जहाँ तक भारत के गणतन्त्र दिवस का प्रश्न है, इसको भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के सन्दर्भ में समझने की आवश्यकता है। क्योंकि 26 जनवरी भारतवर्ष का गणतन्त्र दिवस होता है और 12 जनवरी स्वामी विवेकानन्द जी की जयन्ती पड़ती है। इतना ही नहीं भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के उन्नायकों में से एक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती भी इसी जनवरी माह के 23 तारीख को पड़ती है। इसी दिन भारत का सम्विधान देश में लागू हुआ; इसलिये और भी संजीदगी से इसकी गहराई और पृष्ठभूमि जानना चाहिये। जिस कारण यह गणतन्त्र दिवस हमारे सामने उपस्थित हुआ; उस गणतन्त्र दिवस की पृष्ठभूमि अर्थात भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में लोगों के किये गये योगदान और उसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भूमिका का मूल्याँकन और पुनर्मूल्यांकन करना भी गणतन्त्र दिवस की दृष्टि से बहुत आवश्यक है। क्योंकि हम अपने देश का 75 वाँ स्वतन्त्रता दिवस मना रहे हैं। भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में जिन लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका थी और उनमें से जो लोग भारत के सम्विधान निर्माण में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल थे तथा जिन लोगों ने 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस मनाने और सम्विधान को लागू करने की योजना बनाया; उन सबका विहंगम पुनरावलोकन करने का भी यह उचित समय है। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिये कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं; कुछ लोग अपने कर्म के द्वारा महान बनते हैं और कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है। इतिहास तीसरे प्रकार के लोगों से भरा है; इसलिये प्रश्न पूछने और मूल्यांकन की आवश्यकता है। हम जब अपनी पृष्ठभूमि का मूल्याँकन और किये गये कृतित्व का सही आँकलन करते हैं, तो आने वाले समय में हमसे गलतियाँ करने की सम्भावना कम हो जाती है। क्योंकि तब हम अपने पृष्ठभूमि की सकारात्मक बातों से प्रेरणा ग्रहण करके अग्रिम कार्य करने की योजना बनाते हैं और नकारात्मक बातों को त्यागकर अपनी सकारात्मक ऊर्जा का और बेहतर उपयोग करते हैं। किन्तु यहाँ कुछ की दृष्टि में यह खतरा जरूर रहता है, कि जब हम पुनरावलोकन करते हैं तो उसमें जिन लोगों की भूमिका नकारात्मक रही है या जिन्होंने योजना बनाकर अपने को महत्वपूर्ण बना लिया अथवा जिन्होंने अपने अनुसार हमारी पृष्ठभूमि की इबारत लिख या लिखवा लिया; उनका यदि वास्तविक स्वरूप खुल गया तो वह उदघाटन किसी भी देश, राष्ट्र, राज्य या राष्ट्र-राज्य और उसके नागरिकों अर्थात लोक और नेतृत्वकर्ता के हित में होता है। इसलिये पृष्ठभूमि के सच का जागरण अत्यन्त आवश्यक होता है।
यह दिवस भारत का गणतन्त्र दिवस है और इस समय समय हम अपने 75वें गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं। हम देश और समाज के सामने यदि स्वतन्त्रता आन्दोलन अर्थात गणतन्त्र दिवस के पृष्ठभूमि की वास्तविक तस्वीर नहीं रख पाये तो, भारत और भारत के नागरिकों का भविष्य कठिन होगा और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी हमें अनवरत दोषी मानती रहेंगी। छब्बीस जनवरी वह दिन है, जिस दिन ईस्वी सन 1950 को भारत सरकार अधिनियम 1935 को हटाकर भारत का सम्विधान लागू किया गया था। इसी दिन भारत का गणतन्त्र दिवस एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। भारत के स्वतन्त्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिये सम्विधान को 26 नवम्बर 1949 को सम्विधान सभा द्वारा अंगीकार किया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतान्त्रिक सरकार की प्रणाली के स्थापना के उद्देश्य से लागू किया गया। छब्बीस जनवरी को लागू करने के लिये इसलिये चुना गया था; क्योंकि 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज प्राप्त करने हेतु घोषित किया था। सन 1929 के दिसम्बर में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ था। जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गयी थी कि यदि अँगरेज सरकार 26 जनवरी 1930 तक भारत को स्वायत्त उपनिवेश अर्थात डोमीनियन का पद प्रदान नहीं करेगी अर्थात जिसके तहत भारत ब्रिटिश साम्राज्य में ही एक स्वशासित इकाई नहीं बन जाता है, तो हम उस दिन भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करने के निश्चय की घोषणा करके अपना अग्रिम आन्दोलन प्रारम्भ करेंगे। उस दिन से प्रारम्भ करके 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी को ही स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा; लेकिन इसके पश्चात स्वतन्त्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन 15 अगस्त को भारत के स्वतन्त्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। तात्पर्य यह कि 1930 के पहले कोई स्वतन्त्रता आन्दोलन था ही नहीं! इसका तात्पर्य यह कि 1930 तक भारत को स्वतन्त्र कराने हेतु भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में नहीं चल रहा था; बल्कि ब्रिटिश राज्य के ही अधीन एक स्वायत्त उपनिवेश बनाने हेतु आन्दोलन चल रहा था। फिर एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि भारत के इतिहास में सम्बन्धित कालखण्ड के इतिहास को स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास क्यों कहा जाता है? साथ ही उस समय जो-जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता भारत को स्वायत्त उपनिवेश बनाने हेतु लड़ रहे थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी कैसे हो गये? तीसरा, इससे भी कठिन प्रश्न है कि, अब भी हम भारतवासी यदि उसी स्वतन्त्रता दिवस को गणतन्त्र दिवस के रूप में अब तक मना रहे हैं तो, क्या अब भी हम गुलाम औपनिवेशिक मानसिकता के साथ नहीं जी रहे हैं?
भारत के स्वतन्त्र हो जाने के बाद सम्विधान सभा की घोषणा हुई और इसने अपना कार्य 9 दिसम्बर 1947 से प्रारम्भ किया। डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ भीमराव अम्बेडकर, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। इसके निर्माण में कुल बाईस समितियाँ थीं; जिसमें प्रारूप समिति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समिति थी, जिसका कार्य ‘सम्विधान लिखना’ था। सम्पूर्ण सम्विधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 26 नवम्बर 1949 को भारत का सम्विधान सौंप दिया। इसलिये 26 नवम्बर को भारत में सम्विधान दिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाता है। किन्तु उपरोक्त के आलोक में भारत के स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस और सम्विधान दिवस और इसके पुरोधा तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े तत्कालीन लोग क्या स्वयं अपने ऊपर प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं खड़ा करते हैं? यह सब आज मूल्याँकन तथा प्रश्न के प्रमुख बिन्दु होने चाहिये; क्योंकि यह सब औचित्य के ज्वलन्त प्रश्न हैं! अनेक परिवर्तनों, सुधारों और बदलावों के बाद सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को सम्विधान की दो हस्तलिखित प्रतियों पर हस्ताक्षर किये। फिर सवाल यह है कि इतनी सब कवायदों के बाद भी हमने मूल ब्रिटिश ढाँचें का न केवल बहुत कुछ स्वीकार कर लिया; बल्कि एक प्रकार से अँग्रेजों द्वारा प्रायोजित स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस और सम्विधान दिवस मनाने को असहजता के साथ विवश हो गये। लेकिन सत्य यह है कि भारत के जिन हजारों भाईयो और बहनों ने इस स्वतन्त्रता, गणतन्त्रता आदि को पाने में नींव के पत्थर हो गये और जिसमें देश की हजारों माताओं की गोद सूनी हो गयी; हजारों बहनों बेटियों के माँग का सिन्दूर उजड़ गया और जो ब्रिटिश राज के अधीन केवल स्वायत्त उपनिवेश होने के लिये नहीं लड़ रहे थे; उनका सच्चा और वास्तविक इतिहास कब और किसके द्वारा लिखा जायेगा? जिस प्रकार किसी देश का सही अर्थों में सम्विधान होता है; ठीक उसी प्रकार अलौकिक सत्ता का भी सम्विधान होता है और वे नींव के पत्थर उसी अलौकिक सत्ता की व्यवस्था के अनुसार देश को स्वतन्त्रता एवं गणतन्त्रता दिलाने के लिये लड़ रहे थे; जिससे समाज में भाईचारा कायम हो, सभी सम्मान से जी सकें, समाज अपराध से मुक्त हो और सशक्त नागरिक एवं सम्पन्न देश का निर्माण तथा पुनर्स्थापना हो।
इस अवसर के महत्व का प्रतिपादन करने के लिये प्रत्येक वर्ष एक भव्य परेड इण्डिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक अर्थात राजपथ पर राजधानी, नयी दिल्ली में आयोजित किया जाता है। इस परेड में भारतीय सेना के विभिन्न रेजिमेन्ट, वायुसेना, नौसेना आदि सभी भाग लेते हैं। साथ ही इसमें भाग लेने के लिये देश के सभी हिस्सों से राष्ट्रीय कैडेट कोर व विद्यालयों से बच्चे भी आते हैं। इसमें शहीद सैनिकों की स्मृति में दो मिनट मौन रखा जाता है। परेड में विभिन्न राज्यों की प्रदर्शनी भी होती हैं। लेकिन यहाँ राजपथ और इण्डिया गेट नामक सम्बोधन पुनः उपरोक्त प्रकार का एक ज्वलन्त एवं औचित्य से जुड़ा हुआ प्रश्न खड़ा करने के लिये क्या भारतवासियों को विवश नहीं करता है? नेता जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष चुने जाने के बाद गाँधी जी से कहा था- ‘मैंने सिविल सर्विस छोड़कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इसलिये ज्वाइन नहीं किया था कि आये दिन किसी जलसे में देशवासियों को आजादी का स्वप्न दिखाता रहूँगा और बताता रहूँ कि मैं उस स्वप्न को साकार करने के लिये प्रयत्न कर रहा हूँ।’ जबाब में गाँधी जी ने कहा था- ‘सुभाष! गरमागरमी से लोगों का खून बहाने से अंग्रेज सरकार और दमनकारी हो जायेगी तथा हमारे (हम पर नहीं?) लोगों पर अत्याचार और बढ़ जायेंगे।’ .… गाँधी जी फिर क्रोध में बोले- ‘अंग्रेजों की गरजती बन्दूकों के सामने तुम कितने हिन्दुस्तानी सीने लाओगे? हिंसा के प्रत्युत्तर में हिंसा ही प्राप्त होगी! (बिना हिंसा के भी तो प्रत्युत्तर में हिंसा ही प्राप्त हो रही थी!) …. जवाहर बीच में कुछ बोलने ही जा रहे थे मगर उन्हें चुप कराते हुये आगे नेता जी ने दृढ़ स्वर में कहा- ‘हमें अपना गेहूँ और अपना आटा चाहिये, हम अपनी रोटी स्वयं बनाकर के खायेंगे। अहिंसा के भिक्षा पात्र लिये हाथों में स्वतन्त्रता के कतरे (स्वायत्त उपनिवेश) मिलते हैं पूर्ण स्वराज्य नहीं! …. सुभाष ने गाँधी का यह रूप देखा और निर्णय लिया तथा त्यागपत्र देते हुए कहा- ‘नहीं यह आन्दोलन और यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आपको ही समर्पित करता हूँ। अब यह आने वाला समय ही बतायेगा कि भारतवर्ष को गाँधी चाहिये या सुभाष।’ क्या यह वार्तालाप औचित्य का सवाल नहीं खड़ा करता है? क्या यह समीचीन प्रश्न नहीं है कि देश में रहने वाला देश का नागरिक ही भारत देश की खोज कर रहा है और डिस्कवरी ऑफ इण्डिया लिख रहा है? इसका क्या यह आशय नहीं है कि, वे भारत को नहीँ जानते? भारत के स्वयंभू महत्वपूर्ण लोकप्रिय स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी होकर भी भारत को नहीं जानते? दूसरा, वे भारत के कितने थे और औपनिवेशिक मानसिकता के कितने थे? प्रथम दृष्टया प्रतीत होता है कि कहीं बाहर बैठकर बाहर की दृष्टि से भारत को देखा जा रहा है। इससे क्या डिस्कवरी करने वाले, उसके समूचे परिवार और परिवेश पर तथा उनके द्वारा गणतन्त्रता एवं स्वतन्त्रता में किये गये योगदान को लेकर प्रश्न नहीं खड़े होते हैं? ये सभी औचित्य के प्रश्न हैं! ये औचित्य के प्रश्न स्थूल रूप में स्वतन्त्रता एवं गणतन्त्रता को लेकर प्रत्यक्षतः भले न हों; लेकिन इसकी पृष्ठभूमि और पृष्ठभूमि में शामिल लोगों तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उसमें निभायी गयी भूमिका और उनको इतिहास में दिये जाने वाले महत्व के औचित्य पर तो प्रश्न खड़ा होता ही है।
शनायु टाइम्स, नई दिल्ली के जनवरी 2023 के अंक में प्रकाशित लेख।
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
प्रोफेसर एवं स्तम्भकार
