नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधी की हत्या क्यों किया? इसका यदि समीचीन उत्तर हो भी, तो भी क्या हत्या को उचित ठहराया जा सकता है? क्या हत्या को देशहित में मानकर भी उचित ठहराया जा सकता है? एक सवाल यह भी है कि क्या वास्तव में हत्या इन लोगों ने किया या साजिशन गाँधी जी के तथाकथित शुभचिन्तकों ने ही अपनी बात लागू हो सके इसलिये करवाया, जिन बातों में गाँधी बाधक थे? गोडसे से गाँधी जी के पुत्र की मुलाकात हुई। इस मुलाकात का जिक्र नाथूराम के भाई और सह अभियुक्त गोपाल गोडसे ने अपनी किताब \’गाँधी वध क्यों?\’, में किया है। गोपाल गोडसे को फाँसी नहीं हुई, कैद की सजा हुई थी। जब देवदास गाँधी अपने (राजमोहन गाँधी के पिता) पिता की हत्या के बाद संसद मार्ग स्थित पुलिस थाने पहुँचे थे, तब नाथूराम गोडसे ने उन्हें पहचान लिया था। यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि गोडसे के जीवन- व्यवहार का निर्माण क्यों कैसे और किन लोगों के द्वारा किन परिस्थितियों में हुआ? गोपाल गोडसे ने अपनी किताब में लिखा है, \”देवदास शायद इस उम्मीद में पुलिस थाने आये होंगे कि उन्हें कोई वीभत्स चेहरे वाला, गाँधी के खून का प्यासा कातिल नजर आयेगा; लेकिन नाथूराम सहज और सौम्य थे; उनका आत्मविश्वास बना हुआ था। देवदास ने जैसा सोचा, उससे एकदम भिन्न मिले नाथूराम गोडसे। नाथूराम ने देवदास गाँधी से कहा- \”मैं नाथूराम विनायक गोडसे हूँ। हिन्दी अखबार \’हिन्दू राष्ट्र\’ का सम्पादक। मैं भी वहाँ था, जहाँ गाँधी की हत्या हुई। आज तुमने अपने पिता को खोया है; मेरे कारण तुम्हें दुख पहुँचा है। तुमको और तुम्हारे परिवार को जो दुःख पहुँचा है, इसका मुझे भी बड़ा दुख है। कृपया मेरा यकीन करो, मैंने यह काम किसी व्यक्तिगत रंजिश के चलते नहीं किया है और न तो मुझे तुमसे कोई द्वेष एवं कोई बुरा भाव है।\” देवदास ने पूछा- \”तब, तुमने ऐसा क्यों किया?\” जवाब में नाथूराम ने कहा- \”केवल और केवल राजनीतिक कारणों से।\” नाथूराम ने देवदास से अपना पक्ष रखने के लिये समय माँगा; लेकिन पुलिस ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। अदालत में नाथूराम ने अपना वक्तव्य रखा था, जिस पर अदालत ने पाबन्दी लगा दिया। गोपाल गोडसे ने अपनी पुस्तक के अनुच्छेद में नाथूराम की वसीयत का जिक्र किया है। जिसकी अन्तिम पँक्ति है- \”यदि सरकार अदालत में दिये मेरे बयान से पाबन्दी हटा लेती है, ऐसा जब भी हो, तब मैं तुम्हें उसे (बयान को) प्रकाशित करने के लिये अधिकृत करता हूँ।\”
जहाँ तक अदालत में गोडसे के बयान का विषय है; यह कौतूहल उत्पन्न करता है कि, आखिर नाथूराम के वक्तव्य में क्या है? उसमें नाथूराम ने जिन स्थितियों एवं बातों का उल्लेख किया है, वे इस प्रकार हैं। पहली बात, वे गाँधी का सम्मान करते थे और उन्होंने कहा था, \”वीर सावरकर और गाँधी जी ने जो लिखा है या बोला है, उसे मैंने गम्भीरता से पढ़ा है। मेरे विचार से, पिछले तीस सालों के दौरान इन दोनों ने भारतीय लोगों के विचार और कार्य पर जितना प्रभाव बनाया है, उतना किसी और चीज ने नहीं।\” दूसरी बात- \”इनको पढ़ने और सोचने के बाद मेरा यकीन इस बात में हुआ कि मेरा पहला दायित्व हिन्दुत्व और हिन्दुस्तानियों के लिये है। एक देशभक्त और विश्व नागरिक होने के कारण 30 करोड़ से अधिक हिन्दुओं की स्वतन्त्रता और हितों की रक्षा अपने आप पूरे भारत की रक्षा होगी। जहाँ दुनिया का प्रत्येक पाँचवाँ शख्स रहता है। इस सोच ने मुझे हिन्दू संगठन की विचारधारा और कार्यक्रम के निकट किया। मेरे विचार से यही विचारधारा हिन्दुस्तान को आजादी दिला सकती है और उसे कायम रख सकती है।\” इस दृष्टि के बाद नाथूराम ने गाँधी के बारे में सोचा। \”बत्तीस वर्ष तक विचारों में उत्तेजना भरने वाले गाँधी ने जब अभारतीय मानसिकता वाले मुस्लिमों के पक्ष में अपना अन्तिम उपवास रखा तो मैं इस नतीजे पर पहुँच गया कि गाँधी के अस्तित्व को शून्य करना होगा। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों को हक दिलाने की दिशा में सराहनीय कार्य किया था; लेकिन जब वे भारत आये तो उनकी मानसिकता कुछ इस तरह बन गई कि क्या सही है और क्या गलत, इसका फैसला लेने के लिये वे खुद को अन्तिम न्यायाधीश मानने लगे। अंग्रेजों द्वारा प्रायोजित तरीके से उनको आगे करने के कारण उनको जो लोकप्रियता मिली, उससे उनके अन्दर अहंकार आया। उन्होंने अपने व्यवहार से प्रकट किया कि यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिये तो देश को उनकी अपराजेयता को स्वीकार्य करना चाहिये। अगर देश उनके नेतृत्व को स्वीकार नहीं करता तो वे कांग्रेस से अलग राह पर चलने लगते। कांग्रेस का त्रिपुरी अधिवेशन इसका बहुत बड़ा प्रमाण है।\” देशहित के इस दूरगामी विचार ने नाथूराम को गाँधी की हत्या करने के लिये उकसाया। नाथूराम ने भी कहा, \”इस सोच के साथ दो रास्ते नहीं हो सकते थे; या तो कांग्रेस को गाँधी के लिये अपना रास्ता छोड़ना होता तथा गाँधी की सारी सनक, सोच एवं दृष्टिकोण को अपनाना होता या फिर गाँधी के बिना आगे बढ़ना होता।\”
गाँधी के ऊपर तीसरा आरोप बन रहा था कि गाँधी ने पाकिस्तान के निर्माण में जवाहर लाल नेहरू और जिन्ना को खुश करने के लिये सहयोग किया। गोडसे ने कहा- \”जब कांग्रेस के दिग्गज नेता, गाँधी की सहमति से देश को बाँटने का फैसला कर रहे थे, उस देश का जिसे हम पूजते रहे हैं; तो मैं उस समय क्रोध से उबल रहा था। व्यक्तिगत तौर पर किसी के प्रति मेरी कोई दुर्भावना नहीं थी; लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि मैं सरकार का सम्मान नहीं कर सकता हूँ; क्योंकि उनकी नीतियाँ एक तरफा मुस्लिमों के पक्ष में थीं। लेकिन उसी वक्त मैं यह साफ देख रहा हूँ कि वे नीतियाँ केवल गाँधी की मौजूदगी के चलते थीं।\” नाथूराम के तर्कों के साथ समस्याएँ जरूर थीं; लेकिन वे आधारहीन नहीं थीं। जैसे, उनकी सोच थी कि गाँधी देश के बँटवारे के प्रति उत्साहित थे, जबकि इतिहास के मुताबिक मामला बिल्कुल उल्टा था कि वे नेहरू के कारण वेबस थे; लेकिन सवाल यह है कि आखिर गाँधी वेबस क्यों थे? उन्होंने कहा कि कांग्रेस में गाँधी तानाशाह थे, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस के अन्दर अपनी बात मनवाने के लिये गाँधी को भूख हड़ताल करनी पड़ती थी। किसी तानाशाह को आदेश देने के सिवा कुछ करने की जरूरत क्यों होगी? क्योंकि गाँधी भावनाओं से खेलना भी जानते थे और उनको यह भी पता था कि यदि गाँधी केवल आदेश के बल पर सब कुछ करायेंगे तो जवाहर लाल स्वयं और अपनी बेटी के माध्यम से प्रतिक्रिया देंगे। इसलिये गाँधी भावनात्मक आदेश की प्रक्रिया से काम निकालते थे। नाथूराम ने गाँधी की अन्तिम भूख हड़ताल (जो उन्होंने पाकिस्तान को फण्ड जारी करने से भारत के इनकार करने पर किया था) पर सवाल उठाये। गाँधी के पक्ष में सफाई देने वाले कहते हैं कि- लेकिन यह गाँधी ने तब किया जब भारत अपने ही वादे से पीछे हट रहा था। गाँधी ने इस मौके पर देश को सही एवं उपयुक्त रास्ता दिखाया था। लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि भारत को वह वादा क्यों कैसे और किस भावना में बहकर करना पड़ा था? क्या उस अनावश्यक वादे के लिये स्वयं गाँधी और उनके लोग उत्तरदायी नहीं थे?
नाथूराम ने अदालत में जो भी कहा; तर्क के आधार पर उससे सहमत और असहमत दोनों हुआ जा सकता है। यह देवदास को दिये बयान से भी उलट है। केवल राजनीति के चलते उसने गाँधी की हत्या नहीं किया था। वह गाँधी की धर्मनिरपेक्ष (पन्थनिरपेक्ष) या मुस्लिम तुष्टिकरण की विचारधारा से घृणा करते थे। यह वास्तविक हिन्दू या भारतीय मनोभाव के भी बिल्कुल उलट था। किसी विचारधारा को किसी पर थोपा नहीं जा सकता है। वास्तविकता यही है कि गाँधी का कोई भी रास्ता या तरीका ऐसा नहीं है, जो सर्वमान्य और पूर्वाग्रह से रहित हो। उनका किसी के प्रति प्रेम और किसी के प्रति द्वेष स्पष्ट दिखायी पड़ता था। इसलिये गाँधी की बन्द आँख से जितना महिमामण्डन किया जा सकता है; खुली आँख से उतने ही अधिक सवाल उन पर खड़े होते हैं। बीती शताब्दी के पाँचवें दशक में अर्थात 1949 में गाँधी के बारे में एक लेखक ने लिखा था- \”सौन्दर्यबोध की दृष्टि से कोई गाँधी के प्रति वैमनस्य रख सकता है जैसा कि मैं महसूस कर रहा हूँ। कोई उनके महात्मा होने के दावे को भी खारिज कर सकता है (यद्यपि कि महात्मा होने का दावा उन्होंने खुद कभी नहीं किया)। कोई साधुता को आदर्श के तौर पर ही खारिज कर सकता है और इसलिये यह मान सकता है कि गाँधी का मूल भाव मानवविरोधी और प्रतिक्रियावादी था। लेकिन एक राजनेता के तौर पर देखने पर और मौजूदा समय के दूसरे तमाम राजनेताओं से तुलना करने पर हम पाते हैं कि- वे अपने पीछे सुन्दर एहसास छोड़कर गये हैं।\” लेकिन केवल तत्कालीन राजनीतिक तुलनात्मक व्यक्तित्व के आधार पर गाँधी अप्रश्नवाची नहीं रह सकते। कहा जाता है कि 1910 में पैदा तथा 1949 में सजा होने से दिवंगत हुये गोडसे ने 30 जनवरी 1948 को नयी दिल्ली में गाँधी को तीन गोली सीने में मार दिया था। नारायण आप्टे और छह अन्य लोगों के साथ मिलकर गोडसे ने गाँधी की हत्या की साजिश रची। एक साल तक चले मुकदमे के बाद, गोडसे को 8 नवम्बर 1949 को मौत की सजा सुनायी गयी थी। इस पर अनेक सवाल खड़े होते हैं; जिस पर इस लेख में आगे चर्चा की जायेगी। गोडसे, पुणे के एक राष्ट्रवादी व्यक्ति थे, जो मानते थे कि गाँधी ने भारत के विभाजन के दौरान भारत के मुसलमानों की राजनीतिक माँगों का समर्थन किया था या भारत में मुस्लिम परस्त तुष्टिकरण की नींव डाली थी। गोडसे के सजा के रूपान्तरण के लिये गाँधी के दो बेटे मणिलाल गाँधी और रामदास गाँधी ने दलील दिया; लेकिन वह भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू, उप प्रधानमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी द्वारा ठुकरा दिया गया और गोडसे को 15 नवम्बर 1949 को अम्बाला सेण्ट्रल जेल में फाँसी दे दी गयी। नाथूराम के पिता, विनायक वामनराव गोडसे डाक कर्मचारी थे और उनकी माँ लक्ष्मी नव गोदावरी थीं। जन्म के समय, उनका नाम रामचन्द्र था।
शंकर किस्तैया, गोपाल गोडसे, मदन लाल पहवा, दिगम्बर रामचन्द्र बैज, बैठा (एल से आर), नारायण आप्टे, विनायक डी सावरकर, नाथूराम गोडसे, विष्णु करकरे गोडसे एक साथ पढ़ते थे; लेकिन गोडसे हाई स्कूल से बाहर हो गये और हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों और हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता बन गये। यद्यपि कि उनकी सदस्यता की सही तिथि और सत्यता अनिश्चित है। गोडसे 1932 में एक कार्यकर्ता के रूप में सांगली (महाराष्ट्र) में राष्ट्रवादी संगठन में शामिल हो गये। उन्होंने अपने विचारों को प्रचारित करने के लिये अखबारों में लेख लिखे और उन्होंने बाबाराव सावरकर की पुस्तक \”राष्ट्र मीमांसा\” का अंग्रेजी में अनुवाद किया। गोडसे ने 1942 के विजयादशमी के दिन अपना अलग संगठन \”हिन्दू राष्ट्र दल\” बनाया और बाकी संगठनों से पूरी तरह अलग हो गये। सन 1946 में, गोडसे ने भारत के विभाजन के मुद्दे पर उस समय के अन्य हिन्दू संगठनों को छोड़ने और हिन्दू महासभा में जाने का दावा किया। सच में तीस जनवरी 1948 को गाँधी बिड़ला हाउस, नयी दिल्ली में एक हवेली में ठहरे थे; उसी के पीछे एक लॉन पर प्रार्थना सभा के लिये अपना रास्ता बनाया और गोडसे ने भीड़ से निकलकर अपना रास्ता पैदल तय किया। उन्होंने गाँधी की छाती में तीन गोलियाँ दाग दिया। गाँधी तुरन्त गिर गये; आस पास की भीड़ सदमे में आ गयी। गोडसे ने अपने को कुछ सैन्यकर्मियों की बाहों में डाल दिया, सैन्यकर्मियों ने उन्हें निहत्था कर दिया। गाँधी को बिड़ला हाउस में उनके कमरे में ले जाया गया, जहाँ लगभग एक घण्टे बाद उनकी मृत्यु हो गयी। गोडसे को पंजाब उच्च न्यायालय, पीटरहाफ, शिमला में परीक्षण के लिये रखा गया था। आठ नवम्बर 1949 को उन्हें मौत की सजा सुनाई गयी। अब यहाँ दो बड़े सवाल खड़े होते हैं, एक- सामान्यतया भारत भावना प्रधान देश है और ऐसी निर्ममता के लिये कभी भी भीड़ या समूह किसी को माफ नहीं करती है और भीड़ को किसी के द्वारा नियन्त्रित करना असम्भव होता है। उस समय प्रार्थना सभा थी और वहाँ गाँधी जी के साथ काफी लोग थे; उन लोगों की कोई बड़ी प्रतिक्रिया क्यों नहीं हुई? दूसरा, गाँधी को गोली लगने वाले स्थल से निकटतम अस्पताल मात्र दस मिनट की दूरी पर था; उनको उनके कमरे में ले जाया गया; अस्पताल ले जाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? गाँधी की हत्या पर लाखों भारतीयों ने शोक जताया; हिन्दू महासभा की आलोचना की गयी और नेहरू के दबाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अस्थायी रूप से प्रतिबन्ध लगा दिया गया। क्या इससे प्रतीत नहीं होता कि गाँधी की हत्या प्रायोजित थी और उस प्रयोजन का दो उद्देश्य था; पहला- सत्ता के मद में चूर लोगों के सामने कोई बाधा न आये और दूसरा, तेजी से उभड़ता एवं लोकप्रिय होता हुआ भारतीय मानसिकता का सामाजिक सांस्कृतिक संगठन बदनाम हो। इससे यह भी सवाल उपजता है कि, गाँधी की हत्या गोडसे ने नहीं, किसी और ने किया और उन्हें हिन्दू संगठनों को बदनाम करने के लिये फँसाया गया तथा अतिउत्साह एवं हिन्दुत्व के प्रेम में गोडसे ने उक्त आरोप स्वीकार कर लिया हो।
यहाँ उक्त परिस्थितियों में नाथूराम गोडसे के अन्तिम बयान के बारे में जानना जरूरी होगा, जो उन्होंने जज के सामने दिया था। जिसे सुनकर कोर्ट में बैठे हर व्यक्ति की आँखें नम हो गयी थीं। उनका कोर्ट में जज के सामने अन्तिम बयान- \”सम्मान, कर्तव्य और अपने देशवासियों के प्रति प्यार कभी- कभी हमें अहिंसा के सिद्धान्त से हटने के लिये बाध्य कर देता है। मैं यह कभी नहीं मान सकता कि किसी आक्रामक का सशस्त्र प्रतिरोध करना गलत या अन्याय पूर्ण भी हो सकता है। प्रतिरोध करने और यदि सम्भव हो तो ऐसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करने को मैं एक धार्मिक नैतिक एवं राष्ट्रभक्तिपूर्ण कर्तव्य मानता हूँ। मुसलमान अपनी मनमानी कर रहे थे, या तो कांग्रेस उनकी इच्छा के सामने आत्मसर्पण कर दे और उनकी सनक, मनमानी और आदिम रवैये के स्वर में स्वर मिलाये अथवा उनके बिना काम चलाये। वे अकेले ही प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति के निर्णायक थे और उनके पक्ष में अघोषित तुष्टिकरण चल रहा था। महात्मा गाँधी अपने लिये जूरी और जज दोनों थे। गाँधी जी ने मुस्लिमों को खुश करने के लिये हिन्दी भाषा के सौन्दर्य और सुन्दरता के साथ बलात्कार किया। गाँधी जी के सारे प्रयोग केवल और केवल हिन्दुओं की कीमत पर किये जाते थे। जो कांग्रेस अपनी देश भक्ति और समाजवाद का दम्भ भरा करती थी, उसी ने गुप्त रूप से बन्दुक की नोक पर पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने तुक्ष भाव से आत्मसमर्पण कर दिया। मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के कारण भारत माता के टुकड़े कर दिये गये और 15 अगस्त 1947 के बाद देश का एक तिहाई भाग हमारे लिये विदेशी भूमि बन गया। नेहरु तथा उनकी भीड़ की स्वीकारोक्ति के साथ ही पन्थ या मजहब के आधार पर अलग राज्य बना दिया गया। क्या वह तुष्टिकरण नहीं था? इसी को वे बलिदानों द्वारा जीती गई स्वतन्त्रता कहते है; किन्तु वह किसका बलिदान? जब कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने गाँधी की सहमती से इस देश को काट डाला, जिसे हम पूजा की वस्तु मानते रहे हैं; तो मेरा मस्तिष्क भयंकर क्रोध से भर गया। मैं साहस पूर्वक कहता हूँ कि गाँधी अपने कर्तव्य में असफल हो गये। उन्होंने स्वयं को पाकिस्तान का पिता होना सिद्ध किया। भारत में वे कैसे और किस बात के राष्ट्रपिता? मैं कहता हूँ कि मेरी गोलियाँ एक ऐसे व्यक्ति पर चलाई गयीं, जिसकी नीतियों और कार्यों से करोड़ों हिन्दुओं को केवल बर्बादी और विनाश ही मिला। ऐसी कोई क़ानूनी प्रक्रिया नहीं थी, जिसके द्वारा उस अपराधी को त्वरित सजा दिलाई जा सके, इसलिये मैंने इस रास्ते का अनुसरण किया। मैं अपने लिये माफी की गुजारिश नहीं करूँगा, जो मैंने किया उस पर मुझे गर्व है। मुझे कोई सन्देह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार लेखक मेरे कार्य का वजन तोलकर भविष्य में किसी दिन इसका सही मूल्यांकन करेंगे। जब तक सिन्धु नदी भारत के ध्वज के नीचे से ना बहे, तब तक मेरी अस्थियों का विसर्जन मत करना।\” \’नमस्ते बापू\’ कहकर गोडसे ने जिस समय महात्मा गाँधी के सीने में उतार दिया था तीन गोलियाँ; उस दिन गाँधी, आभा और मनु के कन्धों पर हाथ रखकर प्रार्थना सभा में शामिल होने के लिये मञ्च की तरफ आगे बढ़ रहे थे, कहा जाता है कि तभी अचानक उनके सामने नाथूराम विनायक गोडसे का आना हुआ था। जिस दिन प्रार्थना सभा के लिये निकले थे, वह 30 जनवरी 1948 का दिन था। गाँधी ने उसी दिन सरदार पटेल को बातचीत के लिये शाम 4 बजे मिलने के लिये बुलाया था। पटेल अपनी बेटी मणिबेन के साथ तय समय पर गाँधी से मिलने के लिये पहुँच गये थे। बिड़ला भवन में हर शाम 5 बजे प्रार्थना सभा का आयोजन किया जाता था। इस सभा में गाँधी जब भी दिल्ली में होते तो आभा एवं मनु के साथ शामिल होना नहीं भूलते थे। कुल मिलाकर यदि गोडसे को निर्दोष साबित नहीं किया जा सकता तो आज देश के सामने मुँह बाये खड़े अलगाववाद, तुष्टिकरण, आतंकवाद की जिम्मेदारियों एवं जवाहरलाल नेहरू के दबाव एवं इन्दिरा गाँधी से उनके व्यामोह के लिये मोहनदास करमचन्द गाँधी को मुक्त भी नहीं किया जा सकता। इन्दिरा गाँधी, मोहनदास गाँधी के लिये विशिष्ट श्रेणी की आभा एवं मनु ही थीं।
डॉ कौस्तुभ नारायण मिश्र
सन्दर्भ:
सत्यपरख भारत, नयी दिल्ली पत्रिका के www.satyparakhbharat.com अगस्त 2021 के अंक में पृष्ठ 8- 10 \’बात पाते की\’ कालम के अन्तर्गत कौस्तुभ नारायण मिश्र का \’गाँधी एवं गोडसे का सच\’ विषयक लेख।
