भारत की समाज व्यवस्था सदा से ही कर्म आधारित रही है। यहाँ लकड़ी का काम करने वाले, लोहे का काम करने वाले, कपड़े का काम करने वाले, जूते का काम करने वाले, खेत का काम करने वाले, दूध का काम करने वाले, पशुपालन का काम करने वाले, जंगलों का जंगलों में काम करने वाले, मकान का काम करने वाले, शिक्षा देने का काम करने वाले, ज्ञान एवं शास्त्र का काम करने वाले, सृष्टि या प्रकृति को बनाने चलाने वाले सत्ता के मर्म को बताने एवं समझाने आदि वाले लोगों में समाज स्वाभाविक रूप से विभक्त था और विभक्त है। जिसको जो कार्य पसन्द था अथवा जिसकी जिसमें सिद्धता थी, वह उस कार्य को करता था और अपने कार्य तथा कार्य के प्रतिफल से समाज के दूसरे व्यक्ति या परिवार का सहयोग करता था; अर्थात समाज समन्वय एवं साहचर्य से स्वतः स्फूर्त तरीके से चलता था। समाज परस्परावलम्बन, जिसे स्वावलम्बन या आत्मनिर्भरता या परस्परनिर्भरता भी कहते हैं, से चलता था। यह व्यवस्था किसी के द्वारा बनायी या नियोजित नहीं की गयी थी; बल्कि समाज ने स्वाभाविक रूप से यह व्यवस्था स्वीकार कर लिया था। इसमें सहज भाव से जिसने मस्तिष्क से जुड़ा कार्य स्वीकार किया, उसे समाज ने अपेक्षाकृत अधिक प्रतिष्ठा दिया और जिसने शरीर से जुड़े कार्य को स्वीकार किया, उसे अपेक्षाकृत कम प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसमें भी किसी का किसी प्रकार का पूर्वाग्रह या नियोजन नहीं था; क्योंकि प्रकृति की स्वाभाविक व्यवस्था ही है कि शरीर के सभी अंग मस्तिष्क का अनुसरण करते हैं, जैसे हाथ, पैर, कान, नाक आदि सभी मस्तिष्क के निर्देश के अनुसार संचालित होते हैं; प्रकृति ने इसकी उल्टी व्यवस्था नहीं बनाया है। एक घर में भी यही होता है। इसको इस उदाहरण से और ठीक प्रकार समझा जा सकता है। जैसे मान लीजिये, कोई व्यक्ति एक मकान बनवा रहा है और मकान बनवाने वाले स्थान या प्लॉट पर बैठा है, उसने अभियन्ता को बुलाया, अभियन्ता आकर एक अलग कुर्सी पर बैठ गये; फिर अभियन्ता ने अपने से जुड़े मिस्त्री को बुलाया, मिस्त्री आये और आकर एक ऊँचे चबूतरे पर बैठ गये; फिर उस मिस्त्री ने अपने से जुड़े श्रमिक या श्रमिकों को बुलाया, श्रमिक आये और आकर वहीं पास में रखें एक- एक ईंट उठाया और उसे जमीन पर रखकर बैठ गये। क्या कोई इसके उलट व्यवस्था का आज के समय में भी अपेक्षा कर सकता है? नहीं; क्योंकि प्रकृति की व्यवस्था ही यही है कि मस्तिष्क का कार्य करने वाला क्रमशः ऊपर रहेगा।
जिसके पास जितना बड़ा मस्तिष्क या जितना बड़ा मस्तिष्क का कार्य होगा, उसका महत्व उतना ही अधिक रहेगा। हुआ यह और आज भी प्रायः यही होता है कि जो व्यक्ति जो कार्य कर रहा था, वही कार्य उसकी अगली पीढ़ी ने भी करना शुरू कर दिया; इसलिये कि वह कार्य उसकी अगली पीढ़ी आसानी से सीख सकती थी या वह अपनी अगली पीढ़ी को वह कार्य आसानी से सिखा सकता था या अगली पीढ़ी ने उस कार्य को योग्यता छमता न होने के बाद भी उसी कार्य को करना अपनी जागीर समझ लिया या कार्य करने वाले ने अपने उत्तराधिकारी को वही कार्य कराने का ठेका योग्यता छमता न होने के बाद भी ले लिया। यही वह मूल बात थी, जिससे जाति का विकास हुआ या व्यवस्था या अव्यवस्था पनपी! अब मान लीजिये शास्त्र या कर्मकाण्ड का कार्य करने वाला कोई व्यक्ति है; लेकिन उसकी अगली पीढ़ी में वह योग्यता नहीं है, फिर भी उसने वही कार्य करना शुरू किया और उसी सम्मान की समाज से अपेक्षा करने लगा, जो उसके पिता को प्राप्त था, तो यहां सवाल खड़ा होगा! जैसे एक शास्त्रीय व्यक्ति थे, शास्त्र का ज्ञान होने के कारण उन्हें शास्त्रज्ञ या पण्डित कहा गया; वे पूर्ण सात्विक (सतोगुणी) थे, राजसिक (रजोगुणी) एवं तामसिक (तमोगुणी) वृत्ति से दूर थे। लेकिन उनके पुत्र जो सात्विक वृत्ति से विमुख और तामसिक वृत्ति से युक्त थे, उन्होंने अपने पिता का कार्य अपना लिया और वही पद प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, तो कैसे मिलेगा? वे चाहते हैं कि जिस कारण से जो पद पिता को मिला, वही उन्हें मिले तो सवाल खड़ा होगा। उन्होंने यह समझने की कोशिश नहीं किया कि, जिस कारण उनके पिता पण्डित या शास्त्रज्ञ कहलाये, उन्हें हासिल किये बिना यदि वे वह सम्मान पाने की चेष्टा करेंगे तो पांडित्य परम्परा पर प्रश्न खड़ा होगा; क्योंकि यह मस्तिष्क का कार्य है और यह सतोगुण की अपेक्षा करता है। ठीक एसे ही एक सज्जन बढ़ई का कार्य करते थे, उनके बेटे ने कपड़ा धुलने का काम शुरू कर दिया, फिर भी बढ़ई कहलाना चाहते हैं तो, क्यों? ध्यान रखिये जितना ही अधिक आप मस्तिष्क का कार्य करेंगे, उतना ही आपमें सात्विकता की प्रकृति अपेक्षा करती है। इसलिए जो बहुतायत में मस्तिष्क का कार्य करते हैं, उन्हें बहुतायत में सात्विक वृत्ति का होना पड़ेगा; जो मस्तिष्क एवं शरीर का लगभग समान कार्य करते हैं, उन्हें राजसिक वृत्ति के आसपास व्यवहार करना पड़ेगा; ठीक इसी प्रकार जो बहुतायत में शारीरिक कार्य करते हैं, उन्हें बहुतायत में तामसिक वृत्ति का व्यवहार करना होगा।
ऐसा कदापि सम्भव नहीं है कि आप तामसिक वृत्ति का पालन करें और सात्विक वृत्ति की प्रतिष्ठा प्राप्त करें; आप राजसिक वृत्ति का पालन करें और सात्विक वृत्ति की प्रतिष्ठा प्राप्त करें आदि। जिस वृत्ति के आप हों, आप उसी के अनुरूप पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कीजिए या प्राप्त करने की अभिलाषा रखिए। सवाल यह नहीं है कि आप किस घर में पैदा या किस पिता या किस माता से पैदा हुए? मुख्य सवाल यह है कि आप वृत्ति और प्रवृत्ति क्या है? सवाल है कि आप लकड़ी का कार्य नहीं कर रहे हैं, फिर बढ़ई क्यों कहलाना चाहते हैं? आपको शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, फिर आप पण्डित या शास्त्रज्ञ क्यों कहलाना चाहते हैं? आपका कर्म ही आपकी जाति है, आपका रक्त आपकी जाति नहीं है। आप इंजीनियरिंग का कोई काम नहीं जानते और विश्वकर्मा बने बैठे हैं! यह बड़ा सवाल है? आप शिक्षा देने का काम नहीं कर रहे हैं और गुरु बनकर नखरे दिखा रहे हैं। उक्त तीनों वृत्तियाँ सबमें कम या अधिक मात्रा में होती है, लेकिन जिसमें जो वृत्ति अधिक प्रभावी होती है, उसका कर्म उसी के अनुसार संचालित होता है। ध्यान दें कि वृत्ति जन्मना नहीं होती; व्यक्तिशः अलग- अलग होती और हो सकती है। जन्मना एक भी हो सकती है, यदि है तो कोई बुराई नहीं है; लेकिन यह प्रायोजित नहीं होना चाहिए। जैसे कोई इंजीनियर है, उसने अपने पुत्र को भी इंजीनियर बनाने का ठेका लिया और वैसी वृत्ति न होने के बाद भी इंजीनियर की लौकिक पदवी दिलवा दिया, अब वह इंजीनियर अपनी अयोग्यता से समाज और देश का नुकसान करेगा। वृत्तियां, ठीक शरीर की वात, पित्त, कफ प्रकृति जैसी होती हैं। प्रत्येक शरीर में वात पित्त कफ की मात्रा होती है; लेकिन जिस शरीर में इनमे से किसी एक की अधिकता होती है; उस शरीर की प्रकृति वैसी ही कहलाती है और उसी के अनुसार उस व्यक्ति को अपना आहार, विहार, व्यवहार बनाना होता है। इसीलिये आयुर्वेद में शरीर की प्रकृति के अनुसार उपचार का विधान है; कफ प्रकृति के व्यक्ति का अलग प्रकार उपचार, वात प्रकृति के व्यक्ति का अलग प्रकार उपचार और पित्त प्रकृति के व्यक्ति का अलग प्रकार उपचार! हां, यहां एक बात का भेद ठीक से समझना चाहिये कि, वृत्ति एवं प्रवृत्ति में जरूरी नहीं कि अनुवांशिकता हो; लेकिन प्रकृति में जरूरी है कि आनुवांशिकता होती है।
जो लोग इस बात को प्रचारित करते हैं कि मनुस्मृति या अन्य शास्त्रीय ग्रंथों में जाति व्यवस्था जानबूझकर बनाई गई, वे भ्रमित या वर्गलाये गए लोग हैं। क्या आज कोई आचार्य या अध्यापक है, तो क्या वह अपने पुत्र/ पुत्री को आचार्य या अध्यापक नहीं बना देना चाहता? क्या आज कोई अभियन्ता है, तो क्या वह अपने पुत्र/ पुत्री को अभियन्ता नहीं बना देना चाहता? क्या आज कोई चिकित्सक है, तो क्या वह अपने पुत्र/ पुत्री को चिकित्सक नहीं बना देना चाहता? क्या आज कोई ठेकेदार है, तो क्या वह अपने पुत्र/ पुत्री को ठेकेदार नहीं बना देना चाहता? क्या आज कोई राजनेता है, तो क्या वह अपने पुत्र/ पुत्री को राजनेता नहीं बना देना चाहता? बिल्कुल चाहता है; क्योंकि उसके लिए उनको बनाना और सन्तान का वही बन जाना आसान होता और लगता है। तो क्या आप एसी दशा में उनकी वही जाति मान लेते हैं; यदि नहीं तो पुराने को आपने जाति क्यों मान लिया और उसके अनुसार क्यों पूर्वाग्रह या अपूर्वाग्रह पाले बैठे रहते हैं? यदि हां तो फिर इस व्यवस्था को कर्म आधारित क्यों नहीं मानते; जन्म आधारित मानकर एक दूसरे को क्यों कोसते हैं? द्रौपदी मुर्मू जी का जन्म कहां और किस माता – पिता के घर में हुआ? यह महत्वपूर्ण नहीं है; द्रौपदी मुर्मू का कर्म क्या रहा है? यह महत्वपूर्ण पक्ष है, उन्होंने समाज निर्माण में व्यापक योगदान दिया है, वे अध्यापिका रही हैं; उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में जीवन के मर्म को समझा और जाना है कि कैसे अपने युवा पुत्रों के दिवंगत होने या पति के असामयिक निधन पर कैसे संयम और नियम पूर्वक जीवन चलाया जाता है! उनको किस कार्य के योग्य समझा या माना जाय, यह इस आधार पर नहीं तय हो सकता कि द्रौपदी जी का जन्म कहां और किस माता – पिता के घर में हुआ? बल्कि इस आधार पर तय होगा कि उनकी खुद की वृत्ति या प्रवृत्ति क्या और कैसी रही है? उनके पिता और माता वनवासी थे तो उसका प्रभाव उन पर होगा; लेकिन उनके स्व के वृत्ति एवं प्रवृत्ति को क्या आप अनदेखा कर देंगे। सही अर्थों में उनका मूल्यांकन हुआ है। जिसकी जो वृत्ति या प्रवृत्ति है, उसको उस अनुरूप लौकिक या पारलौकिक चीजें पाने का हक है; उसके अनुरूप उसे पद प्रतिष्ठा पाने का हक है! उसको इस आधार पर किसी लौकिक या पारलौकिक या किसी पद या प्रतिष्ठा से वंचित नहीं किया जा सकता कि उसने कहां और किस माता – पिता से जन्म लिया है? जिन लोगों का भी यह निर्णय है, वे धन्यवाद एवं बधाई के पात्र हैं।
डा कौस्तुभ नारायण मिश्र
यह लेख युगवार्ता, नयी दिल्ली के 01 से 15 जुलाई 2022 के अंक में \’नजरिया\’ कालम में प्रकाशित है।
