मोहनदास करमचन्द गाँधी, जिन्हें महात्मा गाँधी के नाम से भी जाना जाता है। भारत एवं भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के एक प्रकार से प्रमुख थे तथा वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता बताये जाते हैं। उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी, जिसने भारत को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। गाँधी जी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने सम्बोधित किया था। एक अन्य मत के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने 1915 में महात्मा की उपाधि दिया था; तीसरा मत है कि गुरु रविन्द्रनाथ टैगोर ने महात्मा की उपाधि प्रदान किया था। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में बापू यानी पिता) के नाम से भी स्मरण किया जाता है। बापू नाम से सम्बोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति उनके साबरमती आश्रम के शिष्य थे। सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गाँधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगा था, यह भी एक तथ्य है। प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्मदिन भारत में गाँधी जयन्ती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है। सन 1915 में गाँधी की भारत वापसी से पहले उन्होंने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना आरम्भ किया। उसके बाद देश के किसानों, श्रमिकों और नगरीय श्रमिकों को अत्यधिक भूमिकर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। सन 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर सम्भालने के बाद उन्होंने देशभर में दरिद्रता से मुक्ति दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्यता के विरोध में भी अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज प्राप्ति का कार्यक्रम भी प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये लवण कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन से विशेष विख्याति प्राप्त किया था।
दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें कारागृह में भी रहना पड़ा। गाँधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये प्रेरित भी किया। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन बिताया और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहना, जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। गाँधी जी ने सदैव शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास भी रखे। गाँधी जी के पिता करमचन्द गाँधी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी रियासत पोरबन्दर के दीवान थे। उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय से थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय दिवंगत गयी थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर उनका प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे; जिसने आगे चलकर महात्मा गाँधी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। मई 1883 में 13 वर्ष की वर्ष की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह 14 वर्ष की कस्तूर बाई मकनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके इन्होंने कस्तूरबा कर दिया गया और उन्हें लोग प्यार से बा कहने लगे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। इसी वर्ष उनके पिता करमचन्द गांधी भी चल बसे। महात्मा के चार पुत्र हरीलाल गाँधी 1888; मणिलाल गाँधी 1892; रामदास गाँधी 1997 और देवदास गाँधी 1900 में पैदा हुए थे। मैट्रिक के बाद की परीक्षा उन्होंने भावनगर के शामलदास कॉलेज से कुछ समस्या के साथ उत्तीर्ण की। जब तक वे वहाँ रहे अप्रसन्न ही रहे; क्योंकि उनका परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था। उन्नीस वर्ष की आयु में 04 सितम्बर 1888 को गाँधी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस, शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिये अपनी माता जी को दिये गये एक वचन ने उनके शाही राजधानी लन्दन में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गांधी जी ने अंग्रेजी रीति रिवाजों का अनुभव भी किया, जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाने आदि का। अपनी माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने जाना था, उसे सीधे अपनाने की बजाय उन्होंने बौद्धिकता से शाकाहारी भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। वे जिन शाकाहारी लोगों से मिले उनमें से कुछ थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना 1875 में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये किया गया था? और इसे बौद्ध धर्म एवं सनातन धर्म के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था?
लोगों ने गाँधी जी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य मतों के बारे में पढ़ने से पहले गाँधी ने धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखाया। इंग्लैण्ड और वेल्स बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये; किन्तु बम्बई में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये राजकोट को ही अपना स्थायी केन्द्र बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी के उत्पीड़न के कारण उन्हें यह कार्य भी छोड़ना पड़ा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने बड़े भाई की ओर से परोपकार की असफल कोशिश के रूप में किया है। यही वह कारण था जिससे उन्होंने सन 1893 में एक भारतीय फर्म से नेटाल, दक्षिण अफ्रीका में; जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का भाग था, एक वर्ष के करार पर वकालत का कार्य स्वीकार कर लिया। वहाँ उनको भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इन्कार करने के लिये ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया। इतना ही नहीं पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार भी झेलनी पड़ी। वकालत कार्य के दौरान अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। ये सभी घटनाक्रम घटनाएँ उनके जीवन में एक मोड़ बन गयी और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में सहायक सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिये भी लगातार प्रश्न खड़े करने शुरू किये।
सन 1906 में जुलू, दक्षिण अफ्रीका में नये चुनाव कर के लागू करने के बाद दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला गया; जिससे अंग्रेजों ने जूलू के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। गाँधी जी ने भारतीयों को भर्ती करने के लिये ब्रिटिश अधिकारियों को दबाव पूर्वक प्रेरित करने का प्रयास किया; उनका तर्क था कि अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा पहनाने के लिये भारतीयों को युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिये। किन्तु अंग्रेजों ने अपनी सेना में भारतीयों को पद देने से मना कर दिया था; परन्तु इसके बावजूद उन्होंने गाँधी जी के इस प्रस्ताव को मान लिया कि भारतीय, घायल अंग्रेज सैनिकों को उपचार के लिये स्टेचर पर लाने के लिये स्वेक्षापूर्वक कार्य कर सकते हैं। इस कोर की बागडोर स्वयं गाँधी जी ने पकड़ा; लेकिन उनके विचार से 1906 का मसौदा अध्यादेश भारतीयों की स्थिति में किसी निवासी के नीचे वाले स्तर के समान लाने जैसा था। इसलिए उन्होंने सत्याग्रह की तर्ज पर \’काफिर\’ का उदाहरण देते हुए भारतीयों से अध्यादेश का विरोध करने को कहा। सन 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत में रहने के लिये लौटने के बाद उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में विभिन्न अवसरों पर अपने विचार व्यक्त किये; किन्तु उनके विचार भारत के मुख्य मुद्दों, राजनीति तथा उस समय के कांग्रेस दल के प्रमुख भारतीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले पर ही आधारित थे। गाँधी को पहली बड़ी उपलब्धि 1918 में चम्पारन और खेड़ा सत्याग्रह में मिली; यद्यपि कि अपने निर्वाह के लिये जरूरी खाद्य फसलों की बजाय नील नकद पैसा देने वाली खाद्य फसलों की खेती वाले आन्दोलन भी महत्वपूर्ण रहे। जमींदारों की ताकत से दमन के शिकार हुए भारतीयों को नाममात्र भरपाई भत्ता दिया गया, जिससे वे अत्यधिक गरीबी से घिर गये। गाँवों को बुरी तरह गन्दगी अस्वास्थ्यकर व्यवस्था शराब अस्पृश्यता और परदा आदि जैसी चीजों से अंग्रेजों के प्रभाव से बाँध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिये अंग्रेजों द्वारा दमनकारी कर लगा दिया गया; जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता गया। यह स्थिति निराशजनक थी। खेड़ा, गुजरात में भी यही समस्या थी। गाँधी जी ने वहाँ एक आश्रम बनाया, जहाँ उनके बहुत सारे समर्थकों और नये कार्यकर्ताओं को संगठित किया गया; जिसके कारण उन्हें अशान्ति फैलाने के लिये पुलिस ने गिरफ्तार किया और प्रान्त छोड़ने के लिये आदेश दिया गया। हजारों की तादाद में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। गाँधी जी ने जमींदारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों का नेतृत्व किया। जिसके कारण उन्होंने अंग्रेजी सरकार से उस क्षेत्र के गरीब किसानों को अधिक क्षतिपूर्ति देने तथा खेती पर नियन्त्रण, राजस्व में बढोतरी को रद्द करना तथा इसे संग्रहित करने वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। खेड़ा में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ विचार- विमर्श के लिये किसानों का नेतृत्व किया; जिसमें अंग्रेजों द्वारा राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया।
उन्होंने असहयोग, अहिंसा तथा शान्तिपूर्ण प्रतिकार को अंग्रेजों के विरुद्ध शस्त्र के रूप में उपयोग किया। पंजाब में अंग्रेजी फौजों द्वारा भारतीयों पर जलियावाला नरसंहार, जिसे अमृतसर नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है, ने देश को भारी आघात पहुँचाया; जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी। महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश नागरिकों तथा दंगों के शिकार लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त किया तथा पार्टी के आरम्भिक विरोध के बाद दंगों की भर्त्सना भी किया। दिसम्बर 1921 में गाँधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को स्वराज के नाम वाले एक नये उद्देश्य के साथ संगठित किया गया। पार्दी में सदस्यता सांकेतिक शुल्क का भुगतान करने पर सभी के लिये खुली थी। पार्टी को केवल एक कुलीन संगठन न बनाकर, इसे राष्ट्रीय जनता की पार्टी बनाने के लिये इसके अन्दर अनुशासन में सुधार लाने के लिये एक पदसोपान समिति गठित की गयी। गाँधी ने अपने अहिंसात्मक मञ्च को \’स्वदेशी नीति\’ में शामिल करने के लिये विस्तार किया, जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना शामिल था। इसके अलावा उन्होंने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार और सरकारी नौकरियों को छोड़ने का तथा सरकार से प्राप्त तमगों और सम्मान को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया। असहयोग को दूर-दूर से अपील और सफलता मिली, जिससे समाज के सभी वर्गों की जनता में जोश और भागीदारी बढ़ी। फिर जैसे ही यह आन्दोलन अपने शीर्ष पर पहुँचा, वैसे फरवरी 1922 में चौरी-चौरा, उत्तरप्रदेश में द्वेष के रूप में इसका अन्त हुआ। आन्दोलन द्वारा हिंसा का रूख अपनाने के डर को ध्यान में रखते हुए इसके सभी कार्यों पर पानी फिर जायेगा, गाँधी ने व्यापक असहयोग के इस आन्दोलन को वापस ले लिया और उनको जेल भेज दिया गया? अब सवाल खड़ा होता है कि यदि उन्होंने वापस लिया, तो जेल क्यों भेजा गया? गाँधी जी के जीवन और कृतित्व में ऐसे अनेक सवाल खड़े होते हैं। उनके एकता वाले व्यक्तित्व के बिना या किसी साजिश के कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उनके जेल में दो साल रहने के दौरान ही दो दलों में बँटने लगी? यह भी एक बड़ा प्रश्न है। जिसके एक दल का नेतृत्व सदन में पार्टी की भागीदारी के पक्ष वाले चित्तरंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू ने किया तो दूसरे दल का नेतृत्व इसके विपरीत चलने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। इसके अतिरिक्त, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच आन्दोलन की चरम सीमा पर पहुँचकर सहयोग टूट रहा था। गाँधी ने इस खाई को बहुत से साधनों से भरने का प्रयास किया; जिसमें उन्होंने 1924 की बसन्त में सीमित सफलता दिलाने वाले तीन सप्ताह का उपवास करना भी शामिल था?
स्वराज और नमक सत्याग्रह, दलित आन्दोलन और निश्चय दिवस आदि की यदि चर्चा किया जाय तो ऐतिहासिक सत्य एवं तथ्य के साथ अनेक प्रश्न मुँह बाकर खड़े हो जाते हैं।
जहाँ तक 1932 के पुणे समझौता का प्रश्न है, डॉ भीमराव अम्बेडकर के चुनाव प्रचार के माध्यम से, सरकार ने अछूतों को एक नये सम्विधान के अन्तर्गत अलग निर्वाचन मंजूर कर दिया। इसके विरोध में दलित हितों के विरोधी कहे जाने वाले गाँधी ने सितम्बर 1932 में छ: दिन का अनशन किया! जिसने सरकार को, सफलतापूर्वक दलित से राजनीतिक नेता बने पलवंकर बालू द्वारा की गई मध्यस्ता वाली एक समान व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया गया। गाँधी ने इनको हरिजन का नाम दिया, जिन्हें वे भगवान की सन्तान मानते थे। फिर शेष किसकी सन्तान थे? आठ मई 1933 को गाँधी ने हरिजन आन्दोलन में मदद करने के लिये आत्म शुद्धिकरण का 21 दिन तक चलने वाला उपवास किया। यह नया अभियान दलितों को पसन्द नहीं आया; बावजूद इसके वे इनके एक प्रमुख नेता बने रहे। अम्बेडकर ने गाँधी द्वारा हरिजन शब्द का उपयोग करने की निन्दा किया। केरल के गाँधी समर्थक श्री केलप्पन ने महात्मा की आज्ञा से इस प्रथा के विरूद्ध आवाज उठायी और अन्ततः इसके लिये सन 1933 में सविनय अवज्ञा प्रारम्भ की गयी। सविनय अवज्ञा अंग्रेजों के सामने क्यों? जब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का निर्णय चुना और संघीय योजना के अन्तर्गत सत्ता स्वीकार की गयी तो, गाँधी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देने का निर्णय ले लिया। वे पार्टी के इस कदम से असहमत नहीं थे; किन्तु महसूस करते थे कि यदि वे इस्तीफा देते हैं तो, भारतीयों के साथ उसकी लोकप्रियता पार्टी की सदस्यता को मजबूत करने में आसानी प्रदान करेगी? क्या उनकी लोकप्रियता की चिन्ता सवाल नहीं खड़ा करती है? जो अब तक वामपन्थियों, समाजवादियों, व्यापार संघों, छात्रों, धार्मिक नेताओं से लेकर व्यापार संघों और विभिन्न आवाजों के बीच विद्यमान थी। इससे इन सभी को अपनी अपनी बातों के सुन जाने का अवसर प्राप्त होगा? महात्मा गाँधी, नेहरू प्रेजीडेन्सी और कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के साथ ही 1936 में भारत लौट आये। यद्यपि कि उनकी पूर्ण इच्छा थी कि वे आजादी प्राप्त करने पर अपना सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित करें, न कि भारत के भविष्य के बारे में अटकलों पर। यहाँ अनेक सवाल जन्म लेते हैं? उसने कांग्रेस को समाजवाद को अपने उद्देश्य के रूप में अपनाने से नहीं रोका। सन 1938 में पार्टी अध्यक्ष पद के लिये चुने गये सुभाष बाबू के साथ गाँधी जी के आखिर मतभेद क्यों थे? बोस ने गाँधी की आलोचना के बावजूद भी दूसरी बार जीत हासिल किया; किन्तु कांग्रेस को उस समय छोड़ दिया जब सभी भारतीय नेताओं ने गाँधी जी द्वारा लागू किये गये सभी सिद्धातों का परित्याग कर दिया। गाँधी जी के प्रति आदर के बावजूद भी गाँधी ने सुभाष जी को कहीं बख्सा नहीं!
द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आन्दोलन का विषय है,
1939 में जब युद्ध छिड़ गया और नाजी जर्मनी का आक्रमण हुआ; आरम्भ में गाँधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग देने का पक्ष लिया; किन्तु दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने युद्ध में जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिये बिना इसमें एकतरफा शामिल किये जाने का विरोध किया। गाँधी जी के बाद दूसरे नम्बर बैठाये गये जवाहरलाल नेहरू की पार्टी के कुछ सदस्यों तथा कुछ अन्य राजनीतिक भारतीय दलों ने आलोचना किया, जो अंग्रेजों के पक्ष तथा विपक्ष दोनों में ही अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर विश्वास रखते थे। गाँधी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों को मुम्बई में 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया गया। इस बन्दी के दौरान उनको निजी जीवन में दो गहरे आघात लगे। उनके पचास साल पुराने सचिव महादेव देसाई 6 दिन बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मर गये और 18 महीने जेल में रहने के बाद 22 फरवरी 1944 को उनकी पत्नी कस्तूरबा का देहान्त हो गया। इसके छ: सप्ताह बाद उनको स्वयं भी मलेरिया का शिकार होना पड़ा। उनके खराब स्वास्थ्य और जरूरी उपचार के कारण 6 मई 1944 को युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही उन्हें रिहा कर दिया गया! सन 1946 में कांग्रेस को ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को ठुकराने का परामर्श दिया; क्योंकि उसे मुस्लिम बाहुलता वाले प्रान्तों के लिये प्रस्तावित समूहीकरण के प्रति उनका गहन सन्देह होना था; इसलिये गाँधी ने प्रकरण को एक विभाजन के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा। यद्यपि कि कुछ समय से गाँधी जी के साथ कांग्रेस द्वारा मतभेदों वाली घटना में से यह भी एक घटना बनी। चूँकि नेहरू और पटेल दोनों लोग जानते थे कि यदि कांग्रेस इस योजना का अनुमोदन नहीं करती है, तो सरकार का नियन्त्रण मुस्लिम लीग के पास चला जायेगा। सन 1948 में हजारों लोगों को हिंसा के दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। गाँधी जी भी किसी ऐसी योजना के खिलाफ थे, जो भारत को दो अलग अलग देशों में विभाजित कर दे। भारत में रहने वाले बहुत से हिन्दुओं और सिक्खों एवं मुस्लिमों का भारी बहुमत देश के बँटवारे के पक्ष में था। इसके अतिरिक्त मुहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग के नेता ने, पश्चिम पंजाब, सिन्ध, उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रान्त और पूर्वी बंगाल में व्यापक सहयोग का परिचय दिया। व्यापक स्तर पर फैलने वाले हिन्दू मुस्लिम लड़ाई को रोकने के लिये ही कांग्रेस नेताओं ने बँटवारे की इस योजना को अपनी मंजूरी दे दिया! कांगेस नेता जानते थे कि गाँधी जी बँटवारे का विरोध करेंगे और उसकी सहमति के बिना कांग्रेस के लिये आगे बढ़ना सम्भव नहीं था। चूँकि पार्टी में गाँधी जी का सहयोग और सम्पूर्ण भारत में उनकी प्रायोजित स्थिति मजबूत थी? उनके करीबी सहयोगियों ने बँटवारे को एक सर्वोत्तम उपाय के रूप में स्वीकार किया और सरदार पटेल ने गाँधी जी को समझाने का प्रयास किया कि नागरिक अशान्ति वाले युद्ध को रोकने का यही एक उपाय है। मजबूर गाँधी ने अपनी अनुमति दे दिया?
ऐसे अनेक विषय; गाँधी जी के कार्य व्यवहार, उनकी राजनीति; उनकी पुस्तकें पत्रिकाएँ और लेख तथा उनके सिद्धान्तों की जब भी आप राष्ट्रीय एवं व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करेंगे; गाँधी जी को लेकर अनेक सवाल खड़े होंगे? ये सभी सवालों से देश की आजादी के पूर्व भी और बाद में देश के लिये लागू की गयी गुटनिरपेक्षता तथा मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति के साथ- साथ देश की बुनियादी अवस्थापनात्मक व्यवस्था और देश के नौनिहालों तथा देश की जनता पर व्यापक नकारात्मक परिणाम के संकेत आपको मिलेंगे। इससे देश की राजनीति को व्यापक रूप में नकारात्मक रूप में प्रभावित किया है तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे उत्तरदायी कार्य भी प्राथमिकता से बाहर हो गये दिखायी पड़ते हैं। उदाहरणार्थ- जुलु विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देना? दोनों विश्वयुद्धों में अंग्रेजों का साथ देना? खिलाफत आन्दोलन जैसे साम्प्रदायिक आन्दोलन को राष्ट्रीय आन्दोलन बनाना? अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्तिकारियों के हिंसात्मक कार्यों की निन्दा करना? गाँधी- इरविन समझौता? जिससे भारतीय क्रन्तिकारी आन्दोलन को बहुत धक्का लगा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर सुभाष चन्द्र बोस के चुनाव पर नाखुश होना? चौरीचौरा काण्ड के बाद असहयोग आन्दोलन को सहसा रोक देना? भारत की स्वतन्त्रता के बाद नेहरू को प्रधानमन्त्री का दावेदार बनाना? स्वतन्त्रता के बाद पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये देने की जिद पर अनशन करना? भीमराव आम्बेडकर, महात्मा गाँधी को जाति प्रथा का समर्थक समझते थे! आदि। कहा जाता है कि, किसी भी सार्वजनिक जीवन वाले व्यक्तित्व का कोई निजी जीवन नहीं होता है; लेकिन गाँधी जी पता नहीं क्यों इसको अस्वीकार करके अपने निजी और सार्वजनिक जीवन को चलाते थे और उनसे जुड़े बहुत से सवाल इसी कारण खड़े होते हैं।
जब भी आप गाँधी जी की चर्चा करते हैं तो 2 अक्टूबर के कारण लालबहादुर शास्त्री (1904 मुगलसराय (वाराणसी), मृत्यु 1966 ताशकन्द, सोवियत संघ रूस) जी की स्वाभाविक चर्चा होती है। लेकिन केवल 2 अक्टूबर ही चर्चा का कारण नहीं बनता है। वे भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री थे और लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे। इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा। शास्त्री जी ने काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त किया था। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविन्द बल्लभ पन्त के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया था। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) नियुक्ति किया था। पुलिस मन्त्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का सर्वप्रथम प्रयोग प्रारम्भ कराया था। सन 1951 में, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये प्रचार में बढ़चढ़ कर योगदान किया। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया था। उनके शासनकाल में 1965 का भारत- पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व नेहरू के काल में चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्री जी ने अप्रत्याशित रूप से हुये इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त खानी पड़ी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं किया था। ताशकन्द में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री अयूब खान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया। लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्मदिवस पर 2 अक्टूबर को शास्त्री जयन्ती व उनके देहावसान वाले दिन 11 जनवरी को लालबहादुर शास्त्री स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है।
लालबहादुर शास्त्री का जन्म मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में मुंशी शारदा प्रसाद शास्त्री के यहाँ हुआ था। उनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे, अत: सब उन्हें मुंशी जी ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में लिपिक (क्लर्क) की नौकरी कर लिया था। लालबहादुर की माँ का नाम रामदुलारी था। जब नन्हें अठारह महीने का हुआ दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया। उनकी माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्जापुर चली गयीं। कुछ समय बाद उनके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक की परवरिश करने में उनके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी माँ का बहुत सहयोग किया। ननिहाल में रहते हुए उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण किया। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हटा दिया और अपने नाम के आगे \’शास्त्री\’ लगा लिया और फिर शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। सन 1928 में उनका विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता से हुआ। ललिता शास्त्री से उनकी दो पुत्रियाँ- कुसुम व सुमन और चार पुत्र- हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक हुए। उनके चार पुत्रों में से दो-अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री अभी हैं। अनिल शास्त्री कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता हैं; जबकि सुनील शास्त्री भारतीय जनता पार्टी में कार्यरत हैं। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान \’मरो नहीं, मारो!\’ का नारा लालबहादुर शास्त्री जी ने दिया। संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात वे भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुए, यहीं से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत किया। शास्त्री जी ने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेल में भी रहना पड़ा।
शास्त्री जी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टण्डन और पण्डित गोविन्द बल्लभ पन्त शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डन जी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया। इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरू जी के साथ उनकी निकटता बढ़ी। इसके बाद तो शास्त्री जी का कद निरन्तर बढ़ता गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियाँ चढ़ते हुए वे नेहरू जी के मन्त्रिमण्डल में गृहमन्त्री के प्रमुख पद तक जा पहुँचे। उनकी साफ सुथरी छवि के कारण ही उन्हें 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धान्तिक न होकर पूर्णत: व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थे। निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की लगातार फिराक में थे। सन 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर सायंकाल हवाई हमला कर दिया। परम्परानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला लिया, जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मन्त्रिमण्डल के सदस्य शामिल थे। संयोग से प्रधानमन्त्री उस बैठक में कुछ देर से पहुँचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। तीनों प्रमुखों ने उनसे सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा- सर! क्या हुक्म है? शास्त्रीजी ने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया- \’आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइये कि हमें क्या करना है?\’ शास्त्री जी ने इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और जय जवान- जय किसान का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया।
भारत पाक युद्ध के दौरान 06 सितम्बर को भारतीय थलसेना ने दूनी शक्ति से प्रत्याक्रमण करके बरकी गाँव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित किया। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुँच गयी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की। आखिरकार रूस और अमरिका की मिलीभगत से शास्त्रीजी पर जोर डाला गया। उन्हें एक सोची समझी साजिश के तहत रूस बुलवाया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हमेशा उनके साथ जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला फुसलाकर इस बात के लिये मनाया गया कि वे शास्त्रीजी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें और वह भी मान गयीं। अपनी इस भूल का श्रीमती ललिता शास्त्री को मृत्युपर्यन्त पछतावा रहा। जब समझौता वार्ता चली तो शास्त्री जी की एक ही जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्ते मंजूर है; परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज स्वीकार नहीं है। काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्री जी पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिये गये। उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किये थे कि वे हस्ताक्षर जरूर कर रहे हैं पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधानमन्त्री ही लौटायेगा, वे नहीं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि क्या वाकई शास्त्री जी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? कई लोग उनकी मौत की वजह जहर को ही मानते हैं। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ शान्तिवन के आगे यमुना किनारे की गयी और उस स्थल को विजय घाट नाम दिया गया। जब तक कांग्रेस संसदीय दल ने इन्दिरा गान्धी को शास्त्री का विधिवत उत्तराधिकारी नहीं चुन लिया, गुलजारी लाल नन्दा कार्यवाहक प्रधानमन्त्री रहे। इस दौरान इन्दिरा गाँधी कहाँ थीं और क्या कर रही थीं? उनकी पारिवारिक एवं महात्मा गाँधी पोषित राजनीतिक गणित का कार्य- व्यवहार था? इस सवाल का जबाब आज तक अनुत्तरित है।
शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मानते है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई। इसकी पहली जाँच राज नारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी। मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई दस्तावेजी सबूत उपलब्ध नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ था। सन 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्री जी के प्राइवेट डॉक्टर आर एन चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो किया था; परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकार्ड नहीं है। यदि रिकार्ड उपलब्ध नहीं है तो कैसे कहा गया कि डॉक्टरों के द्वारा जाँच की गयी थी? बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी। शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। जब 2009 में साउथ एशिया पर सीआईए की नजर नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि- \’शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।\’ सबसे पहले 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक \’ललिता के आँसू\’ में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय सन उन्नीस सौ अठहत्तर में ललिता जी जीवित थीं। यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गये थे, इस घटनाचक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
उपरोक्त बातों के आलोक में यदि दो अक्टूबर एवं देश की आजादी के बाद के देश के सामने की शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, विकास के सभी पक्षों पर गाँधी जी का; गाँधी जी और नेहरू परिवार के साहचर्य का; गाँधी और नेहरू परिवार के आपस में समाकर केवल गाँधी परिवार हो जाने का; परिवारवाद का; देश को जेबी और पारिवारिक जागीर बना देने के मध्य बड़ा सम्बन्ध दिखायी पड़ता है। आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी यदि देश पुरानी या नवीनतम कोरोना जैसी महामारी से कुशलतापूर्वक न निपट पाने; चिकित्सा, शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी, भरपेट सबको भोजन, सबको समुचित चिकित्सा, समुचित शिक्षा, योग्य एवं कुशल लोगों का पलायन हो रहा है तो इसके पीछे क्या- क्या कारण हैं? सवाल उठेगा। जब भी इनकी और इनसे जुड़े कारणों की तह में आप जायेंगे तो 02 अक्टूबर को जन्में गाँधी जी के व्यापक फलक के नकारात्मक अनुदान उत्तरदायी दिखायी पड़ेंगे; जहाँ शास्त्री जी का अपेक्षाकृत छोटा फलक चाहकर भी अपने डेढ़ वर्ष के कार्यकाल में गुटनिरपेक्षता और मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति तथा देश के बुनियादी ढाँचे में उल्लेखनीय योगदान नहीं कर पाया।
(सृष्टि सम्वाद भारती, लखनऊ के सितम्बर 2021 के अंक में प्रकाशित।)
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
