है; क्योंकि स्लीपर-सेल्स न सिर्फ आतंकियों को शह, पनाह और सूचनाएं देते हैं; बल्कि मासूम और देशभक्त लोगों को बरगलाते और भड़काते भी रहते हैं। अन्य और भी अनेक तरीके हैं; जो कि कठिन हैं, पर नामुमकिन नहीं हैं। एक अन्तिम सवाल यह हो सकता है कि क्या यह सब करने से आतंकवाद पूर्णतया खत्म हो जायेगा? उत्तर है नहीं, उसके लिये वैश्विक प्रयास चाहिये; लेकिन यह निम्नतम होगा और यह तब पूर्णतम होगा, जब हम जवाब देने में सक्षम होंगे, सक्षमता की इस दिशा में अटल जी एवं मोदी जी के समय में निसंदेह बहुत कार्य हुए हैं। “शान्ति चाहिये तो युद्ध के लिये तैयार रहना ही होगा।” अब कुछ अपने लिये जरूरी प्रश्न कि, फरवरी 2022 से चल रहे यूक्रेन-रूस युद्ध से हमें क्या सीखना चाहिये? रूस इस स्थिति में अपने अस्त्र-शस्त्र से भारत की कितनी और कब तक मदद करेगा? चीन, जो की हर प्रकार से पाकिस्तान के साथ हाथ मिलाकर और उसे उकसाकर यदि इस लड़ाई को जारी रखता तो हमें क्या प्राप्त होता और हमें क्या करना चाहिये? पूर्व की ओर से बांग्लादेशी चरमपंथी हमारे विरुद्ध लगातार षडयंत्र कर रहे हैं। हमारी स्थिति कमजोर होते ही वह हमें छद्म-युद्ध से नुकसान पहुँचाने की कोशिश करेंगे ही। ऐसी स्थिति में भारत कितने फ्रंट पर एक साथ अपने संसाधनों से लड़ सकेगा? बांग्लादेश 1971 के युद्ध को और भारत के तत्कालीन सहयोग को भूल चुका है और उसका चरित्र पूर्णतः आतंकवादी हो चुका है।
अमेरिका ने युद्ध-विराम हेतु यह हस्तक्षेप, चीन के साथ आयात-निर्यात कर संघर्ष में भारत को अपने साथ रखने की दृष्टि से किया है। यद्यपि अब भारत एवं पाकिस्तान दोनों देश अपने सैन्य शक्ति को मजबूत करेंगे और अमेरिका भी इस दोहरी खरीददारी से लाभान्वित होने वाले देशों में से एक होगा; लेकिन पाकिस्तान इसमें कहां तक चल पायेगा, एक बड़ा प्रश्न है। युद्ध बढ़ता तो अधिक नुकसान पाकिस्तान को होता या भारत को? आप जिस इस्लामिक आतंक से आहत हैं, क्या पाकिस्तान उससे अछूता है? तो ऐसी स्थिति में भारत स्वयं को किस तरह या किन माध्यमों से सशक्त करे? आज कई राष्ट्र भारत को आर्थिक एवं सामरिक रूप से कमजोर करने को लालायित है; लेकिन भारत बढ़ता जा रहा है। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, जब यह सर्वज्ञात है कि आज की मीडिया गलत मार्ग पर है, तो आप समझदार होते हुए भी ऐसे चैनलों/माध्यमों को देखने पढ़ने पर क्यों बाध्य है? युद्ध-विराम, उस दिन नहीं तो कुछ दिन बाद ही सही, होना तो तय था। हमारे लिये, इसका अभी हो जाना, हर तरह से बेहतर और नेतृत्व ने ठीक किया। आपके यह प्रश्न आपकी मनःस्थिति की उपज हैं। भारत ने युद्ध नहीं शुरू किया। उसने आतंकियों द्वारा की गई हत्याओं की सजा देने के लिये पाकिस्तान की सीमा के 150 किलोमीटर भीतर तक जाकर आतंकी ठिकाने पर वार किया। जिसमें कम से कम 100 आतंकी मारे गये। कितने दुर्दांत आतंकी और उनके सहयोगी मारे गये, उनके नाम सामने भी आ चुके हैं। यह बहुत ही साहसिक और मजबूत अभियान था। बेशर्म पाकिस्तान की एक राष्ट्र के रूप में अस्मिता पर यह हमला था, लेकिन उसको इसकी शर्मिंदगी महसूस नहीं होगी। इस सरकार के अतिरिक्त आज तक किसी सरकार ने आतंकी घटनाओं के विरोध में ऐसा नहीं किया था। भारत सरकार ने इस कार्यवाही के बाद स्पष्ट कर दिया कि वह पाकिस्तान, पाकिस्तान की सेना या नागरिकों के खिलाफ आक्रमण नहीं कर रहा; उसकी करवाई पाकिस्तान प्रायोजित आतंकियों के खिलाफ थी। पाकिस्तान ने अपनी लाज बचाने के लिये प्रतिक्रिया दिया। उस प्रतिक्रिया में उसे जो नुकसान हुआ वह इतना बड़ा है कि उसका आंकलन वह नहीं करेगा; लेकिन भारत अपने समय से करेगा। यह हम आप थे कि इसे पाकिस्तान को तोड़ने, पी ओ के कब्जाने आदि की अपेक्षा के साथ जोड़ बैठे। भारत सरकार ने यह बात कभी नहीं कहा। इसी अपेक्षा का पूरा न होना हम सबको खल रहा है। दो दिन तक भारी नुकसान के बाद, पाकिस्तान का पीछे हटना उसे दीर्घकालिक चोट दिया और देगा। बारी-बारी से इन दोनों दिनों में भी पहला वार पाकिस्तान ने ही किया; हमारी सरकार ने उनको इस वार का सबक भर दिया। भारत वहीं है, जहां वह 9 आतंकी ठिकानों को मारने के बाद था। पाकिस्तान ट्रंप के पास गया, ट्रंप ने भारत से बात किया। भारत ने कहा हम तो आतंकियों को मार रहे हैं। पाकिस्तान ने इसके विरोध में हमला किया। वे शांत रहें, तो हम शान्त हैं। भारत ने यह भी कहा कि देश पर कोई आतंकी हमला युद्ध माना जायेगा। पाकिस्तान ने इन शर्तों को स्वीकार किया तो, एक जिम्मेदार राष्ट्र के रूप में भारत ने सशर्त युद्ध विराम किया। यह भारत की जीत है। इस युद्ध विराम का स्वागत है।
नि:सन्देह पहलगाम के बाद का भारत का निर्णय बहुत ही साहसिक और मजबूत था। आतंकवादी मारे गये; लेकिन हाफिज और अजहर जैसे खूंखार सरगना अभी भी जिन्दा हैं। उनके प्रत्यर्पण की बात हुई है तो ठीक, नहीं हुई, तो होनी चाहिये? यह सच है कि पाकिस्तान को कम से कम दो भागों मे तोड़ने और पी ओ के को पुनः प्राप्त करने की इच्छा प्रबल थी; क्योंकि हमारे पास मजबूत इच्छा-शक्ति और दृढ़-निश्चय वाला नेतृत्व है। जबकि पाकिस्तान झूठ बोलकर अन्तर्राष्ट्रीय समाचार माध्यमों में अपने को दिखाने का प्रयास कर रहा है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हमारी सेना इस बार आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने की ओर बढ़ रही थी। लेकिन युद्ध-विराम आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने की एक आदर्श संकल्पना है, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है; परन्तु यह भी सच है कि पाकिस्तान के सम्बन्ध में इस आदर्श स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती; उसके सम्बन्ध में यह आदर्श स्थिति कभी पूरी नहीं हो सकती। दुनिया के प्रायः प्रत्येक देश में कमोवेश आतंकी घटनाएं हो जाती हैं; उसे कमजोर और समाप्त प्राय जरूर किया जा सकता है। अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश ने भी उसके ही टुकड़ों पर पलने वाले पाकिस्तान में पल रहे आतंकी ओसामा बिन लादेन को मारने के लिये पूरे पाकिस्तान को नहीं मारा; विशेष प्रकार के अभियान से ही उसे मारा। भारत में ऐसे अभियान अब तक नहीं होते थे; किन्तु तीन बार से इसी सरकार के कार्यकाल में हो रहे हैं। सभी देश इजरायल नहीं हो सकते; वह दुनिया में अपवाद है। फिर भी वह आतंक मुक्त नहीं हो पाया है। पहलगाम के बाद केवल चार दिन की लड़ाई हुई; इससे बहुत लम्बे-लम्बे रहस्यों से पर्दा उठा, जिसे सुनकर दुनिया के होश उड़ गये। ऑपरेशन सिन्दूर के बाद जो खुलासे हुए; वह केवल पाकिस्तान की हार की कहानी नहीं थी। वह चीन की मिलीभगत और अमेरिका की छुपी रणनीति की परतें भी उधेड़ गये। दरअसल, अब यह साफ हो चुका है कि पाकिस्तान के पास अपना कोई परमाणु हथियारों का जखीरा नहीं है; यदि कुछ है तो परमाणु हथियार बना सकने के कुछ कच्चे माल हैं; लेकिन पूरे नहीं हैं, इसलिये वह बना भी नहीं सकता। जी हाँ, जो परमाणु शक्ति पाकिस्तान दशकों से दिखा रहा था; वह वास्तव में अमेरिका की गोपनीय परमाण्विक तिजोरी थी; जिसे 1998 में पाकिस्तान में छुपाया गया था और उसी के आसपास भारत की इस बार मिसाइलें गिरीं; जिससे उसमें रिसाव का खतरा उत्पन्न हुआ और अमेरिका युद्ध-विराम के लिये विवश हुआ तथा उसे भारत से आगे न बढ़ने के लिये आग्रह करना पड़ा। भारत भी इसीलिये मान गया; क्योंकि यदि रिसाव होता तो, भारत और आप पास के लिये भी बड़ा संकट होता। भारत एक मानवतावादी देश है। अमेरिका को पाकिस्तान की यह जगह तिजोरी के रूप में इसलिये खास लगी थी; क्योंकि अगर कभी कोई हमला हो, तो अधिकांश नुकसान पाकिस्तान और आसपास के एशियाई भाग को हो। पाकिस्तान की तत्कालीन मजबूरी थी, उसको तिजोरी हेतु जगह देनी पड़ी। भारत जब 1998 में परमाणु परीक्षण कर रहा था और अमेरिका धमकियाँ दे रहा था, तभी अमेरिका ने पाकिस्तान को परीक्षण करवाकर दुनिया को भ्रमित किया था कि अब पाकिस्तान भी परमाणु शक्ति है। इतना ही नहीं, पाकिस्तान की इस नकली परमाणु छवि से भारत को डराने का खेल भी तभी से शुरू हुआ और उस खेल को अनजाने में चीन ने भी श्रेय लेने के लिये हवा देना शुरू किया। जिसमें देश के अन्दर बैठे चीनी और अमेरिकी भक्त भी पाकिस्तान की ताकत का डर दिखाते रहे। लेकिन समय बदला और सत्ता पहुँची उस नेता के हाथ में जो डरता नहीं, जवाब देता है। देश के वर्तमान नेतृत्व ने पहले भारत को आत्मनिर्भर बनाया, अमेरिका को मित्रता में बाँधा और पाकिस्तान को धैर्य से देखा तथा निष्कर्ष पर पहुँच गया।
इसी कारण जब पहलगाम में भारतीयों का अभारतीयों द्वारा रक्त बहाया गया; तो भारतीय नेतृत्व ने वही किया जिसका किसी ने अनुमान भी नहीं लगाया था और आक्रमण सीधा किया गया। भारतीय सेना ने मिसाइलों से पाकिस्तान की नींव हिला दिया और जब हमारी मारक क्षमता उन परमाणु ठिकानों तक जा पहुंचीं, जो अब तक ‘अदृश्य’ माने जा रहे थे; तब अमेरिका की नींद टूटी और उसे डर सता गया कि अगर भारत ने हमला जारी रखा, तो उसकी खुद की तिजोरी खाक हो जायेगी। चीन भी जिस चीज का अब तक केवल अनुमान लगा रहा था और पाकिस्तान को अपना सर्वाधिक करीबी मान रहा था; उसको भी समझ में आया कि पाकिस्तान पहले तो अमेरिका का सबसे खास था! अब क्या वह हमारा सबसे खास है? चीन का यह सवाल अभी तक हल नहीं हुआ है और न तो अमेरिका और न ही पाकिस्तान इसको हल होने देना चाहते हैं। परन्तु यह तो सच है कि भारत की वर्तमान वैदेशिक नीति के कारण एवं चीन की गन्दी दृष्टि एवं गतिविधि के कारण, अब अमेरिका भारत के अधिक करीब है। इस परिस्थिति में यदि भारत की ओर से युद्ध की स्थिति आगे बढ़ती तो अमेरिका दुनिया के सामने अपना चेहरा नहीं दिखा पाता और भारत के साथ सम्बन्ध पर भी असर पड़ता। अब अमेरिका न बोल सकता था, न रोक सकता था; वो चुपचाप भारत को मित्रता का वास्ता देने लगा। रिपब्लिकन की वहां सत्ता होने के कारण भारत को भी उस प्रस्ताव को बेमन से ही सही, स्वीकार करना पड़ा। भारतीय नेतृत्व ने समय और परिस्थिति को समझा, चार दिन में दुश्मन को धूल चटाया और शर्तों के साथ युद्ध-विराम किया। पाकिस्तान को पूरी दुनिया के सामने नंगा दिया और अमेरिका को चुपचाप अपनी तिजोरी समेटने पर मजबूर कर दिया। यह कमोवेश अमेरिका के हित में भी था; क्योंकि इससे चीन के दिमाग में पाकिस्तान की जो हैसियत थी, उसकी भी हवा निकल गयी। आज अमेरिका पाकिस्तान से परमाणु सम्बन्धी साजो सामान हटाने की जद्दोजहद में लगा है। भारतीय नेतृत्व ने अमेरिकी नेतृत्व को स्वयं ही उसका काम याद दिला दिया है। अब अमेरिका झुका हुआ है, चीन चुप है और पाकिस्तान हिल चुका है। सूत्र बताते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान से अपने परमाणु हथियार उठाने जा रहा है और अपनी साख बचाने के लिये इसे नाम देगा ‘पाकिस्तान का परमाणु समर्पण’। यह भारत की बहुत बड़ी वैश्विक कूटनीतिक विजय है। चार दिन की इस लड़ाई ने भारत को एक नया वैश्विक ऊँचाई दिया है। अब भारत केवल एक देश मात्र नहीं, परिणाम देने वाली विश्व-शक्ति है।
कौस्तुभ नारायण मिश्र
30 मई 2025
