सृष्टि के प्रत्येक तत्व में लौकिक, अलौकिक और स्त्री या मातृ या सृजन शक्ति अर्थात तीन शक्तियों का स्वाभाविक रूप से भाव नीहित रहता है। इनमें सर्वाधिक निर्जीव तत्व यदि पत्थर का उदाहरण लें तो, एक पत्थर की लौकिक शक्ति यह है कि वह जहाँ भी प्रयोग होगा, अपनी विशिष्ट सामर्थ्य का परिचय देगा; उसकी अलौकिक शक्ति यह है कि वह अथाह जलराशि में रहकर लगातार उसके थपेड़े खाते रहने के बाद भी जलीय प्रकृति को अपने अन्दर प्रविष्ट नहीं होने देता; उसकी सृजन शक्ति यह है कि वह विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा ही प्रयुक्त होगा और जब प्रयुक्त होगा तो एक श्रेष्ठ प्रकार का सृजन करेगा। जैसा कि सबको विदित है कि उत्तर कोलकाता के बैरकपुर में विवेकानन्द सेतु के कोलकाता छोर के निकट हुगली नदी के किनारे एक ऐतिहासिक हिन्दू मन्दिर स्थित है। इस मन्दिर की मुख्य देवी भवतारिणी है, जो हिन्दू देवी काली माता की ही रूप हैं। यह कोलकाता के प्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है और अनेक मायनों में कालीघाट मन्दिर के बाद, सबसे प्रसिद्ध काली मन्दिर है। इस मन्दिर को भी 1854 में जान बाजार की रानी रासमणि ने बनवाया था। यह भी सबको विदित है कि दक्षिणेश्वर काली मन्दिर, प्रख्यात दार्शनिक धर्मगुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी की कर्मभूमि रही है, जो कि बंगाली अथवा हिन्दू नवजागरण के प्रमुख सूत्रधारों में से एक, दार्शनिक, धर्मगुरु तथा रामकृष्ण मिशन के संस्थापक स्वामी विवेकानन्द के गुरु थे। सन 1857-68 के बीच स्वामी रामकृष्ण इस मन्दिर के प्रधान पुरोहित थे; जिसको उन्होंने इस मन्दिर को ही अपनी साधना स्थली बना लिया। अनेक अर्थों में इस मन्दिर की प्रतिष्ठा और ख्याति का प्रमुख कारण है, स्वामी रामकृष्ण परमहंस से इसका जुड़ाव। इस सिद्ध मन्दिर के मुख्य प्रांगण के उत्तर पश्चिमी कोने में रामकृष्ण जी का कक्ष आज भी उनकी ऐतिहासिक स्मृति के रूप में संरक्षित करके रखा गया है; जिसमें श्रद्धालु व अन्य आगन्तुक प्रवेश कर देख सकते हैं। इस अद्वितीय दक्षिणेश्वर मन्दिर का निर्माण सन 1847 में प्रारम्भ हुआ। जैसा कि लोक विश्रुत कथा है कि जान बाजार की रानी रासमणि ने स्वप्न देखा था, जिसके अनुसार माँ काली ने उन्हें निर्देश दिया कि मन्दिर का निर्माण किया जाय। इस भव्य मन्दिर में माँ की मूर्ति श्रद्धापूर्वक स्थापित की गयी और सन 1855 में मन्दिर का निर्माण पूरा हुआ। यह मन्दिर लगभग 27 एकड़ क्षेत्र में विस्तृत है।
दक्षिणेश्वर मन्दिर देवी माँ काली के लिये ही बनाया गया है। यह माँ काली का मुख्य मन्दिर है। भीतरी भाग में चाँदी से बनाये गये कमल के फूल हैं, जिसकी हजार पंखुड़ियाँ हैं, परन्तु माँ काली शस्त्रों सहित भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई हैं। काली माँ का मन्दिर नवरत्न की तरह निर्मित है तथा यह 46 फुट चौड़ा तथा 100 फुट ऊँचा है। इस मन्दिर का विशेष आकर्षण यह है कि इसके पास पवित्र गंगा नदी, जो कि बंगाल में हुगली नदी के नाम से जानी जाती है, बहती है। इस मन्दिर में कुल बारह गुम्बद हैं और यह हरे-भरे मैदान पर स्थित है। इस विशाल मन्दिर के चारों ओर भगवान शिव के बारह मन्दिर स्थापित किये गये हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस जी ने माँ काली के मन्दिर में देवी की आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त किया था तथा उन्होंने इसी स्थल पर बैठ कर धर्म-एकता के लिये प्रवचन दिये थे। वे इस मन्दिर के मुख्य पुजारी थे तथा मन्दिर में ही रहते थे। उनके कक्ष के द्वार हमेशा दर्शनार्थियों के लिये खुले रहते थे। माँ काली का मन्दिर विशाल इमारत के रूप में चबूतरे पर स्थित है। इसमें आप सीढ़ियों के माध्यम से प्रवेश कर सकते हैं। दक्षिण की ओर स्थित यह मन्दिर तीन तलों या मंजिलों वाला है। ऊपर के दो तलों पर नौ गुम्बद समान रूप से फैले हुये हैं। गुम्बदों के छत पर सुन्दर आकृतियाँ बनायी गयी हैं। मन्दिर के भीतरी स्थल पर दक्षिण माँ काली, भगवान शिव पर खड़ी हुई हैं। देवी की प्रतिमा जिस स्थान पर रखी गयी है; उसी पवित्र स्थल के आसपास भक्त बैठे रहते हैं तथा साधना एवं आराधना करते हैं। काली मन्दिर के सामने ही नट मन्दिर स्थित है। मुख्य मन्दिर के पास अन्य तीर्थ स्थलों के दर्शन के लिये भक्तजन की भीड़ लगी रहती है। यह एक विश्व प्रसिद्ध मन्दिर है। भारत के सांस्कृतिक धार्मिक तीर्थ स्थलों में माँ काली का मन्दिर सिद्ध एवं प्राचीन माना जाता है। मन्दिर के उत्तर दिशा में राधाकृष्ण का दालान स्थित है। चाँदनी स्नान घाट के चारों तरफ शिव के मन्दिर हैं। छ: मन्दिर घाट के दोनों ओर स्थित हैं। मन्दिर की तीनों दिशाओं उत्तर, पूर्व, पश्चिम में क्रमशः अतिथि कक्ष तथा कार्यालय स्थित हैं। पर्यटक साल में हर समय यहाँ पर भ्रमण करने एवं सुबह शाम दर्शन तथा साधना के लिये आ सकते हैं। मन्दिर के खुलने का समय प्रातः 5.30 से 10.30 तक तथा सायं 4.30 से 7.30 तक रहता है।
जैसे ऊपर निर्जीव तत्व पत्थर का उदाहरण लिया गया है; ठीक वैसे ही सृष्टि के विराट चेतन रूप की यहाँ चर्चा की जानी है। जैसा कि विदित है कि जैसे- सृष्टि सजीव एवं निर्जीव के रूप में विराजमान है; वैसे ही सृष्टि की चेतना के तीन रूप हैं- संचेतन (अलौकिक चेतना), अवचेतन (लौकिक चेतना) तथा अचेतन (निर्जीव चेतना)। जो कुछ भी सृष्टि में अस्तित्व में है, वह बिना चेतना के नहीं हो सकती; किसी न किसी प्रकार चेतना का रूप या भाव उसमें अवश्य विद्यमान रहता है। रामकृष्ण परमहंस अद्धभुत सन्त, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक तथा संचेतन प्रकृति अर्थात विराट चेतना का प्रकट रूप थे। इनको इस बात का ज्ञान था कि भक्त, साधु, सन्त, महात्मा, मुनि, ऋषि क्या होते हैं और इनकी परम्परा क्या है? इन्होंने सभी मत, पन्थ की एकता पर जोर दिया और माना कि धर्म केवल एक अर्थात मानव धर्म है; जिसमें मानव एवं जीव मात्र के कल्याण का भाव निहित होना अनिवार्य शर्त है। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर अर्थात अलौकिक सत्ता के दर्शन हो सकते हैं, उनका साक्षात्कार किया जा सकता है। अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिये उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का मार्ग बताया एवं उसका अनुशरण किया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे, इसलिये वे साधना के फलस्वरूप इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी मत पन्थ सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं; सभी धर्म का मार्ग प्रशस्त करते हैं। समस्या केवल यह है कि अनेक मत पन्थों में विकृति उनके अनुयायियों, उसके मठाधीशों एवं ठेकेदारों के कारण आती है।
रामकृष्ण परमहंस का जन्म रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में गदाधर चट्टोपाध्याय जी के घर 18 फरवरी 1836 में कामारपुकुर, बंगाल में तथा गोलोकगमन मृत्यु 16 अगस्त 1886 में 50 वर्ष की आयु में कोलकाता में हुआ। सम्मान के रूप में परमहंस सम्बोधन उन्हें सम्मान के रूप में प्राप्त हुआ। कामारपुकुर में स्थित इस छोटे से घर में श्रीरामकृष्ण रहते थे। वे मानवीय मूल्यों के पोषक थे और उनका बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी का नाम खुदीराम और माताजी का नाम चन्द्रा देवी था। उनके शिष्यों और भक्तों के अनुसार रामकृष्ण के माता पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था। गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था कि भगवान गदाधर अर्थात विष्णु भगवान के अवतार ने उन्हें कहा है कि, वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। उनकी माता चन्द्रमणि देवी को भी ऐसा ही एक अनुभव हुआ था; उन्होंने शिव मन्दिर में अपने गर्भ में रोशनी प्रवेश करते हुये देखा था। इनकी बालसुलभ सरलता और मन्त्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। निरन्तर आर्थिक कठिनाइयाँ आती गयीं। बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कोलकाता में एक पाठशाला के संचालक थे; वे गदाधर को अपने साथ वहीं ले गये। रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यन्त निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे और केवल अपने कार्यों में लगे रहते थे। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त का ज्ञान लाभ प्राप्त किया और जीवन मुक्त अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के बाद उनका नया नाम श्रीरामकृष्ण परमहंस हुआ। मत- पन्थों में भेद के रहस्य को गहरायी से समझा तथा धर्म के मूल रहस्य को मानव धर्म या सनातन धर्म के रूप में स्वीकार किया।
अनेक एवं अनवरत प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। सन 1855 में रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को दक्षिणेश्वर काली मन्दिर, जो रानी रासमणि द्वारा बनवाया गया था, के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। रामकृष्ण और उनके भांजे हृदय रामकुमार की सहायता करते थे। रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व दिया गया और 1856 में रामकुमार के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण को काली मन्दिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया। इस प्रकार वे दक्षिणेश्वर काली माता के दरबार में आ गये। रामकुमार की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण अपेक्षाकृत अधिक ध्यान मग्न रहने लगे। वे काली माता के मूर्ति को अपनी माता और ब्रह्माण्ड की माता के रूप में देखने लगे। कहा जाता है कि श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रह्माण्ड की माता के रूप में हुआ था। रामकृष्ण इसके वर्णन करते हुये कहते हैं- \’घर, द्वार, मन्दिर और सब कुछ अदृश्य हो गया; जैसे कहीं कुछ भी नहीं था! और मैंने एक अनन्त किरण रहित आलोक का सागर देखा, जो कि विराट चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर- दूर तक जहाँ भी देखा, बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थीं; जो एक के बाद एक मेरी तरफ आ रही थीं। रामकृष्ण अपनी साधना के एकाग्र भाव में इतने निमग्न रहने लगे कि अफवाह फैल गयी कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया है। परिणामस्वरूप रामकृष्ण की माता और उनके बड़े भाई रामेश्वर जी ने रामकृष्ण का विवाह करवाने का निर्णय लिया। उनका यह मानना था कि विवाह होने पर गदाधर का मानसिक सन्तुलन ठीक हो जायेगा और विवाह के बाद आये उत्तरदायित्वों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जायेगा। रामकृष्ण ने खुद उन्हें यह कहा कि वे उनके लिये कन्या कामारपुकुर से तीन मील दूर उत्तर- पूर्व की दिशा में जयरामबाटी में रामचन्द्र मुखर्जी (मुखोपाध्याय) के घर पा सकते हैं। फलस्वरूप 1859 में पाँच वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय और तेईस वर्ष के रामकृष्ण का विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी में रहती थीं और 18 वर्ष की आयु के होने पर वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगीं। रामकृष्ण ने तब तक पूर्ण सन्यासी का जीवन व्यतीत किया। वैराग्य और साधना से फिर भी उनका मन ओझल नहीं हुआ। कालान्तर में बड़े भाई भी चल बसे; जिससे वे व्यथित हुए। संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य का भाव और गहन रूप में उदित हुआ। अन्दर से मन ना करते हुये भी श्रीरामकृष्ण मन्दिर की पूजा एवं अर्चना करने लगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यानमग्न रहने लगे तथा ईश्वर दर्शन के लिये वे व्याकुल हो गये। इसके बाद भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें तन्त्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया।
जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, रामकृष्ण परमहंस की लौकिक एवं अलौकिक चेतना तथा उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से प्रसारित होने लगे, वे चेतना के उपरोक्त तीनों रूपों के अभ्यासी थे। शीघ्र ही माता काली का दक्षिणेश्वर मन्दिर का प्राँगढ़ भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रय एवं मार्गदर्शक स्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध पण्डित वैष्णव और तान्त्रिक साधक उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करने हेतु निरन्तर आने लगे। वे शीघ्र ही अपने समकालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ सम्पर्क में आये, जो बंगाल एवं देश में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों एवं शिष्यों का एक दूसरा वर्ग था, उन्हीं में स्वामी विवेकानन्द उनके परम शिष्य थे। रामकृष्ण से जुड़े विशेष अवसरों के अलावे उनके अन्तिम संस्कार के समय उनके शिष्यों की बहुत बड़ी संख्या उपस्थित थी। बीमारी एवं अपने जीवन के अन्तिम समय में रामकृष्ण परमहंस समाधि की अवस्था में रहने लगे; जिसके कारण उनका तन शिथिल पड़ने लगा। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर उनकी अज्ञानता जानकर हँस देते थे; क्योंकि वे जीवन का मर्म और रहस्य समझते थे। इनके सभी शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। जिसकी आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा- \’वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं; चारों ओर अज्ञान का अन्धेरा छाया है। यहाँ लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो! क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी?\’ उनकी इस बात का विवेकानन्द पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी तथा उच्चकोटि के ऐसे साधक थे, जो सेवा पथ को ईश्वरीय प्रशस्त पथ मानकर एकता में अनेकता का और अनेकता का एकता में पुनः आत्मसात भाव का दर्शन करते थे। सेवा से समाज का संरक्षण और सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर उनसे समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया, तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। इस प्रकार सन 1886 में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दिया अर्थात सोलह अगस्त को सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह रामकृष्ण परमहंस जी इस नश्वर देह को त्यागकर महासमाधि द्वारा स्वरुप भाव में लीन हो गये। बाद में चलकर इनके नाम से रामकृष्ण मठ या मिशन की स्थापना हुई और जिसका मुख्यालय बेलूरमठ में स्थित है।
रामकृष्ण परमहंस जी छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से लोगों को प्रेरणा और शिक्षा देते थे। कलकत्ता के बुद्धिजीवियों पर उनके विचारों ने गहरा और व्यापक प्रभाव छोड़ा था। यद्यपि कि उनकी शिक्षायें आधुनिकता और राष्ट्र के आजादी एवं समकालीन परिस्थितियों के बारे में नहीं थी। फिर भी उनके आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक आन्दोलन ने परोक्ष रूप से देश में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ाने का व्यापक कार्य किया; क्योंकि उनकी शिक्षा जातिवाद एवं पान्थिक पक्षपात जैसी सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों को नकारती है। धर्म अर्थात श्रेष्ठ कर्तव्य के अनुसार आचरण के मार्ग को वे उत्तम मार्ग मानते थे। रामकृष्ण के अनुसार ही मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है, सन्मार्ग पर चलना। रामकृष्ण कहते थे कि- कामिनी और कञ्चन ईश्वर प्राप्ति अर्थात धर्म के मार्ग में चलने अर्थात श्रेष्ठ कर्तव्य का अनुशरण करने में सबसे बड़े बाधक हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन का निकट से विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि, वे तपस्या, सत्सङ्ग, साधना और स्वाध्याय आदि आध्यात्मिक साधनों पर विशेष बल देते थे। वे प्रायः कहा करते थे कि, यदि आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो, तो पहले अहम भाव को दूर करो; क्योंकि जब तक अहंकार दूर न होगा, अज्ञान का परदा कदापि न हटेगा। अहंकार और अभिमान जीवन की सबसे बड़ी बाधा हैं तथा स्व का अभिमान तो सबसे बड़ी मानसिक विकृति है। तपस्या, सत्सङ्ग, साधना, स्वाध्याय आदि साधनों से अहंकार और अभिमान दूरकर आत्मज्ञान प्राप्त करो और ब्रह्म को पहचानो।\’ रामकृष्ण संसार को माया के रूप में देखते थे। उनके अनुसार अविद्या माया सृजन के काली शक्तियों जैसे- काम, क्रोध, लोभ, मोह, लालच, क्रूरता, स्वार्थ कर्म आदि को प्रकट करती है। यह मानव को चेतना के निचले स्तर पर ले जाकर रखती हैं। ये नकारात्मक या विध्वसंक शक्तियाँ मनुष्य को जन्म और मृत्यु के चक्र में बाँधने के लिये उत्तरदायी हैं। वहीं विद्या माया सृजन की अच्छी शक्तियों जैसे- निःस्वार्थ कर्म, आध्यात्मिक गुण, ऊँचे आदर्श, दया, पवित्रता, प्रेम, करुणा और भक्ति आदि
के लिये उत्तरदायी हैं और मनुष्य को चेतना के ऊँचे स्तर पर ले जाती हैं।
माता शारदा देवी, रामकृष्ण संघ में \’श्रीमाँ\’ के नाम से सुविख्यात और परिचित रही हैं। सारदा देवी अर्थात सारदामणि मुखोपाध्याय का जन्म 22 दिसम्बर 1853 को जयरामबाटी, बंगाल में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में एवं मृत्यु 20 जुलाई 1920 को 66 वर्ष की आयु में कोलकाता में हुई। उनके पिता रामचन्द्र मुखोपाध्याय और माता श्यामासुन्दरी देवी कठोर परिश्रमी, सत्यनिष्ठ एवं भगवद् परायण थे। मात्र 5 वर्ष की आयु में इनका विवाह श्री रामकृष्ण से कर दिया गया था। सामान्यत: विवाह सन्तानोत्पत्ति के लिये किया जाता है; किन्तु शारदा देवी और रामकृष्ण का विवाह सम्बन्ध अलौकिक था। रामकृष्ण जी सदैव शारदा देवी को माँ अर्थात श्रेष्ठ सर्जक के रूप में ही देखते थे। एक दिन रामकृष्ण की मन:स्थिति जानने हेतु माँ शारदा ने उनसे पूछा- \’बताईये तो मैं आपकी कौन हूँ?\’ रामकृष्ण ने बिना बिलम्ब उत्तर दिया कि- \’जो माँ काली मूर्ति में विराजमान हैं, वही माँ आपके रूप में मेरी सेवा कर रही हैं।\’ उनके विवाहिक सम्बन्ध में विषय वासना को कोई स्थान नहीं था। उनके भक्तों का मानना है और इसका उनके व्यवहार में प्रमाण भी मिलते हैं कि, माँ शारदा और रामकृष्ण देव कई जन्मों से एक दूसरे के सहचारी थे। दक्षिणेश्वर स्थित मन्दिर के दक्षिणी भाग में सारदा देवी एक छोटे से कमरे में रहती थीं। अठारह वर्ष की उम्र में वे अपने पति रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर पहुँची थीं। रामकृष्ण इस समय कठिन आध्यात्मिक साधना में बारह बर्ष से अधिक समय व्यतीत कर आत्मसाक्षात्कार के सर्वोच्च स्तर को प्राप्त कर चुके थे। उन्होंने बड़े प्यार से सारदा देवी का स्वागत कर उन्हें सहज रूप से ग्रहण किया और गृहस्थी के साथ- साथ आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने की उनको शिक्षा भी दिया। सारदा देवी पवित्र जीवन व्यतीत करते हुए एवं उनकी शिष्या की तरह आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने दैनिक दायित्व का भी कुशलता से निर्वाह करने लगीं। रामकृष्ण सारदा को जगतमाता के रूप में देखते थे और इसी कारण सन 1872 के फलाहारिणी काली पूजा की रात को उन्होंने सारदा देवी की जगतमाता के रूप में पूजन किया। दक्षिणेश्वर में आने वाले शिष्यों एवं भक्तों को सारदा देवी अपने बच्चों के रूप में देखती तथा बच्चों के समान देखभाल करती थीं। उनकी दिनचर्या प्रातः तीन बजे आरम्भ होती थी और सबसे पहले गंगास्नान के बाद जप और ध्यान करती थीं। रामकृष्ण ने उन्हें दिव्य मन्त्र बताये थे। साथ ही लोगों को दीक्षा देने और आध्यात्मिक जीवन में मार्गदर्शन देने हेतु आवश्यक सूचनाएँ भी दिया था।
संघ माता के रूप में सन 1886 में रामकृष्ण के देहान्त के बाद सारदा देवी तीर्थ करने चली गयीं। लौटकर वे अपने मायके कामारपुकुर में रहने हेतु आ गयीं। पर वहाँ पर उनकी उचित व्यवस्था न हो पाने के कारण शिष्यों एवं भक्तों के आग्रह पर वे कामारपुकुर छोड़कर कलकत्ता आ गयीं। कलकत्ता आने के बाद सभी भक्तों के बीच संघ माता के अपने स्वरूप के अनुरूप उन्होंने सभी को माँ रूप में संरक्षण एवं अभय प्रदान किया। अनेक भक्तों को दीक्षा देकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग में प्रवृत्त किया। आरम्भिक वर्षों में स्वामी योगानन्द ने उनकी सेवा का दायित्व लिया। स्वामी सारदानन्द ने उनके रहने के लिये कलकत्ता में उदबोधन भवन का निर्माण करवाया। अन्तिम जीवनकाल में सारदा देवी ने उसी भवन के पूजाघर में रहने लगीं, जहाँ कठिन परिश्रम एवं साधना किया; परन्तु बार- बार मलेरिया के संक्रमण के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। बीस जुलाई 1920 को उन्होंने अपने लौकिक शरीर का त्याग किया। तत्पश्चात बेलूर मठ में उनके समाधि स्थल पर एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराया गया। सारदा देवी का आध्यात्मिक ज्ञान बहुत उच्च कोटि का था और उन्होंने अनेक बार कहा कि- \’ध्यान करो, इससे तुम्हारा मन शान्त और स्थिर होगा और बाद में तुम ध्यान किये बिना रह नहीं पाओगे। चित्त ही सबकुछ है। मन को ही पवित्रता और अपवित्रता का आभास होता है। एक मनुष्य को पहले अपने मन को दोषी बनाना पड़ता है; जिससे वह दूसरे मनुष्य के दोष देख सके। मैं तुम्हें एक बात बताती हूँ; अगर तुम्हें मन की शान्ति चाहिये तो दूसरों के दोष मत देखो, अपने दोष देखो, सबको अपना समझो। मेरे बच्चों कोई पराया नहीं है। पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है। मनुष्य एवं जीव मात्र में अपने गुरु के प्रति भक्ति होनी चाहिये। गुरु का चाहे जो भी स्वभाव हो, शिष्य को मुक्ति अपने गुरु पर अटूट विश्वास से ही मिलती हैं।\’ रामकृष्ण परमहंस एवं माता सारदा का जीवन श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों, गृहस्थ जीवन के उच्चतम आदर्श का उदाहरण है; जिससे श्रेष्ठ समाज, श्रेष्ठ राज्य एवं श्रेष्ठ राष्ट्रीय भाव का स्वाभाविक उदय एवं प्रकटीकरण होता है। इस अर्थ में आप उन्हें वैदिक विरासत से युक्त आधुनिक शंकराचार्य कहना चाहिये।
(\’न्यूज टाइम पोस्ट\’, लखनऊ के 01- 15 मार्च 2021 के अंक में प्रकाशित।)
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
