योग एवं योग दिवस

 

स्वस्थ तन एवं मन की प्राप्ति हेतु भारतीय साधना पद्धति का नाम योग है। योग, एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने की क्रिया की जाती है। \’योग\’ शब्द तथा इसकी प्रक्रिया और धारणा सनातन, जैन, बौद्ध आदि में लगभग सभी जगह ध्यान से सम्बन्धित है। भारत के योग नाम की इस मूल सांस्कृतिक – आध्यात्मिक चेतना से इस समय सारा जगत परिचित है। ‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से उत्पन्न हुआ है; इसलिये ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- चित्त वृत्तियों के निरोध या संयम के लिए समाधि में जाना। वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी उत्पन्न होता है; किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन हो जाता है। आत्मा और परमात्मा के युग्मता के सम्बन्ध में भी योग का प्रयोग होता है। वैश्विक प्रसिद्धि के बाद पहली बार तत्कालीन भारतीय नेतृत्व के प्रयास के फलस्वरूप भारत के इस अवदान को 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दिया। किसी भी चीज की परिभाषा ऐसी होनी चाहिए, जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त तो हो; लेकिन इसकी मुक्ति के लिए शब्द के मूल उत्पत्ति स्थान के भेद का भी संज्ञान लेना चाहिए अर्थात मूल उत्पत्ति में भेद है तो दोषमुक्त मान लेना चाहिए। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रन्थ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार, कई स्तरीय प्रयोग हुआ है। पहले स्तर पर तीन- भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग; दूसरे स्तर पर पांच- भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग, विषाद योग, ध्यान योग; तीसरे स्तर पर नौ- भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग, वैराग्य योग, ध्यान योग, आत्म योग, विषाद योग, सांख्य योग, विज्ञान योग और अन्तिम स्तर पर अट्ठारह योग की चर्चा है। वेदोत्तर काल में हठयोग और पतंजलि योगदर्शन में क्रियायोग शब्द का भी व्यवहार आया है। अन्य ग्रंथों में पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है \’योगः कर्मसु कौशलम\’ (कर्मों में कुशलता ही योग है।) जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को भी योग कहते हैं। पतञ्जलि ने योगसूत्र में, जो परिभाषा दी है \’योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः\’ अर्थात चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो हैं और उन दोनो का हेतु एक है- चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम भी योग है और उस अवस्था को लाने के उपाय को भी योग कहते हैं।

 

भगवान श्रीकृष्ण के इस वाक्य का विशेष अर्थ है, योगस्थः कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। तात्पर्य यह कि, चेतना एवं संयम युक्त होकर कार्य और व्यवहार करना। चेतना एवं संयम से युक्त होने के लिए आष्टांगिक मार्ग बताए गए है। क्योंकि सदैव चेतना एवं संयम युक्त होना या रहना आसान नहीं होता; यह योग से सिद्ध भाव से आता है; इसलिए सिद्ध या सिद्धि योग भी आवश्यक क्रिया है। संसार को मिथ्या माननेवाला अद्वैतवादी भी निदिध्याह्न के नाम से योग का समर्थन करता है। अनीश्वरवादी सांख्य विद्वान भी उसका अनुमोदन करते हैं। बौद्ध ही नहीं, मुस्लिम सूफी और ईसाई मिस्टिक भी किसी न किसी प्रकार अपने सम्प्रदाय की मान्यताओं और दार्शनिक सिद्धांतों के साथ योग का सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं।

अनेक दार्शनिक वैचारिक मूल्यों एवं मान्यताओं में किस प्रकार समन्वय हो सकता है, जिससे ऐसा धरातल मिल सके, जिस पर योग की अर्थभूत भित्ति खड़ी की जा सके! यह बहुत ही रोचक विषय है; लेकिन इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। उसकी विस्तृत चर्चा फिर कभी की जायेगी। योग की प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है, जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं। योग की उच्चावस्था समाधि, मोक्ष, कैवल्य आदि तक पहुँचने के लिए अनेकों साधकों ने जो साधन अपनाये, उन्हीं साधनों का वर्णन योग ग्रन्थों में समय समय पर मिलता रहा। इस सम्बन्ध में मंत्र विधि को जानना आवश्यक है- \’मंत्र\’ का समान्य अर्थ है- \’मननात् त्रायते इति मन्त्रः\’ अर्थात मन को पार कराने वाला मंत्र ही है। मन्त्र योग का सम्बन्ध मन से है, अर्थात \’मनन इति मनः\’, जो मनन, चिन्तन करता है, वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है। मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती है। मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है। मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है। मंत्र जप में तीन घटकों का काफी महत्व है वे घटक- उच्चारण, लय व ताल हैं। तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है। मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है- वाचिक, मानसिक, उपांशु, अणपा।

 

योग के और गहराई में जाने के लिए, हठ का शाब्दिक अर्थ भी समझना जरूरी है, हठपूर्वक किसी कार्य को करने से लिया जाता है। शरीर में कई हजार नाड़ियाँ हैं, उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है- सूर्यनाड़ी या पिंगला जो दाहिने स्वर का प्रतीक है; चन्द्रनाड़ी या इड़ा जो बायें स्वर का प्रतीक है और इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है। इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है, जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है। इससे चेतना एवं संयम की स्थिति आती है और इस स्थिति को स्थायी भाव देने के लिए आठ अंगों का प्रयोग किया जाता है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं। कर्म योग में व्यक्ति अपने स्थिति के उचित कर्तव्यों के अनुसार कर्मों का श्रद्धापूर्वक निर्वाह करता है। भक्ति योग में भावनात्मक आचरण वाले लोगों को सुझाया जाता है। ज्ञान योग में प्रज्ञा विद्या ज्ञान विज्ञान के समीकरण के अनुरूप ज्ञानार्जन करना। गीता में योगों को तीन वर्गों में विभाजित किया है, प्रथम छह अध्यायों मे कर्म योग के बारे में; बीच के छह में भक्ति योग और अन्तिम छह अध्यायों मे ज्ञान योग के बारे में बताया गया है। यद्यपि प्रत्येक अध्याय को एक अलग \’योग\’ से सम्बन्ध बताते हैं; जहाँ अठारह अलग योग का वर्णन किया है। बीते 21 जून 2015 को प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया था। इस अवसर पर कुल 192 देशों और 47 मुस्लिम देशों में योग दिवस का आयोजन किया गया। उस दिन दिल्ली में एक साथ हजारों लोगों ने योगाभ्यास किया; जिसमें 84 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। मौजूद थे। इस अवसर पर भारत ने दो विश्व रिकार्ड बनाए, जो \’गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स\’ में दर्ज हुए। पहला रिकॉर्ड एक जगह पर सबसे अधिक लोगों के एक साथ योग करने का बना, तो दूसरा एक साथ सबसे अधिक देशों के लोगों के योग करने का रिकार्ड बना।

 

योग का उद्देश्य योग के अभ्यास के कई लाभों के बारे में दुनिया भर में जागरूकता बढ़ाना है। अब लोगों के स्वास्थ्य पर योग के महत्व और प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल 21 जून को योग का अभ्यास किया जाता है। वर्तमान समय में अपनी व्यस्त जीवन शैली के कारण लोग संतोष पाने के लिए योग करते हैं। योग से न केवल व्यक्ति का तनाव दूर होता है बल्कि मन और मस्तिष्क को शान्ति मिलती है। योग न केवल हमारे दिमाग, मस्‍तिष्‍क को सचेत करता है; बल्कि हमारी आत्‍मा को भी शुद्ध करता है। योग का लक्ष्य स्वास्थ्य में सुधार से लेकर मोक्ष अर्थात आत्मा को परमेश्वर का अनुभव प्राप्त करने तक है। जैन धर्म, अद्वैत वेदान्त और शैव सम्प्रदाय के अन्तर में योग का लक्ष्य मोक्ष का रूप लेता है, जो सभी सांसारिक कष्ट एवं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना है, उस क्षण में परम ब्रह्म के साथ समरूपता का एहसास होता है। योग हेतु, ऊपर वर्णित तीन नाड़ियों के साधन से, अष्टांगिक मार्गों के द्वारा उत्स तक ले जाया जाता है और इससे योग का परिणाम जीवन में संयमित- चेतना के रूप में आता है। इस परिणाम के आने पर जीव, खान- पान, रहन- सहन, आचार- विचार, कार्य- व्यवहार, वाणी- भाषा आदि में संयमित- चेतना युक्त होकर अपना श्रेष्ठ अवदान प्रकृति, समाज, जीवन को देता है। योग का सहज प्रकटीकरण स्वस्थ शरीर एवं प्रसन्न मन के रूप में होता है। इस रूप में योग को उद्भूत करने तथा 2014 में हमारे तत्कालीन नेतृत्व के प्रयासों से वैश्विक स्तर पर योग को स्थापित करने एवं व्यवहार में लाने तथा लाभ उठाने में महती भूमिका निभाया है।

 

डा कौस्तुभ नारायण मिश्र

 

यह लेख युगवार्ता, नई दिल्ली के 16 से 30 जून 2022 के अंक के \’नजरिया\’ कालम के अन्तर्गत प्रकाशित है।