भारत के माननीय प्रधानमन्त्री ने पिछले दिनों लालकिले की प्राचीर से अपने सम्बोधन में पाँच प्रण की बात कहा था। इन पाँच प्रणों में से दूसरा प्रण था कि, ‘हमें दासता के सभी निशान मिटा देने होंगे; यदि हमारे कार्य व्यवहार आचरण में और मन के किसी भी कोने में गुलामी का एक भी अंश है तो हमें उसे किसी भी हालत में बचने नहीं देना है।’ सच्चे अर्थों में यदि हम अपनी स्मृतियों, अपनी धरोहरों, अपनी थाती आदि को सजोकर संवारकर सहेजकर बचाकर नहीं रख सकते तो हमारे होने का कोई अर्थ नहीं है। अनेक बार किसी स्थान, वस्तु, समय आदि के नामकरण को लेकर कहा जाता है कि नाम से क्या फर्क पड़ता है? उनको यह नहीं पता कि ‘नाम से ही फर्क पड़ता है।’ एक व्यक्ति का नाम ‘राम’ था; जो लोग कहते हैं कि नाम से क्या फर्क पड़ता है? उनको चाहिये कि राम, नाम को ही प्रभु ईशा मशीह या मुहम्मद साहब, का नाम मान लें। ईशा मशीह या मुहम्मद साहब का नाम, राम ही मान लिया जाय तो क्या फर्क पड़ता है? अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय इसी आलोक में आया है। उस निर्णय के विषय में अन्यायालयीय व्यक्ति होने के कारण मेरे द्वारा कुछ कहना उचित नहीं है; लेकिन इसी कारण यह कहने का अधिकार जरूर है कि येसे विषय भी अन्यायालयीय ही होते हैं। येसे विषय पर किसी अधिवक्ता को न्यायालय जाने आदि का कोई विषय बनता ही नहीं है; यह समाज और लोक का विषय है। किसी भी स्थान, वस्तु, समय, सड़क, झील, नदी, तालाब, ग्राम, नगर का मूलरूप में जो नाम था; क्या जब उसको बदला गया तो संविधान या न्यायालय के आलोक में बदला गया था? उत्तर है, नहीं! उत्तर है, कि उस समय की शासन व्यवस्था ने अपने चाबुक के दम पर बदल दिया। चाबुक के बल पर बदला गया, वह अतिशय घृणित और निन्दनीय था। आज जब समाज या लोक द्वारा उसे बदलने नहीं, सुधारने की बात की जा रही है तो, यह उचित है; क्योंकि यह लोक या समाज के प्रतिनिधियों के निर्णय से सुधारने का प्रयास और कार्य है और किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का यह प्रथम दायित्व है कि लोक की भावना के अनुरूप चीजों को सुधारे और ठीक करे। जबरदस्ती बदल दी गयी चीजों को सुधार दे, ठीक कर दे। उसका यह ठीक करना, स्वाभाविक रूप से समाज या लोक द्वारा, उसी की सहमति से किया गया सुधार माना जायेगा।
प्रधानमन्त्री जी ने बीते पन्द्रह अगस्त को लालकिले से ‘पञ्चप्रण’ का उल्लेख किया था। उन्होंने लालकिले से नवीं बार तिरंगा फहराते हुए कहा था कि, ‘हमारा पहला प्रण विकसित भारत है और इसलिये हमें बड़े संकल्पों के साथ आगे बढ़ना है। हमारा दूसरा प्रण है कि, हम दासता के सभी निशान मिटा दें; यदि किसी भी कोने में हमारे मन के भीतर गुलामी का एक भी अंश है तो उसे किसी भी हालत में बचने नहीं देना है। तीसरा प्रण यह है कि, हमें हमारी विरासत पर गर्व करना चाहिये और हमें गर्व करने लायक मानसिकता एवं परिस्थिति बनानी होगी। हमारा चौथा प्रण हो कि, हम अपनी एकता को अपनी ताकत बनायें और हमारा पाँचवाँ प्रण हो कि, हम अपने नागरिक कर्तव्य तथा नागरिकों के प्रति कर्तव्य के बोध भाव से जागृत रहें। इसमें दूसरा प्रण अनेक अर्थों में बहुत महत्वपूर्ण है और जो लोग कहते हैं कि, सनातन धर्म उदार है, सहिष्णु है, उसमें दया और करुणा की भावना है, उसमें कट्टरता और हिंसा के लिये स्थान नहीं है, उसमें सदभाव सर्वपन्थ समभाव की भावना है, वह नैतिक और संस्कारगत है; इसलिये उसमें यदि कुछ बदला गया है, कोई नाम परिवर्तित कर दिया गया है तो उसे सुधारने की आवश्यकता नहीं है। क्यों? कोई व्यक्ति अच्छा उदार अहिंसक सहिष्णू आदि हो तो उसे रहने का हक नहीं है? क्या उसके मूलभाव को आप नष्ट कर देंगे? उसको जिन- जिन नामों से जाना समझा और पचाया जा रहा है, उसे आप बदल देंगे? उसके अस्मिता अस्तित्व स्मृति इतिहास को चकनाचूर कर देंगे? उसके स्वरूप आकर प्रकार संरचना को मिटा देंगे? जो बुरा हिंसक कट्टर अनुदार असहिष्णु है, उसे कुछ भी करने की छूट देंगे? यदि येसा कोई भी व्यक्ति संस्था व्यवस्था करती है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है; यह अमानवीय है; यह अनैतिक है; यह समाज लोक और जीवमात्र के साथ अनाचार अत्याचार और व्याभिचार है। व्यक्ति या किसी भी जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह अपने इतिहास और स्मृतियों के आलोक में भविष्यगत भरोसा और सम्भावना के आधार पर जीवन जीता है, अपनी योजना बनाता है और उसे धरातल पर उतारना चाहता है। यदि आपने, उसके मूल को कुछ या किसी भी मात्रा में बदल दिया है तो आप अमानुषिक, हिंसक, कट्टर और क्रूर हैं। यदि वह उसे सुधार रहा है, ठीक कर रहा है, उसे पुनः मूलरूप में लौटा रहा है तो यह उसका नैतिक तथा प्राकृतिक धर्म या कर्तव्य है। इस अर्थ में सनातन धर्म को देखने समझने का न्यायोचित अभिप्राय बनता है।
इसके लिये यदि कोई याचिका दायर करता है, संविधान या न्यायालय की वर्तमान व्यवस्था की शरण में जाता है तो यह गलत है। यह समाज लोक या जन का विषय है; क्योंकि लोक में, समाज में, जन में, प्रकृति में जो- जो विद्यमान है; वह सब कृत्रिम संविधान या कृत्रिम न्यायालय में समा नहीं सकता। लोक का, समाज का, जन का, देश का, राष्ट्र का, प्रकृति का फलक और आयतन दोनों कृत्रिम संविधान और कृत्रिम न्यायालय से बहुत बड़ा होता है। कृत्रिम संविधान और कृत्रिम न्याय कुछ विषयों पर केवल आंशिक या सांकेतिक मार्गदर्शन मात्र दे सकते हैं; सभी चीजों का सम्यक समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकता। प्रकृति का संविधान और प्राकृतिक न्याय अपने अन्दर सब कुछ समेट कर चलता है। इसलिये येसी बातों के लिये किसी कृत्रिम अपील में जाने के बजाय, लोक या समाज के अपील में जाना श्रेयस्कर होता है और यहीं से मार्ग भी निकलता है या निकल सकता है। यदि किसी स्थान का क्रमिक विकास होते हुए आगे बड़ता है और समय के साथ उसका कोई नाम पड़ता है तो वह बने रहना चाहिये; उसको बदलना अपराध है। लेकिन उस स्थान का नाम पड़ जाने के बाद किसी ने बीच में किसी पूर्वाग्रह के कारण बदल दिया और पुनः किसी ने उसे मूल नाम पर पुनर्स्थापित किया तो यह न्यायसंगत है। बदलाव और सुधार का यह अन्तर सबको समझ में आना चाहिये। अच्छा तो यह है कि बदला ही न जाय और यदि किसी दुर्भावना या पूर्वाग्रह के कारण बदला गया है तो उसे पूर्व के अनुसार सुधार दिया जाना चाहिये। पूर्वाग्रह या दुर्भावना में नाम का बदलना, किसी स्वक्ष स्वेत दीवाल पर दाग लगाने जैसा है और उस दाग को मिटाना, उसको सुधारने या ठीक करने जैसा है। सुधार के उपक्रम को समय के साथ समाज लोक द्वारा या लोक द्वारा चुनी बहुतायत की सत्ता द्वारा जनभावना के अनुरूप किया गया सुधार कहना चाहिये।
यदि किसी स्थान का पूर्व में नाम प्रयागराज या साकेत या अयोध्या या कर्णावती या भाग्यनगर आदि था तो, उसे बदलकर दूसरा नाम क्यों किया गया? जबकि वह समय के साथ सहज और स्वाभाविक रूप से विकसित हुआ नाम था। दूसरा यदि वह नाम समय के साथ सहज रूप में विकसित था और उसे चाबुक के बल पर बदल दिया गया तो उसे क्यों न सुधार कर पुराने नाम में स्थापित कर दिया जाय? इतना ही नहीं, किसी स्थान वस्तु व्यक्ति सड़क ग्राम नगर का नाम, वहाँ की बोली, भाषा, रीति- रिवाज, रहन- सहन, आचार- विचार के अनुसार तय होता है। उदाहरण के लिये तेलंगाना में किसी चीज का नाम आप यदि चाइनीज में या बर्मीज में करते हैं तो यह आपका पूर्वाग्रह और दुर्भावना मानी जायेगी! यह सब लोक या जनभावना के अनुरूप होना चाहिये! यह सब वहाँ की बोली, भाषा, रीति- रिवाज, रहन- सहन, आचार- विचार के अनुसार होना चाहिये! यदि येसा नहीं होता है तो आम के पेड़ से बेर का फल प्राप्त करने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। क्यों किसी परिवार में पैदा हुए बच्चे का उस परिवार के अनुरूप नामकरण होता है? क्यों उस बच्चे के माँ पिता और पुरानी पीढ़ी के भाव विचार के अनुसार नामकरण होता है? और यदि येसा हुआ, तो क्या उसे किसी को बदलने का कोई नैतिक अधिकार है? उत्तर है कदापि नहीं। इसलिये इतिहास के सच्चे तथ्यों एवं घटनाओं के आलोक में निश्चित रूप से नाम में और काम में सुधार होना चाहिये। यदि नाम और काम का आधार व्यवहार ठीक रहता है तो समाज देश राष्ट्र सब सुचारू रूप से चलता है। तनाव और दबाव, कभी भी नाम एवं काम के बदलाव का आधार न हो सकता है और न होना चाहिये। चाबुक के बल पर दुर्भावना एवं पूर्वाग्रह में किये गये किसी भी बदलाव को सुधार देना ही पञ्चप्रण के दूसरे प्रण को पूर्ण करेगा और इसे पूर्ण करने का सहज तथा स्वाभाविक समय चल रहा है।
युगवार्ता, नयी दिल्ली के फरवरी – दो 2023 के अंक में प्रकाशित लेख।
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
प्रोफेसर एवं स्तम्भकार
