तालिबानी माओवाद और अस्थिरता का दौर

पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद की आतंकी अर्थात हिंसक स्थिति का प्रारम्भ मार्क्सवाद और उसके उत्पादों जैसे- साम्यवाद, माओवाद, नक्सलवाद के कारण हुआ। तात्पर्य यह कि, साम्राज्यवाद का एक पूंजीवादी एवं अहिंसक चेहरा है तो उसका दूसरा चेहरा साम्यवादी एवं हिंसक है। तालिबान के कारण अफगानिस्तान में घटित परिस्थिति को जानने के लिये उसके सत्य की पृष्ठभूमि को जानना जरूरी है। इस तरह की लड़ाई केवल 1998 से ही शुरू नहीं हुई है; बल्कि यह लड़ाई जब सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ था और सोवियत संघ ने अपने पड़ोसी देश अफगानिस्‍तान में कदम रखा था; यह कदम मार्क्सवादी साम्यवाद के साये में हिंसक एवं आतंकी साम्राज्यवाद के प्रसार के लिये था। एक बात और जाननी जरूरी है, जब अमेरिका दुनिया का इतना ताकतवर देश नहीं था और ग्रेट ब्रिटेन सर्वाधिक शक्तिशाली देश था तथा आधी दुनिया उसका उपनिवेश थी। अपने इस औपनिवेशिक स्थिति को बनाये या मजबूत रखने के लिये ब्रिटेन ने अपने निजी, आर्थिक और सामरिक हितों की रक्षा के लिये अफगानिस्‍तान की भूमि का उपयोग किया। ग्रेट ब्रिटेन का यह एक प्रकार से पूँजीवादी एवं औपनिवेशिक स्थिति को बनाये रखने का उपक्रम था; यह प्रतिक्रियात्मक नहीं उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति का हिस्सा था। यहाँ सवाल खड़ा होता है कि कोई देश या स्थान किसी का उपनिवेश बनता क्यों है? वास्तव में इसके केवल दो कारण हैं, एक- देश विशेष में साधनों सुविधाओं सेवाओं का अभाव अथवा साधनों सुविधाओं सेवाओं के उपयोग न कर पाने की अयोग्यता एवं अक्षमता और दूसरा, स्वयं या किसी बहकावे में या लोभ में या मांसल आकर्षण में अपने देश के संस्कार सभ्यता संस्कृति को त्याग देने की बेचैनी एवं लालसा। ये दोनों प्रवृत्तियाँ तब आती हैं; जब विकास का आधार एवं अर्थ- मानसिक शारीरिक, मानवीय आध्यात्मिक न होकर भौतिक मांसल और भोगजनित हो जाता है। अट्ठारहवीं शताब्दी के अन्तिम समय में, जब तक रूस में क्रान्ति और जार का तख्‍तापलट भी नहीं हुआ था। उस समय रूस और ब्रिटेन आपस में लड़ रहे थे और जंग का मैदान था अफगानिस्‍तान। अफगानिस्‍तान के रास्‍ते रूस अपनी सीमा बढ़ाना चाहता था; लेकिन ग्रेट ब्रिटेन को भय था कि एक बार अफगानिस्‍तान रूस के कब्‍जे में आ गया तो भारत को भी उसके हाथों जाने में देर नहीं लगेगी। यहाँ आप ब्रिटेन को अमेरिका का प्रतिनिधि मानकर साम्राज्यवाद के हिंसक एवं अहिंसक दोनों स्थितियों का मूल्याँकन कर सकते हैं। जब रूस में क्रान्ति के पहले और बाद में पहला तथा क्रान्ति के बाद दूसरा विश्वयुद्ध हुआ, जर्मनी की हार और पुनः हार हुई; यूक्रेन, लाटविया, लिथुआनिया, बेलारूस, जॉर्जिया, आर्मेनिया, अजरबैजान, तुर्कमेनिस्‍तान, उज्‍बेकिस्‍तान के बाद यूरोप का एक बड़ा हिस्‍सा रूस के एक भिन्न प्रकार के साम्राज्यवाद के अधीन आकर, सोवियत सोशलिस्‍ट प्रजातन्त्र संघ का हिस्‍सा बनता गया। उस वक्त रूस, अमेरिका के लिये न केवल एक उभरती हुई चुनौती था; बल्कि प्रतिक्रियात्मक साम्राज्यवाद के अस्त्र से लड़ने को आतुर भी था।

अफगानिस्‍तान की सीमा उत्‍तर में ताजिकिस्‍तान, तुर्कमेनिस्‍तान और उज्‍बेकिस्‍तान से लगी हुई थी। रूस और अफगानिस्‍तान में धीरे-धीरे मित्रता बढ़ने लगी या यों कहें कि रूस ने उपनिवेशवाद के उपरोक्त दोनों कारणों से अफगानिस्तान से मित्रता बढ़ाया। रूसी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सेक्रेटरी जनरल लियोनिड ब्रेजनेव की 1977 में अफगानिस्‍तान के पूर्व प्रधानमन्त्री और तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति मोहम्‍मद दाऊद खान से इसी उपनिवेशवादी या साम्राज्यवादी मानसिकता के कारण भेंटवार्ता हुई। अफगानिस्‍तान में रूस की पकड़ मजबूत होने लगी। लेकिन यह दोस्ती रूस के कारण अमेरिका को और भारत के कारण पाकिस्‍तान दोनों को स्वीकार नहीं थी; क्योंकि शरीर से भोगवादी एवं मानसिकता से साम्यवादी जवाहरलाल नेहरू और इन्दिरा के कारण भारत रूस के निकट था। इसी कारण भारत में नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की नीति एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू करके भारत को नष्ट करने का दुष्चक्र रचा, जिसका खामियाजा भारत आज तक भुगत रहा है। दोनों ही खुलकर और छिपकर दोनों तरीके से साथ मिलकर रूस के खिलाफ कार्य कर रहे थे। पाकिस्‍तानी इंटेलिजेन्स एजेन्सी आईएसआई और अमेरिकन इंटेलिजेन्स एजेन्सी सीआईए साथ मिलकर दारूद खान की सत्‍ता को गिराने अथवा अपने पक्ष में लाने का उपक्रम कर रहे थे। सोवियत संघ, अमेरिका और पाकिस्तान के इस इरादे को समझ गया और खेल बिगाड़ने के लिये रूस ने अफगानिस्‍तान का तख्‍तापलट करवा दिया तथा अफगानिस्‍तान में रूस की कठपुतली सरकार बन गयी एवं  रूसी सत्‍ता के इशारे पर चलने लगी। अब अफगानिस्‍तान में रूसियों के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिये अमेरिका ने अफगानिस्तान के अन्दर ही मुजाहिदों की एक समानान्तर सेना खड़ी किया। मुजाहिदों की इस सेना को तैयार करने में पाकिस्‍तान ने अमेरिका का साथ दिया और पाकिस्‍तान सेना ही इन मुजाहिदों को सैन्‍य प्रशिक्षण देने कार्य कर रही थी। यहीं से ओसामा बिन लादेन का जन्म हुआ। अफगानिस्‍तान की धरती एक बार फिर युद्ध की चपेट में आयी; लेकिन इस बार आमने-सामने थे अफगानिस्तानी एवं छिपे हुये पाकिस्तानी तालिब मुजाहिदीन और रूसी सेना। रूस को इस बार काफी क्षति उठानी पड़ी। इसके कारण अफगानिस्तान में सत्ता एवं समानान्तर सत्ता के संघर्ष का खेल गति पकड़ता गया।

अमेरिका से पाकिस्तान के माध्यम से अरबों डॉलर तालिबान के मुजाहिदीनों तक पहुँच रहे थे; अफगानिस्‍तान की रूस प्रायोजित सत्‍ता को हिलाकर परेशान कर दिया था। अफगानिस्‍तान को इस स्थिति में ले जाने के पीछे अमेरिका की केवल एक मंशा थी, किसी भी तरह रूस की ताकत को कमजोर करना, उन्‍हें आगे बढ़ने से रोकना। यह वास्तव में पूँजीवाद एवं साम्यवाद की लड़ाई में बदल गयी थी। अमेरिका अपने उद्देश्य में काफी हद तक कामयाब रहा। लेकिन इतिहास ठीक वैसा ही नहीं होता, जैसा हम सोचते और लिखते हैं; बहुत कुछ हमारे सोचने और लिखने से भिन्न भी होता है। जिस तालिबान को अपने निजी हित के लिये अमेरिका ने खड़ा किया था, अमेरिका ने भी नहीं सोचा था कि एक दिन वो तालिबान उसी की कब्र खोदेगा और अमेरिका की जमीन पर इतिहास के सबसे खतरनाक और सबसे विनाशकारी हमले को अंजाम देगा। जिस ओसामा बिन लादेन को खुद अमेरिका ने जन्‍म दिया था; वही ओसामा बिन लादेन एक दिन अमेरिका के लिये सबसे बड़ा आतंकवादी बन गया, जब सुसाइड मिशन पर निकले मुजाहिद्दीनों ने दो हवाई जहाज अमेरिका के वर्ल्‍ड ट्रेड सेण्टर से लड़ा दिया। तीसरा व्‍हाइट हाउस का रुख कर रहा था, जिसे अमेरिका के प्रमुख सैन्य ठिकाने पेंटागन ने बीच में ही मार गिराया। शरिया या मदरसा आधारित शिक्षा या तालिब हासिल व्यक्ति से आप यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह किसी के प्रति वफादार रहेगा; वह शरिया और शरिया में बताये जन्नत के मांसल आकर्षण से ही केवल प्रभावित हो सकता है और उसी के प्रति वफादार भी हो सकता है। इस बात को समझने में अमेरिका ने चूक किया। मुजाहिद्दीनों या तालिबानों को जन्नत का आकर्षण, माओवाद से भी अधिक क्रूर और हिंसक बनाता है तथा इसी क्रूरता एवं हिंसा के कारण आतंकवाद जन्म लेता, आता और अपनी नृशंस गतिविधि को अंजाम देता है। जिससे आज पूरा विश्व परेशान एवं तबाह है। मार्क्सवाद या साम्यवाद इसी कारण हमेशा इसके साथ खड़ा होता हुआ दीखता है; क्योंकि वह इसी के सहारे अपने माओवादी, नक्सलवादी मार्ग से अपने को स्थापित करना चाहता है।

उपरोक्त परिस्थिति के बाद अमेरिकी का अफगानिस्तान में दूसरा अध्याय उसके बाद से शुरू होता है। जो तालिब या मुजाहिद्दीन पहले अमेरिका के दोस्‍त थे, अब वही सबसे बड़े दुश्‍मन हो गये; ठीक उसी प्रकार तालिबानों के लिये भी अब अमेरिका, सीआईए, पेंटागन एवं व्हाइट हाउस आदि सबसे बड़े दुश्मन हो गये। फलतः अमेरिकी सेना का पहला निशाना था ओसामा बिन लादेन, जिसे मई 2011 को पाकिस्‍तान के एबटाबाद में अमेरिकी सेना ने मार गिराया। यहाँ अमेरिका का साम्यवाद आधारित हिंसक मार्ग या प्रतिक्रियात्मक साम्राज्यवाद को भेदने का जो लक्ष्य था, वह अब दूसरे चरण में शरिया आधारित आतंकवाद की तरफ मुड़ गया। दोनों तरफ हजारों गुनाहगार और बेगुनाहगर मारे गये। पहाड़ों, नदियों वाली अफगानी धरती एक विशालकाय नररक्त धार में बदलती गयी। इन सबसे हासिल क्‍या हुआ? यहाँ पूँजीवादी साम्राज्यवाद जीता या हारा? साम्यवादी साम्राज्यवाद जीता या हारा? अथवा इसमें शरिया आधारित आतंकवाद जीता या हारा? आप स्पष्ट उत्तर नहीं दे सकते! लेकिन इतना तो तय है कि इस पूरे खेल में मनुष्यता हारी है और पाशविकता के फिलहाल पौ बारह हैं। लेकिन इसमें एक खास बात जो प्रतीत हो रही है, वह यह कि मनुष्यता का भविष्य उज्ज्वल और पाशविकता का भविष्य अन्धकारमय दिखायी पड़ रहा है। माओवादी और आतंकवादी प्रवृत्ति के लोग तालिबान की इस छणिक जीत को, वियतनाम के बाद अमेरिकी या पूँजीवादी साम्राज्यवाद की सबसे बड़ी हार कहकर खुश हो रहे हैं, यह उनकी क्रूर मानसिकता का प्रकटीकरण है। इस कारण तालिबान जैसी कट्टर शरिया पन्थी शक्ति का सत्तासीन होना, मानवता के लिये दुःखद है। अफगानिस्तान की जनता के दामन से हिंसक, अहिंसक साम्राज्यवादी शक्तियों की अधीनता का कलंक तो मिट जायेगा, लेकिन अफगानिस्तान को मनुष्यता आधारित जनतन्त्र की लड़ाई भविष्य में उतनी ही मुस्तैदी से लड़नी होगी। यह लड़ाई कठिन और लम्बी हो सकती है; क्योंकि दुनिया में बदलाव तेजी से हो रहे हैं और यह बदलाव दुनिया को अहिंसक एवं हिंसक के बीच संघर्ष के कठिन दौर में ले जायेगा; जहाँ हिंसा को एकदम नापसन्द करने वालों को भी हिंसा को धराशायी करने के लिये हिंसा का सहारा लेना पड़ेगा। यह बात हमेशा ध्यान में रखना पड़ेगा कि पूँजी के लिये संघर्ष और स्वेक्षाचरिता (व्यभिचार) के लिये संघर्ष में हमेशा, व्यभिचार के लिये संघर्ष अधिक क्रूर होता है।

अमेरिका ने अभी तक अनगिनत युद्व किये और लगभग सभी युद्ध अपने भूमिखण्ड से दूर किये हैं। यहाँ मेक्सिको से सीमा को लेकर हल्के-फुल्के विवाद को अपवाद माना जा सकता है। तालिबान का उदय वर्ष 1990 में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ, जब अफगानिस्‍तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। इसके बाद तालिबान ने अफगानिस्‍तान के कन्धार शहर को अपना पहला केन्द्र बनाया। अफगानिस्तान की जमीन कभी सोवियत संघ के हाथ में थी; लेकिन 1989 में मुजाहिदीन ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसी मुजाहिदीन समूह का कमाण्डर बना पश्तून आदिवासी समुदाय का सदस्य मुल्ला मोहम्मद उमर। आगे चलकर इसी उमर ने तालिबान की स्थापना किया। तालिबान शब्द से किसी के भी मन में एक तस्वीर उभड़ती है- एक ऐसा आदमी जिसके पास दाढ़ी, बड़ा कुर्ता, ऊँचा पायजामा और पगड़ीनुमा एक कपड़ा सिर पर लिपटा हुआ है, जिसका एक सिरा कन्धे पर लटक रहा हो। सबसे खास बात कि हाथ में या कन्धे पर बन्दूक होना जरूरी है, यह तालिबानी हकीकत है। तालिबान अरबी भाषा का शब्‍द है, जिसका अर्थ है विद्यार्थी। यह बना है तालिब शब्द से, तालिब का मतलब होता है ज्ञान और ज्ञान को ग्रहण करने वाला विद्यार्थी यानी तालिबानी। तालिबान शब्द का पश्तून में भी मतलब होता है छात्र और इस संगठन के सदस्यों को, जिन्हें मुल्ला मोहम्मद उमर का छात्र माना गया। अब इस ज्ञान और शिक्षा को आप क्या कहेंगे और इसके पक्ष में कैसे खड़े होंगे? मतलब कि शरिया के पक्ष में मनुष्यता खड़ी नहीं हो सकती। आज तक जो खड़े हुये हैं, वे या तो मार्क्सवाद साम्यवाद माओवाद के हिमायती रहे हैं या आतंकवादी और आतंकवाद के समर्थक। जब उमर ने कन्धार में तालिबान नामक आतंकी दस्ता बनाया, उस समय उसके पास मात्र पचास समर्थक थे, जो अपराध और भ्रष्टाचार में बर्बाद होते अफगानिस्तान को कहने के लिये संवारना चाहते थे? धीरे-धीरे तालिबान पूरे देश में फैलने लगा। सितम्बर 1995 में तालिबान ने ईरान से लगे हेरात पर कब्जा किया और उसके अगले साल 1996 में कन्धार को अपने नियन्त्रण में लिया और राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया; राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को कुर्सी से हटा दिया। रब्बानी अफगानिस्तानी मुजाहिदीन के संस्थापकों में से एक थे, जिन्होंने सोवियत ताकत का विरोध किया था। साल 1998 तक लगभग नब्बे प्रतिशत अफगानिस्तान तालिबान के अधीन था। शुरुआत में अफगानिस्तान के लोगों ने तालिबान का स्वागत और समर्थन भी किया। इसे मौजूदा अव्यवस्था के समाधान की शक्ल में देखा गया; जनता का समर्थन मिलने के बाद धीरे-धीरे कड़े इस्लामिक नियम लागू किये जाने लगे, जिसके प्रति इनकी ऊपर बतायी गयी सर्वाधिक वफादारी थी। छोटी- छोटी गलतियों पर भी दोषियों को सरेआम मौत की सजा दी जाने लगी; महिलाओं का भयावह शोषण किया जाने लगा; समय के साथ रुढ़िवादी कट्टरपन्थी शरिया नियम थोपे जाने लगे। टीवी और म्यूजिक को बैन कर दिया गया, लड़कियों को स्कूल जाने से मना कर दिया गया, महिलाओं पर बुर्का पहनने का नृशंस दबाव अनिवार्य हो गया।

शरिया कानून इस्लाम की तथाकथित कानूनी प्रणाली है, जो कुरान और इस्लामी विद्वानों के फैसलों पर आधारित बतायी जाती है। शरिया कानून मुसलमानों के जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करता है। वास्तव में लगभग हर मुस्लिम देश अपने-अपने तरीके से कमोबेश शरिया को अपने यहाँ लागू किया हुआ है। अरब देशों में यह अधिक क्रूरता से लागू होता है। यह शरिया कानून मुस्लिम ब्रदरहुड के लिये कुछ अलग, सलाफियों के लिये कुछ अलग और तालिबान, आईएसआई, बोको हरम आदि के लिये कुछ अलग है; क्योंकि अपनी सुविधा के लिये इसकी व्याख्या कर ली जाती है। तालिबान ने अफगानिस्तान में अपने पिछले कार्यकाल में शरिया का सबसे सख्त स्वरूप लागू किया। ताल‍िबान ने दोषियों को कड़ी सजा देने की शुरुआत की। चोरी करने वालों के हाथ-पैर काट दिये जाते; पुरुषों को दाढ़ी रखना अनिवार्य तो स्त्रियों के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। इस कानून के तहत क्रूर सजाओं के साथ-साथ विरासत, पहनावा और महिलाओं से सारी स्वतन्त्रता छीन लेने को भी जायज ठहराया जाता है। शरिया कानून के तहत तालिबान ने देश में किसी भी प्रकार के गीत-संगीत को भी प्रतिबन्धित कर दिया था। शरिया की कट्टरपन्थी व्याख्या का पूरा जोर आधी आबादी की स्वतन्त्रता और अधिकारों को कुचलने में लगा रहता है। लेकिन साम्यवाद एवं माओवाद का स्त्री- विमर्श इस पर चर्चा नहीं करता। तालिबान ने अमेरिका के साथ साल 2018 में बातचीत शुरू कर दिया था। फरवरी 2020 में कतर की राजधानी दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ; जहाँ अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने की प्रतिबद्धता व्यक्त किया और तालिबान अमेरिकी सैनिकों पर हमले बन्द करने को तैयार हुआ। समझौते में तालिबान ने अपने नियन्त्रण वाले इलाके में अलकायदा और दूसरे संगठनों के प्रवेश पर पाबन्दी लगाने की बात भी कहा। लेकिन अमेरिका ने 2019 में ही दोहा समझौते से पहले ही अपनी अधिकतर सेना को वापस बुला लिया था। केवल 4000 अमेरिकी और नाटो सौनिक बचे हुए थे। दुनिया में अधिकांश चर्चा इस बात पर हो रही है कि तालिबान का आगमन अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर आतंकी हमले के बाद हुआ; जब अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन 11 सितम्बर 2001 के आतंकी हमले की प्लानिंग कर रहा था, तालिबान ने उसे ठिकाना दे रखा था। अमेरिका ने उससे ओसामा को सौंपने के लिये कहा, लेकिन तालिबान ने इनकार कर दिया। इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में घुसकर मुल्ला उमर की सरकार को गिरा दिया; उमर और बाकी तालिबानी नेता पाकिस्तान भाग गये। यहाँ से उन्होंने फिर से अफगानिस्तान लौटने की तैयारी शुरू कर दिया। यहीं से अमेरिका की आँख में पाकिस्तान खटकने लगा; क्योंकि पाकिस्तान की भी अन्तिम वफादारी तो शरिया के ही प्रति हो सकती थी। आतंकियों की शरिया के अतिरिक्त कोई जाति, मजहब या घर नहीं होता; इनका कोई अपना सगा भी नहीं होता, तो अमेरिका ने गलतफहमी कैसे पाल लिया ये आतंकी लोग अमेरिका का सगा रहेगा? यही सबसे बड़ी चूक अमेरिका से हो गयी।

अफगानिस्तान में दोबारा तालिबान की वापसी बगैर जनता के समर्थन के सम्भव नहीं था। एक तरफ जहाँ तालिबानी जनता में बनावटी विश्वास पैदा करने में सफल रहे, वहीं अमेरिका के अफगानिस्तानी प्रतिनिधि अमेरिकी पैसे पर ऐशो- आराम फरमाने में लग गये; अमेरिकी और नाटो सेना का ठीक से नियोजन नहीं हुआ। सैनिकों के वेतन भत्ते और सुविधाओं के नाम पर चार- पाँच गुना पैसा निकम्मी अफगानिस्तानी सरकार ऐंठती और अमेरिका ही नहीं, अपने देश के निर्दोष एवं षड्यन्त्र से अनजान जनता को ठगती रही। निश्चित ही जनता के साथ के बाद ही तालिबान की वापसी हुई है और छद्म तरीके से तालिबान ने जनता के एक वर्ग को अपने पक्ष में कर लिया। जनता ने, मौजूदा सत्ता के बदौलत बढ़ती जा रही शोषण, दमन और अव्यवस्था के समाधान के विकल्प के रूप में तालिबान को देखा गया। यहाँ अफगानिस्तानी जनता एक दूसरे प्रकार से तालिबानियों द्वारा भी ठगी गयी और ठगी जा रही है। वैसे भी जनता के साथ के बिना किसी भी देश में क्रान्ति सम्भव नहीं होती है और जनता साथ में है तो फिर विरोध कौन करेगा? यहाँ यह स्पष्ट है कि वर्तमान समय में अफगानिस्तान की जनता दो खेमों में बँटी हुई है। तालिबान समर्थक जनता जश्न मना रही है तो, गनी के समर्थक तालिबान को कोस रहे हैं और यही अमेरिका के कठपुतली सरकार के समर्थक ही डर के मारे देश छोड़कर भाग रहें हैं। लेकिन आज जो जश्न मना रहे हैं, कल उनके भागने का समय होगा या उनको शरिया के नीचे बहु- बेटियों संग अपना सब कुछ गवाँ देना होगा। वास्तव में सन 2001 की लड़ाई में अमेरिका समर्थित उत्तरी अलायंस ने अफगानी जनता विशेषकर अफगानी महिलाओं के साथ किस तरह की जघन्य बर्बरता की थी, तालिबानी बर्बरता ने उसकी भी हदें पार कर दिया। अमेरिका के नेतृत्व में नाटो (उत्तर अटलांटिक सन्धि संगठन) की सेनाओं के देश छोड़ने के बाद, अशरफ गनी सरकार की सेना रेत की भीत की तरह भरभारकर ढह गयी और तालिबान ने बड़ी आसानी से देश पर कब्जा कर लिया और अन्ततः अफगानिस्तान ठगा गया और अभी कुछ समय तक और ठगा जायेगा।

बताया जाता है कि अमेरिका ने \’महिला अधिकारों\’ अर्थात माओवादी स्त्री- विमर्श के बहाने अफगानिस्तान पर हमला किया! लेकिन पिछले 18 सालों में क्या हुआ? सिर्फ हिंसा, हत्या, यौन हिंसा, आत्महत्या की विवशता आदि। अमेरिका ने अफगान महिलाओं के सबसे घृणित दुश्मन इस्लामिक कट्टरपन्थियों को दूसरे इस्लामिक कट्टरपन्थियों से लड़ने के लिये सत्ता में बैठाया। जिहादी, तालिबान, और आईएसआईएस जैसे इस्लामिक कट्टरपन्थियों को बढ़ावा देकर, जो न सिर्फ हत्यारे और अपराधी हैं, बल्कि कट्टर नारी विरोधी भी हैं, को प्रश्रय मिला। वास्तव में रूस और अमेरिका दोनों ने शरिया वाले चरमपन्थियों के माध्यम से औरतों का दमन किया है। खरबों की मुद्राएँ और बेशकीमती जिन्दगियाँ, किसी माँ का बेटा, किसी पत्‍नी का पति, किसी बच्‍चे का पिता अमेरिकी या रूसी या शरिया के अहंकार और जिद के नाम पर युद्ध की आग में झोंका जाता रहेगा। यह तय है कि इन सबका अन्तिम परिमाण न तो शरिया के पक्ष में होगा, न ही शरिया का संरक्षण करने वाले माओवाद एवं आतंकवाद वाले हिंसक साम्राज्यवाद के पक्ष में होगा और न ही पूँजीवादी साम्राज्यवाद के पक्ष में होगा। इसका समाधान जब भी होगा अहिंसक एवं मानवता आधारित भारत के सहयोग से अपेक्षाकृत कम हिंसक पूँजीवाद के तैयारी के साथ आगे आने से ही होगा। इस समय दुनिया तीन विचारधाराओं को तीन प्रकार से बाँटकर समझा जा सकता है। भारत जैसा अहिंसक विचार, अमेरिका जैसा न्यून हिंसक विचार एवं माओवाद समर्थित शरियावादी आतंकी जैसा अतिहिंसक विचार। उपरोक्त का समाधान पहले और दूसरे के मिलकर, तीसरे को पटकने से होगा।

डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र

सन्दर्भ:
सत्यपरख भारत, नयी दिल्ली के www.satyparakhbharat.com अगस्त 2021 के अंक में पृष्ठ 19 – 21 पर \’विशेष\’ कालम के अन्तर्गत कौस्तुभ नारायण मिश्र का \’तालिबानी माओवाद और अस्थिरता का दौर\’ विषयक लेख।